नोबेल पुरस्कार के घोषणाओं की कड़ी में सोमवार को अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार की घोषणा की गई। इस साल यानी 2024 के लिए डेरॉन ऐसमोग्लू, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। ऐसमोग्लू और जॉनसन अर्थशास्त्री हैं जबकि रॉबिन्सन प्रशिक्षित राजनीतिशास्त्री हैं। यदि आप अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लोगों की फेहरिस्त उठा कर देखें तो इस क्षेत्र में इनाम देने की दो स्पष्ट प्रवृतियाँ दिखती हैं। ऐसी प्रवृतियाँ या ट्रेंड नोबेल के अन्य विज्ञान—रसायन, भौतिकी और चिकित्सा-शरीर विज्ञान—में कम ही दिखती हैं।
पहली प्रवृति यह है कि अर्थशास्त्री के काम और उनको पुरस्कार मिलने के बीच का समय अंतराल बढ़ रहा है। मतलब उनके अग्रगणी और पथप्रवर्तक काम की सराहना और स्वीकृति तो बहुत पहले ही हो चुकी होती है लेकिन नोबेल मिलता है बरसों बाद! उनको एक लंबी ‘प्रतीक्षा अवधि’ के दौर से गुजरना पड़ता है। मिसाल के तौर पर, 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अभिजीत बैनर्जी, ईस्थर डुफ्लो और माइकल क्रेमर को वैश्विक गरीबी उन्मूलन पर उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के लिए दिया गया था। इससे पहले कि नोबेल पुरस्कार समिति उनके काम को मान्यता देता, बहुत पहले ही इन अर्थशास्त्रियों के शोध का स्पष्ट प्रभाव कई देशों की आर्थिक नीतियों पर पड़ चुका था। उनके शोध के परिणाम 90 के दशक के मध्य में जग-जाहिर हो चुके थे। तमाम देश उनके शोध का प्रभावी प्रयोग अपनी नीतियों में कर चुके थे। इसके बरक्स उनको नोबेल पुरस्कार मिला लगभग चौथाई सदी बाद!
इसी संदर्भ में विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘नेचर’ में 2022 में प्रकाशित हुआ। इसके लेखक साइप्रस विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री पैनदेलिस मीतसीस कहते हैं कि अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार में लंबा ‘टाइम गैप’ रहता है। वहीं सुविख्यात अर्थशास्त्री और स्तंभकार पॉल क्रुगमैन टिप्पणी करते हैं कि अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एक तरह से ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’ जैसा बनता जा रहा है। दूसरी प्रवृति यह कि अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार पर अमरीका के चुनिंदा प्रतिष्ठित संस्थानों का दबदबा बना हुआ है। कहना न होगा कि इस साल के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार में भी ये दोनों प्रवृत्तियां कायम रहीं। डेरॉन ऐसमोग्लू और साइमन जॉनसन एमआईटी में काम करते हैं और जेम्स रॉबिन्सन शिकॉगो विश्वविद्यालय में अपना शोध करते हैं। इनके काम की ख्याति और मान्यता मौजूदा सदी के शुरूआत में कायम हो चुकी थी। इनको भी पुरस्कार मिलने में ढाई दशक का समय लगा। अर्थशास्त्रियों के बीच हमेशा से यह चिंतन और बहस-मुबाहिसे का विषय रहा है कि विकास क्या है और कैसे हो? कोई भी देश विकास का रास्ता कैसे तय करता है? विकास की दौड़ में कुछ देश कैसे पिछड़ जाते हैं और कुछ आगे कैसे निकल जाते हैं? समान कारक अक्षय निधि और संसाधन वाले विभिन्न देशों की विकास-यात्रा एक जैसी क्यों नहीं रहती? इनमें से कई विकास के ऊंचे सोपान पर और कई पीछे क्यों और कैसे रह जाते हैं? आदि-आदि। विश्वप्रसिद्ध अर्थशात्री रॉबर्ट सोलो ने भी इन सवालों पर अपनी आर्थिक दृष्टि से चिंतन-मनन किया। उन्होंने अनुभवजन्य आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण किया। वे इस नतीजे पर पहुंचे कि समान संसाधन अक्षय निधि वाले देशों या अर्थव्यवस्थाओं में तीव्र विकास का रास्ता वही देश तय करेगा जिनके पास अधिक विकसित तकनीकि और प्रद्योगिकी होगी। सोलो को उनके इस योगदान के लिये नोबेल भी सम्मानित किया गया।
