डा. विनोद बब्बर |
आज जिसे देखो वही धन व संसाधनों की दौड़ में लगा है। सभी को लगता है कि धन से सुख, सुविधाएं मिल सकती हैं, लेकिन अनुभव तो यह है कि यदि हमारे पास दुनिया का पूरा वैभव और सुख-साधन उपलब्ध है परंतु शांति नहीं है तो हम भी दुनिया के दुखी लोगों की भीड़ का हिस्सा ही होंगे। इसलिए कहा जा सकता है कि सुख शांति के बिना पंगु है। यदि हमारे समस्त उद्यमों का उद्देश्य शांति हो तो सुख स्वत: हमारे पास आ जाएगा। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं प्रकाश की पीठ करके चलने पर हमारी परछाई आगे और हम पीछे होते हैं। हम चाह कर भी उसे पकड़ नहीं सकते लेकिन प्रकाश की ओर मुंह करके चलने पर परछाई हमारे पीछे आती है। शांति प्रकाश है, ज्ञान है जबकि धन से प्राप्त सुख मृगमरीचिका के समान हैं। भटकाता तो है पर देता कुछ नहीं।
अब प्रश्न यह कि शांति क्या है? शांति का अर्थ केवल यह नहीं कि केवल चुपचाप रहें। हम मुंह बंद भी रखें होंगे कि तो भी मन को चुप कराना कठिन है। जब तक मन की उथल पुथल जारी रहेगी और शांति का कोई मतलब नही। शांति नहीं तो सुख का भी कोई अर्थ नहीं क्योंकि सच्चे सुख का आधार शांति है। अगर हम जाने लें कि सुख का शांति से गहरा नाता है तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि सुख का असंतोष, स्वार्थ, लोभ, अति मोह, ईर्ष्या से प्रतिगामी संबंध है। ये शांति को पाने के प्रयासों में सबसे बड़ी बाधाएं है। इसलिए सबसे पहले हमारी लड़ाई शांति को भंग करने वाले इन अवैध हथियारों, औजारों से है।
हो सकता है कि हमारे परिवेश में कुछ लोग ऐसे भी हों जो कहें कि स्वार्थ, लोभ, अति मोह, ईर्ष्या के बिना जीवन चल ही नहीं सकता। यह सब किये बिना भौतिक सामग्री, धन प्राप्त नहीं किया जा सकता। सुख-साधनों तथा अन्य संसाधनों के बिना शांति नहीं हो सकती। यह भी संभव है कि वे तर्क प्रस्तुत करें कि जिस तरह आक्सीजन के बिना सांस नहीं ले सकते, सांस के बिना जीवन नहीं चल सकता तो भोजन, वस्त्र, आवास के बिना जीवन भी नहीं चल सकता। उनका तर्क प्रभावी लग सकता है। उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं, बस उसे ठीक से समझने की जरूरत है।
उन्होंने कहा-सांस लेने के लिए आक्सीजन चाहिए। उन्होंने यह नहीं कहा कि कार्बन डाइ आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, क्लोरीन या अन्य प्रदूषित गैसों से सांस लिया जा सकता है क्योंकि वे ही नहीं, आप भी जानते होंगे कि प्रदूषित वायु से सांस तो आप लेंगे परंतु आप पहले अस्वस्थ फिर अशक्त और फिर अदृृश्य, अनुपस्थित हो सकते है। पवित्र संसाधनों से अर्जित धन आॅक्सीजन है और स्वार्थ, लोभ, अति मोह, ईर्ष्या, गलत साधनों से अर्जित धन प्रदूषित वायु है जो मन की शांति को बाधित करते है। यदि केवल धन से ही शांति मिलती तो हम मंदिर के चक्कर नहीं लगाते। धन-दौलत और संपदा से संसाधन खरीदे जा सकते हैं परंतु सुख नहीं खरीदा जा सकता क्योंकि सुख तो मन की शांति का अनुगामी है। यह सोचना कि बस यह कर लूंगा तो शांति मिल जाएगी। वह और कर लूं तो तनाव समाप्त तो आप स्वयं को धोखा दे रहे हो। यह-वह अर्थात आवश्यकताओं को पूर्ति करते-करते जीवन बीत जाता है पर न माया मिली न राम। न शांति मिलती है और न ही खुशी।
खुशहाल जीवन के लिए सबसे जरूरी है शांति। जहां शांति है, वहां विकास है। जहां विकास है, वहां सुख है। इसलिए अमूल्य शांति के लिए सबसे पहले हमें स्वयं को देखना है। अपने बारे में जानना है। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं। यह जानना है कि शांति का सागर परमात्मा है। हम सब तो उस सागर की बूंद हैं। परमपिता परमात्मा की संतान हैं। जब हमारे अंतर्मन में शांति आएगी तो हमारा वास्तविक विकास होगा। उसी से सरल, सहज सुख का झरना हमारे मन मस्तिष्क में अपनी संगीत लहरियां बिखेरेगा। इसलिए समस्त तनावों, दुखों से मुक्ति के लिए हमें अपने धर्म को जानना है। शाश्वत सत्य को स्वीकारना है। परमात्मा से जुड़ना है।
परमात्मा से जुड़ने का अर्थ स्वयं को परिवार, समाज, दुनिया के काटते हुए किसी गुफा में जाकर बैठ जाना नहीं है। अपने सच्चे श्रम से प्राप्त पवित्र संसाधनों से संतुष्ट रहने की कला विकसित करने का नाम परमात्मा से जुड़ना है। हर हाल में संतुष्ट रहना, अपने परिवेश के जीव जन्तुओं, पेड़ पौधों से जुड़ने का जीवन प्रबंधन हमने सीख लिया तो सुख और शांति हमारी दासी बन जाएगी। परमात्मा हमारा स्थायी मित्र बन जाएगा।
और हां, संतुष्ट रहने का अर्थ गरीबी, अभावों से लड़ना भूलना नहीं है। जरूर लड़ना है लेकिन चोरी, बेईमानी, रिश्वत, भ्रष्टाचार से दूर रहना है। हर वैध तरीका अपनाना है पर अवैध, अनैतिक तरीके से दूर रहना है। यह ऐसा विष है जो धीरे धीरे हमारा आत्मा को मारता है। आत्मा बिन परमात्मा से जुड़ने की संभावना समाप्त, शांति की संभावना समाप्त और शांति के बिना तो सुख की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ध्यान रहे सुख के भौतिक साधनों की सीमा तन हैं पर शांति का संबंध तन से नहीं, मन से है।