‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ के सर्जक हिन्दी के वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह (13जनवरी, 1911-12मई, 1993) की एक कविता इन दिनों बार-बार याद आती है : जो धर्मों के अखाड़े हैं/उन्हें लड़वा दिया जाए!/जरूरत क्या कि हिंदुस्तान पर/हमला किया जाए!!/मुझे मालूम था पहले ही/ये दिन गुल खिलाएंगे/ये दंगे और धर्मों तक भी/आखिर फैल जाएंगे…जो हिंदू और मुस्लिम था/सिख-हिंदू हो गया/देखो!/ये नफरत का तकाजा/और कितना बढ़ गया/देखो!!/हम इसके पहले भी/मिल-जुल के आखिर/रहते आए थे/जो अपने भी नहीं थे/वो भी कब इतने/पराए थे!/हम अपनी सभ्यता के/मानी-औ-मतलब ही/खो बैठे/जो थीं अच्छाइयां/इतिहास की/उन सबको धो बैठे…/ये मुल्क इतना बड़ा है/यह कभी बाहर के/हमले से/न सर होगा!/जो सर होगा तो बस/अंदर के फितने से/ये मनसूबा है-/दक्षिण एशिया में/धर्म के चक्कर…/चलें!-और बौद्ध/हिंदू, सिख, मुस्लिम/में रहे टक्कर!/वो टक्कर हो कि सब कुछ/युद्ध का मैदान/बन जाए!/कभी जैसा नहीं था, वैसा/हिन्दुस्तान बन जाए!! इन दिनों भारत ही नहीं, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश की, जो कुछ शताब्दियों या कुछ दशकों पहले तक भारत का हिस्सा रहे हैं, खुद को धार्मिक कहने और धर्म के चोले में नाना प्रकार की कट्टरताओं, क्रूरताओं व अंधताओं को पालने-पोसने वाली सत्ताएं ही नहीं, लोगों का एक हिस्सा भी इस कविता को ‘सार्थक’ करने में लगा दिखाई देता है।
इस कदर कि इससे विचलित हिंदी के वरिष्ठ स्तम्भकार व विश्लेषक वेदप्रताप वैदिक खुद को यह कहने से नहीं रोक पाते कि पाकिस्तानी अपने संस्थापक कायदेआजम मोहम्मद अली जिन्ना और बंगलादेशी अपने संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान तो भारतीय अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को शीर्षासन करा रहे हैं।
वैदिक कहते हैं : आज न पाकिस्तान के सताधीशों को जिन्ना का कह कथन याद है कि आजाद पाकिस्तान में हिंदू-मुसलमान का भेदभाव नहीं चलेगा, न ही बंगलादेश को शेख मुजीबुर्रहमान का ‘बांग्ला सर्वोपरि’ का नारा।
इस सिलसिले में भारत के सत्ताधीशों को क्या-क्या याद है और क्या-क्या भूल गया, इसे यों समझ सकते हैं कि उनमें से कई को धर्मनिपरेपक्षता, समानता और समाजवाद जैसे शब्द हकीकतन तो क्या, संविधान की पोथियों में भी अच्छे नहीं लगते और वे सबसे पहले द्विराष्ट्रसिद्धांत और हिंदू राष्ट्र के विचार को सामने लाने वाले हिंदू महासभा के स्वयंभू नेता विनायक दामोदर सावरकर द्वारा अंग्रेजों से कई बार मांगी गई माफी को सही ठहराने के लिए महात्मा गांधी तक के दुरुपयोग पर आमादा हैं।
इस सबके बावजूद जो महानुभाव, बकौल शमशेर बहादुर सिंह, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश और भारत में चल रहे : ‘धर्म के चक्करों’ को अलग-अलग करके देखना-दिखाना, समझना-समझाना और अपनी संकीर्ण व कट्टरपंथी विचारधाराओं के पक्ष में इस्तेमाल करके लाभ उठाना चाहते हैं, उन पर तरस भी नहीं खाया जा सकता।
क्योंकि वे कोई अबोध नहीं हैं, न ही इतने गैरजानकार कि यह भी न समझें कि वे क्या कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कर रहे हैं, उसके नतीजों की बाबत पूरी तरह सोचने-विचारने के बाद कर रहे हैं।
