कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय की नई पहचान बीजेपी सांसद की है। उन्होंने 5 मार्च 2024 को हाईकोर्ट से इस्तीफा दिया और दो दिन बाद ही बीजेपी में शामिल होकर पश्चिम बंगाल की तमलुक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित हो गए थे। बतौर उच्च न्यायालय न्यायाधीश उन्होंने अपने तमाम फैसलों से ममता बनर्जी सरकार को नाको चने चबवाए थे। उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान स्वीकार किया था कि न्यायाधीश के पद पर रहते हुए भी वे बीजेपी नेताओं के संपर्क में थे।
बरेली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश रवि कुमार दिवाकर ने 30 सितंबर को ‘लव जिहाद’ पर एक ऐसा फैसला दिया है, जिससे आरएसएस और बीजेपी खेमा जोश में है। न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 नागरिक को अदालती फैसलों की आलोचना का अधिकार देता है। यह कहता है कि किसी मामले की सुनवाई और निपटान के बाद ‘न्यायिक आदेश की युक्तिसंगत निष्पक्ष आलोचना करना न्यायिक अवमानना के तहत नहीं आता।’ ऐसे में न्यायाधीश दिवाकर की मंशा पर कोई सवाल न उठाते हुए ‘लव जिहाद’ के खतरे को सही ठहराते हुए की गई उनकी विवादास्पद व्याख्या की समीक्षा की जानी चाहिए।
30 सितंबर को न्यायाधीश दिवाकर ने 2023 के एक मामले में मुहम्मद अलीम नाम के एक शख़्स को एक हिंदू लड़की से अपना धर्म छुपाकर मंदिर में शादी करने और दुष्कर्म तथा जबरन धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डालने का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। उन्होंने इसे लव जिहाद के व्यापक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा माना है जिसका उद्देश्य भारत के खिलाफ ‘जनसांख्यिकीय युद्ध’ छेड़ना है। लव जिहाद को परिभाषित करते हुए न्यायाधीश दिवाकर ने कहा है कि यह मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर मुस्लिम समुदायों की महिलाओं को प्यार का नाटक करके उनसे शादी करके इस्लाम में परिवर्तित करने की ‘प्रथा’ है। लव जिहाद के लिए बड़ी रकम की जरूरत होती है, इसलिए इसमें विदेशी फंडिंग के तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने भारत सरकार को चेताया है कि अगर लव जिहाद के जरिए अवैध धर्मांतरण को रोका नहीं गया तो देश की एकता, अखंडता के लिए बड़ा खतरा पैदा हो सकता है।
दिलचस्प बात है कि जज साहब ने यह बात बिल्कुल नजरअंदाज कर दी कि इस मामले में पीड़ित लड़की, जिसकी उम्र 22 साल है, अपने पुराने बयान से पलट गई थी। उसने 19 सितंबर को अदालत में आकर कहा था कि 31 जुलाई को ‘धोखा देकर शादी कराने और धर्मांतरण का दबाव डालने की उसकी एफआईआर के पीछे उसके परिवार और उन दक्षिपंथी हिंदू संगठनों का दबाव था जो एक मुस्लिम से शादी करने की वजह से नाराज थे।’ (यह बात इस फैसले से उत्साहित हिंदी मीडिया में आमतौर पर गायब है लेकिन कुछ अंग्रेजी अखबारों को खंगालने से इसकी जानकारी मिल जाती है।) लेकिन जज साहब ने पीड़िता के इस बयान आलिम के ‘प्रभाव’ का नतीजा माना।
उन्होंने अपने फैसले में लिखा कि जो लड़की अपने परिवार से अलग ‘अकेली’ रहती है, वह हाथ में एक एंड्रॉयड फोन के साथ अदालत कैसे आ सकती है और दूसरे खर्च कैसे उठा सकती है। जरूर आलिम उसे आर्थिक सहायता दे रहा होगा! जज साहब ने पीड़िता के नए बयान को किसी ‘जांच’ के लायक भी नहीं माना और सीधे फैसला सुना दिया। हालांकि उनकी यह बात मानी जाए कि पीड़िता आलिम के ‘प्रभाव’ में है, तो दूसरे तमाम तर्क खुद ही खारिज हो जाते हैं। आखिर जेल में बंद आलिम की बात मानने और अपने परिवार के खिलाफ जाने के पीछे ‘अपनी इच्छा’ के अलावा क्या तर्क हो सकता है? क्या जज साहब यह कह रहे हैं बालिग होने के बावजूद किसी हिंदू लड़की के इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह कोई फैसला ले सके? वह इस लायक नहीं होती कि अपने दम पर अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा कर सके? उसे कोई भी आसानी से ‘फुसला’ सकता है।
सवाल यह भी उठता है कि ‘लव जिहाद’ और उसके पीछे ‘अंतरराष्ट्रीय साजिÞश’ का तथ्य जज साहब को कहां से प्राप्त हुआ? ऐसी साजिÞशों का खुलासा तो खुफिया एजेंसियां ही कर सकती हैं। लेकिन अभी तक ऐसी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आई है। यही नहीं, पिछले कार्यकाल में केंद्र की मोदी सरकार ने लव जिहाद को लेकर किसी भी तरह का कानूनी कदम उठाने से इंकार कर दिया था। तो क्या वह इस मसले पर गंभीर नहीं है? दस साल से ज्यादा समय से सरकार चला रहे मोदी जी की नाक के नीचे लव जिहाद का षड्यंत्र फल-फूल रहा है, तो वे चुप कैसे हैं? क्या मोदी सरकार नकारा है?
