Tuesday, July 9, 2024
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भगवान बुद्ध के चिंतन की प्रासंगिकता

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Dr.Ashok Bhargavमैं कहां से आया हूं, किधर से आया हूं, मैं क्या हूं। बुद्ध इस प्रकार के व्यर्थ के मानसिक संकल्प विकल्प उठाते रहने के समर्थक नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि मन ही सभी चीजों का केंद्र बिंदु है वही सब का मूल है मालिक है कारण है। मन ही शासन करता है योजना बनाता है। यदि आदमी का मन शुद्ध होता है तो वह शुद्ध वाणी बोलता है अच्छे कार्य करता है। मन काबू में है तो सब कुछ काबू में है। इसलिए मुख्य बात मन की साधना है। अपने चित्त को निर्मल बनाए रखना ही धर्म का सार है। धर्म धार्मिक ग्रंथों के पाठ में नहीं है बल्कि तन, मन और वाणी की पवित्रता बनाए रखते हुए तृष्णा का त्याग कर धार्मिक जीवन व्यतीत करने में है।

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भगवान बुद्ध भारत की सांस्कृतिक विरासत की अमूल्य धरोहर है। उनका समग्र जीवन दर्शन मानवीय कल्याण के हितार्थ ज्ञान की खोज के लिए मात्र 29 वर्ष की आयु में परम वैभव के साम्राज्य और सांसारिक सुखों के आकर्षण के परित्याग की पराकाष्ठा है। उनका जन्म 583 ईसा पूर्व नेपाल की तराई में लुंबिनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। जिसका अर्थ है अभिलाषा का पूर्ण हो जाना क्योंकि उनके जन्म से सभी की अभिलाषाएं पूर्ण हुई इसलिए उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया।

पिता शाक्य गणराज्य के राजा शुद्धोधन और माता महामाया थीं। इनके जन्म को हिमालय के तपस्वी ऋषि असिता ने अलौकिक असाधारण बताते हुए स्वयं जीवात्मा के दर्शन करते हुए कहा कि यह बालक समस्त मानव जाति के लिए सिद्धार्थ है। यह या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या लोक कल्याण के लिए धर्म चक्र प्रवर्तित करेगा जो इससे पहले संसार में कभी नहीं हुआ है।

पिता चाहते थे कि सिद्धार्थ वैराग्य धारण नहीं करें सम्राट बने। इसलिए संसार की समस्त सुख सुविधाएं सिद्धार्थ को उपलब्ध कराई। रूपवती राजकुमारी यशोधरा से विवाह किया बाद में एक पुत्र राहुल की प्राप्ति हुई किंतु वे सांसारिक मोह में बंध न सके। एक दिन मार्ग में उन्होंने अति कृशकाय रोगी, वृद्ध पुरुष तथा एक मृतक को देखा तो सारथी छंदक ने बताया कि एक न एक दिन सभी की यही दशा होनी है।

एक साधु को भी देखा। यद्यपि त्रिपिटक आदि ग्रंथों में इन घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। संसार क्षणिक और दुखद है ये जान वे सब कुछ त्याग कर ज्ञान की खोज में निकल पड़े। 6 वर्षों तक घोर तपस्या की किंतु ज्ञान की पिपासा शांत नहीं हुई।

बुद्ध ने अपने धर्म की नैतिक व्याख्या की जो प्राणी मात्र की उन्नति के लिए प्रतिबद्ध है। इस धर्म में कर्मकांड, अनुष्ठान, पाखंड और अंधविश्वास नहीं है। उन्होंने जीव और जगत को माना। उनका पहला उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से विख्यात है जिसके चार प्रमुख सूत्र ही चार आर्य सत्य हैं। पहला आर्य सत्य है कि इस जगत में दुख है। दूसरा तृष्णा के कारण दुख पैदा होता है।

तीसरा दुख के निवारण का उपाय है तृष्णा से बचना और चौथा आदमी के स्वयं के प्रयास से ही दुख निवारण संभव है। बुद्ध दुख निवारण को भगवान या भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ते। कोई भी व्यक्ति ‘दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा’ के मार्ग का अनुसरण करते हुए दुखों पर नियंत्रण कर सकता है। यह अष्टांगिक मार्ग है सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।

बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचने का उपदेश दिया क्योंकि जीवन का सार विरोधी अतिवादों के बीच संतुलन की खोज करने में ही निहित है। उनका यह दर्शन आज के भौतिकवादी मूल्यों की चकाचौंध में भी जबकि व्यक्ति की इच्छाओं के अनियंत्रित विस्फोट का दौर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है तब यह और ज्यादा उपादेय व प्रासंगिक प्रतीत होता है। यदि लालसाओं का अंत हो जाए तो आदमी संत हो जाए।

बुद्ध ने अपने धर्म में अपने लिए कोई स्थान नहीं रखा उन्होंने कभी किसी को मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया। वे कहते रहे कि वे मार्गदाता हैं मोक्ष दाता नहीं। उनका धर्म मनुष्यों के लिए एक मनुष्य द्वारा आविष्कृत धर्म था जो मौलिक और अलौकिक है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे किसी धर्म की स्थापना कर रहे हैं या वे ईश्वर के पुत्र हैं, अवतार या पैगंबर हैं या उन्हें ज्ञान का इलहाम हुआ है। जो बात बुद्धि संगत है तर्कसंगत है वही बुद्ध वचन है।

वे धर्म की असमानता और शोषण पर आधारित भेदभाव परक नीतियों और आचरण को छोड़ने के एवं व्यक्ति स्वातंत्रय और बंधुता के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि में धर्म तभी सद्धर्म है जब वह सभी के लिए ज्ञान के द्वार खोल दें। ज्ञान केवल विद्वान बनने के लिए पर्याप्त नहीं है वरन उसके साथ प्रज्ञा, शील, करुणा, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री, उदारता और अहिंसा की भावना विश्व की तरह व्यापक होनी चाहिए।

यह तभी संभव है जब तमाम सामाजिक भेदभावों की दीवारों को गिरा दें और किसी भी आदमी का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं वरन कर्म से हो। जो धर्म आदमी, आदमी के बीच समानता के भाव की अभिवृद्धि नहीं करता वह धर्म नहीं है क्योंकि आदमी असमान ही जन्म लेते हैं। कुछ मजबूत होते हैं कुछ कमजोर, कुछ अधिक बुद्धिमान होते हैं कुछ कम कुछ एकदम नहीं, कुछ अधिक सामर्थ्यवान होते हैं कुछ कम, कुछ धनी होते हैं|

तो कुछ गरीब सभी को जीवन संघर्ष में प्रवेश करना पड़ता है और इस जीवन संघर्ष में यदि असमानता को स्वाभाविक स्थिति स्वीकार कर लिया जाए तो जो कमजोर है उसका तो कहीं ठिकाना ही नहीं रहेगा। इसलिए जो धर्म समानता का समर्थक नहीं है वह अपनाने योग्य नहीं है। इस दृष्टि से विश्व के अन्य धर्म प्रवृत्तकों की तुलना में बुद्ध का धर्म अधिक जनतांत्रिक नजर आता है।

-डॉ अशोक कुमार भार्गव, आईएएस


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