Friday, January 10, 2025
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राहुल की ‘एकला चलो’ की जिद

 

Samvad 46

 


Anil Jainसाल 2019 के लोकसभा चुनाव में देश के क्षेत्रीय दलों को 14.15 करोड़ वोट मिले थे, जो कांग्रेस को मिले 11.95 करोड़ वोटों से 2.2 करोड़ वोट ज्यादा हैं। इन क्षेत्रीय दलों के सांसद भी कांग्रेस से ज्यादा हैं- लोकसभा में भी और राज्यसभा में भी। देश भर में कुल विधायकों की संख्या भी कांग्रेस से ज्यादा क्षेत्रीय दलों की है।

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2019 के लोकसभा चुनाव के बाद करीब एक दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव जिनमें से पांच राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने और एक राज्य में वामपंथी मोर्चे ने सरकार बनाई, जबकि कांग्रेस किसी भी राज्य में न तो अपनी सरकार बना सकी और न ही बचा सकी।

पंजाब और पुदुच्चेरी, जहां कांग्रेस की सरकारें थीं, वहां भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा, जबकि मध्य प्रदेश में उसकी सरकार व्यापक पैमाने पर दलबदल और विधायकों की खरीद-फरोख्त के चलते गिर गई। इसके बावजूद राहुल गांधी पता नहीं कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचे या उन्हें किसी ने समझा दिया कि क्षेत्रीय दलों भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने की कुव्वत नहीं है।

जिन क्षेत्रीय दलों के साथ मिल कर कांग्रेस ने लगातार केंद्र में दस साल 2004 से 2014 तक सरकार चलाई, उनके बारे में अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि क्षेत्रीय दलों के पास कोई विचारधारा नहीं है और वे भाजपा से नहीं लड़ सकते। कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में उन्होंने कहा, ‘हमें जनता को बताना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियों की कोई विचारधारा नहीं है, वे सिर्फ जाति की राजनीति करती हैं। इसलिए वे कभी भी भाजपा को नहीं हरा सकतीं और यह काम सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है।

’ राहुल का यह बयान साफ तौर पर इस बात का संकेत है कि कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को एक बार फिर नकार दिया है। लेकिन उनके इस ऐलान और गठबंधन की राजनीति पर पार्टी द्वारा गठबंधन की राजनीति पर पारित संकल्प में काफी विरोधाभास है।

गठबंधन की राजनीति को लेकर पार्टी के इस संकल्प और राहुल गांधी के भाषण की भाषा और ध्वनि बिल्कुल अलग है। जाहिर है कि या तो राहुल ने भाषण देने के पहले अपनी पार्टी के संकल्प को ठीक से न तो पढ़ा और सुना हो या फिर उनके भाषण के नोट्स तैयार करने वाले किसी सलाहकार ने अपनी अतिरिक्त अक्ल का इस्तेमाल करते हुए संकल्प से हट कर गठबंधन की राजनीति को खारिज करने वाली बात उनके भाषण में डाल दी हो।

जो भी हो, दोनों ही बातें राहुल को एक अपरिपक्व नेता के तौर पर पेश करती हैं और उनकी उस छवि को पुष्ट करती हैं जो भाजपा ने भारी-भरकम पैसा खर्च करके अपने आईटी सेल और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया के जरिए बनाई है।
कांग्रेस नेतृत्व के तौर पर राहुल का गठबंधन की राजनीति को नकारना कोई नई बात नहीं है। इससे पहले 1998 में पचमढ़ी के चिंतन शिविर में भी उसने गठबंधन की राजनीति को नकार कर ‘एकला चलो’ की राह पर चलने का फैसला किया था।

हालांकि उस समय तक देश में गठबंधन की राजनीति का युग शुरू हो चुका था और केंद्र में गठबंधन की पांचवीं सरकार चल रही थी। उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी लेकिन उसने गठबंधन की राजनीति को कुबूल नहीं किया और 1999 का लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा जिसमें उसे फिर हार का मुंह देखना पड़ा। विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने फिर अपने भविष्य की चिंता सताने लगी तो उसने शिमला में चिंतन शिविर आयोजित किया। उस शिविर में उसने ‘एकला चलो’ का रास्ता छोड़ गठबंधन की राजनीति को स्वीकार किया।

1998 में 24 छोटे-बड़े दलों के गठबंधन के बूते प्रधानमंत्री बनने के बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और मजबूत होकर उभरे थे। उस समय कांग्रेस के नेताओं को लगने लगा था कि अब अगर कांग्रेस ने भी गठबंधन राजनीति को नहीं अपनाया तो पार्टी कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी। लिहाजा कांग्रेस ने नीति बदली। इसका उसे फायदा भी हुआ और उसने 2004 में सत्ता में वापसी की।

हालांकि हकीकत यह है कि 2004 में एक-दो राज्यों में हुए गठबंधन को छोड़ दें तो कांग्रेस लगभग अकेले ही लड़ी थी और बहुमत से दूर रही थी। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की अगुवाई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन हुआ था, जो एक दशक बाद 2014 का चुनाव आते-आते कांग्रेस की तंगदिली के चलते काफी हद तक बिखर गया था।

दरअसल देश की राजनीति में गठबंधन का युग शुरू हुए तीन दशक से ज्यादा समय हो चुका है और उसमें दस साल तक कांग्रेस खुद भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है, इसके बावजूद पिछले आठ वर्षों के दौरान जीर्ण-शीर्ण हो चुकी कांग्रेस का नेतृत्व और उसके सलाहकार अभी भी इस जमीनी हकीकत को हजम नहीं कर पा रहे हैं कि केंद्र में उसके अकेले राज करने के दिन अब लद चुके हैं।

वे इस बारे में उस भाजपा से भी सीखने को तैयार नहीं हैं, जिसने पिछले तीन दशक में अपने प्रभाव क्षेत्र का व्यापक विस्तार कर लेने के बावजूद गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है।

चुनाव में सीटों का बंटवारा हो या सत्ता में साझेदारी, किसी भी मामले में भाजपा अपने गठबंधन के साझेदारों के प्रति उदारता दिखाने में पीछे नहीं रहती है। अपनी इसी उदारता और राजनीतिक समझदारी के बूते ही अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में दो दर्जन से भी ज्यादा दलों के गठबंधन के साथ छह वर्षों तक उसकी सरकार चलती रही। पिछले दो चुनाव में तो पूर्ण बहुमत मिल जाने के बावजूद उसने अपने गठबंधन के सहयोगियों को सत्ता में साझेदार बनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया।

चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने अपने भाषण में क्षेत्रीय दलों को भाजपा से लड़ने में अक्षम बताया है। राहुल का यह बयान भी तथ्यों से परे है। हकीकत तो यह है कि पिछले आठ वर्षों के दौरान भाजपा को चुनौती देने या अपने प्रदेशों में रोकने का काम क्षेत्रीय दलों ने ही किया है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड आदि राज्य अगर आज भाजपा के कब्जे में नहीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ क्षेत्रीय दलों की बदौलत ही।

यही नहीं, बिहार में भी अगर भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है तो इसका श्रेय वहां की क्षेत्रीय पार्टियों को ही जाता है। इनमें से कई राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव रहा है, जिसे राहुल ने अपने अहंकारी बयान से खोया ही है। पिछले दिनों पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव तो कांग्रेस ने अकेले के बूते ही लड़े थे और उनमें उसकी क्या गत हुई है, यह भी राहुल गांधी को नहीं भूलना चाहिए। कहा जा सकता है कि राहुल का यह बयान कुल्हाड़ी पर पैर मारने जैसा है।


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