न्यायाधीश दिवाकर के फैसले ने जस्टिस लोकुर की चिंताओं को एक कदम आगे बढ़ा दिया है। न्यायधीश दिवाकर के फैसले के हिसाब से मुस्लिम अपना ‘नाम बदलकर’ हिंदू लड़कियों को प्रेम में फंसा लेते हैं। इसका अर्थ तो ये हुआ हिंदू नाम अपने आप में प्रेम का पात्र बना देता है। हकीकत बिल्कुल उलट है वरना किसी हिंदू नौजवान को प्रेम से वंचित नहीं होना पड़ता। किसी के प्रेम का पात्र बनने के लिए बहुत सी योग्यताएं चाहिए। इसकी कोई एक कसौटी भी नहीं है। हर प्रसंग में अलग कसौटियां और चुनौतियां रहती हैं। इश्क को ‘आग का दरिया’ यूं ही नहीं कहा गया है जिसमें पार उतरने के लिए डूबना पड़ता है। यह मानना भी मुश्किल है कि कोई हिंदू लड़की बिना लड़के को अच्छी तरह से जाने, जिसमें उसका घर-परिवार भी आता है, किसी से भी शादी के लिए तैयार हो सकती है। ऐसा कहना उन्हें मूर्ख मानना है और अन्य किसी प्रलोभन की बात करना उन्हें लालची बताना है। जाहिर है, यह हिंदू लड़कियों के प्रति बनायी जा रही एक अपमानजनक धारणा है।
न्यायधीश दिवाकर ने ‘लव जिहाद’ को जनसंख्या में परिवर्तन के लिए किए जा रहे युद्ध से जोड़ा है, पर ऐसा साबित करने के लिए उन्होंने किसी अध्ययन या रिपोर्ट का हवाला नहीं दिया है। यह अच्छा मौका है कि सरकार अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर एक विशेष सर्वे कराए ताकि हकीकत सामने आ जाए। क्योंकि फिल्मी सितारों से लेकर राजनीतिक आकाश में छाये नक्षत्रों को देखने से तो यही लगता है कि अंतर्धार्मिक विवाह हर तरह के होते हैं। मुस्लिम युवा अगर हिंदू लड़की से शादी कर रहे हैं तो हिंदू युवा भी मुस्लिम लड़की से शादी करने में पीछे नहीं हैं। खास बात ये है कि ऐसी शादियों के बाद आमतौर पर कोई अपना धर्म भी नहीं बदलता। सुपर स्टार शाहरुख खान की शादी के दशकों हो गए, लेकिन उनकी पत्नी गौरी का धर्म बदला हो, ऐसी बात सामने नहीं आई। वहीं मनोज वाजपेयी की पत्नी शबाना शादी के पहले की तरह ही मुस्लिम बनी हुई हैं। गौर से देखने पर अपने आसपास भी ऐसे की जोड़े दिख जाएंगे। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम नौजवान दूध के धुले हैं या वे किसी को धोखा नहीं दे सकते। ‘प्रेम में धोखा’ दुनिया का सबसे पुराना अपराध है और किसी भी धर्म के लोग इस अपराध से बरी नहीं हैं।