इसी कड़ी में जोजफ शुम्पीटर ने भी तकनीकी और विकास के संबंधों का विश्लेषण प्रस्तुत किया। उनका कहना था कि विकास में नवोन्मेष और नवाचार का अत्यंत महत्व है। नवोन्मेष और तकनीकी विकास को जापान ने अपने कुशल प्रबंधन में उपयोग किया। जापानियों ने ‘जस्ट-इन-टाइम’ और ‘सिनर्जी’ जैसी टेक्नीक का उपयोग किया। आशय यह कि विज्ञान, तकनीकी और कुशल प्रबंधन देश को विकास के पथ पर ले जाते हैं। सोलो और शुम्पीटर की प्रस्थापना से इतर अमरीकी अर्थशास्त्री डगलस नॉर्थ ने एक और महत्वपूर्ण कारक की ओर इशारा किया। उन्होंने तर्क दिया कि आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए सिर्फ़ तकनीकी और नवाचार अपर्याप्त हैं। बाजार-अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए, कुछ कानूनी और सामाजिक संस्थाओं का होना जरूरी है। नॉर्थ का काम मुख्य रूप से सैद्धांतिक था। उनको भी नोबेल इनाम से नवाजा गया था।
एसमोग्लू, जॉनसन और रॉबिन्सन ने डगलस नॉर्थ के सिद्धांत को गति दिया। एक तरीके से इन तीनों का काम नॉर्थ के सिद्धांत की ही पुष्टि है। इन्होंने अनुभवजन्य आँकड़ों के आधार पर संस्थाओं और आर्थिक विकास के बीच के रिश्ते का अध्ययन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसी देश की आर्थिक प्रगति उस देश की संस्थाओं पर निर्भर करती है। देश की दीर्घकालिक आर्थिक प्रगति के लिए सुचारु संस्थाओं का होना अपरिहार्य है। बेहतर विकास के लिए बेहतर संस्थानों की आवश्यकता होती है जो नीतियां और योजनाएँ बनाएं और उनका प्रभावी कार्यान्वयन करें।
एसमोग्लू, जॉनसन और रॉबिन्सन का मॉडेल मोटे तौर तीन कारकों पर आधारित है। पहला है -संसाधनों के बंटवारे और समाज में निर्णय लेने की शक्ति। जाहिर है कि वास्तविक जीवन में संसाधनों का बंटवारा समतापूर्वक नहीं होता। नतीजतन निर्णय लेने की शक्ति भी आसमान रूप से वितरित होती है। समाज दो हिस्सों में विभाजित रहता है झ्र एक जनता दूसरा अभिजन। अभिजन के पास सत्ता की शक्ति होती है जबकि जनता के पास संख्या बल। दूसरा कारक है प्रतिबद्धता। इससे मतलब है कि एक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में एक छोटा अभिजन समूह ही सत्ता और शक्ति रखता है। जनता के पास अभिजन वर्ग को निर्णय लेने की शक्ति सौंपने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। तीसरा कारक है कि सामुदायिक क्षमता। वे बताते हैं कि जनता भले ही सीधे तौर पर निर्णय न लेने की स्थिति में हो। लेकिन वे संगठित होकर और अभिजन या शासक वर्ग को बाध्य कर सकते हैं कि उनके हित में निर्णय लिए जाएँ।
इन तीनों कारकों में हमआहंगी तभी होगी जब आर्थिकी में ऐसी समावेशी संस्थाएं हों जो कानूनों को लागू करने और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे प्रदान करते हुए यथासंभव व्यापक रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों का विस्तार करती हों। किस्सा यह कि विकास की मंजिल तय करने के लिए प्रभावी लोकतान्त्रिक संस्था अपरिहार्य हैं। देश के नीतिनियंता एसमोग्लू, जॉनसन और रॉबिन्सन के काम से सीख ले सकते हैं। भारत को 2047 में विकसित बनाने की राह आसान होगी अगर संस्थाओं को लालफीताशाही के मकड़जाल से मुक्त रखा जाए। कानूनी संस्थाओं को मजबूत बनाया जाए, इनको मुल्क की आवाम के प्रति और अधिक जवाबदेह बनाया जाए। साथ ही संस्थाओं के दीर्घकालिक विश्लेषण के साथ उनको ऐसे रूप में विकसित करें जो आज के नवउदारवादी दौर में भी जनोमुखी विकास को उत्प्रेरित कर सकें। तभी ‘सबका साथ और सबका विकास’ सुनिश्चित हो सकेगा