उन्हें मालूम है कि लोग उनके लिए इस्तेमाल होने से इनकार करके उनका खेल खराब कर देंगे, अगर उनमें इस समझदारी का सम्यक विकास हो जाए कि बंगलादेश की राजधानी ढाका से सौ किमी दूर कोमिला में एक दुगार्पूजा पंडाल में कुरान के कथित अपमान के बाद वहां के अल्पसंख्यकों पर बरपे कहर, भारत के कई अंचलों में गोहत्या के नाम यहां तक कि अफवाह पर भी मॉब लिंचंग, जम्मू कश्मीर में धार्मिक आधार पर लक्ष्य बनाकर नागरिकों की हत्याओं और राजधानी दिल्ली के सिंघू बार्डर पर किसानों के आंदोलनस्थल के पास गुरुग्रंथ साहब के कथित अपमान के आरोप में दलित युवक को बेहद क्रूरतापूर्वक ़मौत के घाट उतार दिए जाने जैसी सारी घटनाओं के पीछे प्राय: एकमात्र उस धर्मांधता का ही हाथ है, जो प्राय: अदृश्य और नहीं तो अलग-अलग हुलिये में नजर आकर और पहचान छिपाकर नाना प्रकार के गुल खिलाती रहती है।
इसलिए धार्मिक कट्टरपंथियों की हरचंद कोशिश रहती है कि लोग यह समझने से महरूम ही रहें कि धर्मों से जुड़ी कट्टरताओं व अंधताओं के कितने भी रूप हों और ऊपर से वे परस्पर कितने भी विरोधी क्यों न दिखते हों, मूलत: एक दूजे के पूरक ही होते हैं। लोगों को इस सच्चाई से दूर रखने के लिए कितनी साजिशें रची जाती हैं या उन्हें डाराकर चुप कराने के लिए कितना आतंक फैलाया जाता है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
इसकी एक मिसाल बंगलादेश के कोमिला महानगर स्थित मामुआ दीघीर पार में बने दुगार्पूजा पंडाल में चुपके से कुरान की एक प्रति रख दिया जाना भी है, बाद में जिसकी फोटो खींचकर फेसबुक पर डाली गई और ‘पवित्रग्रंथ के अपमान’ की खबर फैलाकर वहां परम्परा से चले आ रहे हिन्दू मुस्लिम सद्भाव को आग लगा दी गई।
इस तरह की धार्मिक कट्टरताएं एक दूजे की पूरक न होतीं तो बंगलादेश की प्रधानमंत्री को यह न कहना पड़ता कि ‘भारत में भी ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे हमारे मुल्क पर असर हो।’ और ‘भारत में कुछ होता है तो हमारे यहां के हिंदू प्रभावित होते हैं।’
उनके कहने का यह आशय बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों से खराब सलूक होता है तो उनके लिए अपने देश के अल्पसंख्यक हिंदुओं को उसकी ‘कीमत’ चुकाने से बचाना कठिन हो जाता है।
निस्संदेह, इससे भी धार्मिक कट्टरताओं व अंधताओं का पूरक होना ही सिद्ध होता है वरना इस बात की क्या तुक कि दूर देश में किन्हीं धर्मभाइयों के साथ विधर्मियों द्वारा किए गए अप्रिय सलूकों का बदला अपने पड़ोसी विधर्मियों से लिया जाए। वह भी महज इस आधार पर कि उनका और दूर देश के धर्मभाइयों को सताने वालों का धर्म एक है!
दुनिया के किसी भी देश में खुद को लोकतांत्रिक बताने वाली व्यवस्थाएं भी ऐसी व्यवस्था का सपना साकार नहीं कर पार्इं हैं, जिसमें धर्म के नाम पर हिंसा न हो, अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित न किया जाए, उनको दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह या डर-डर कर न रहना पड़े और बार-बार अपनी देशभक्ति का सबूत न देना पड़े।
इतना ही नहीं, दुर्घटनावश, कभी ऐसा हो जाये तो वह देश की व्यवस्था के लिए बहुत शर्मनाक बात हो और किसी देश के मुखिया का अपने सभी नागरिकों के जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित न कर पाने को उसकी सबसे बड़ी नाकामी के तौर पर दर्ज किया जाए।