Monday, July 1, 2024
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बढ़ती जनसंख्या से उभरती चिंता

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33 19यूनाइटेड नेशंस फॉर पापुलेशन फंड (यूएनएफपीए) के अनुसार 15 नवंबर 2022 को विश्व की धरती अब 800 करोड़ यानि आठ अरब लोगों का घर हो गई। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि दुनिया की आबादी आठ अरब होने के बाद अब यहां 800 करोड़ उम्मीदें, 800 करोड़ सपने और 800 करोड़ संभावनाएं बलवती हुईं हैं। गौरतलब है कि दुनिया की आबादी के आठ अरब के आंकड़े के पार होने के बाद इस बढ़ती आबादी को लेकर विश्व स्तर पर चिंता और गहरी हो गई है। इसी संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र से जुड़े विशेषज्ञों ने दुनिया के तमाम देशों के नागरिकों से जलवायु में आ रहे बदलाव, आर्थिक संकट व सामाजिक विषमता जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए संकल्पबद्ध होने का आह्नवान किया है। इसके साथ ही भारत में भी ऐसे अनेक प्रश्न उत्तरों की तलाश में हैं कि इस बढ़ती हुई जनसंख्या को क्या केवल अभिशाप ही माना जाए अथवा इसे श्रेष्ठ मानव संसाधन के रूप में विकसित करते हुए राष्ट्र की शक्ति के रूप में इसका रूपान्तरण किया जाए। विश्व की जनसंख्या से जुड़े आंकड़ों का अवलोकन बताता है कि यह 7 अरब की जनसंख्या तक पहुंचने में लगभग 207 वर्षों का समय लगा। दूसरी ओर इसके 7 से 8 अरब तक पहुंचने में मात्र 12 बर्ष ही लगे। विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2080 के आसपास विश्व की इस जनसंख्या के 10 अरब के आंकड़े को स्पर्श करने की संभावनाएं जताई जा रही हैं।

विश्व स्तर पर आबादी की बढ़ती रफ्तार केवल विकासशील देशों के लिए ही नहीं, बल्कि विकसित राष्ट्रों के लिए भी बहुत बड़ी चिंता का विषय है। कड़वी सच्चाई यह है कि विश्व की एक तिहाई आबादी को आज न तो दो वक्त का ठीक भोजन मिल पा रहा है और न ही उनके स्वच्छ पानी पीने की कोई व्यवस्था है। साथ ही रोजगार की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। विश्व स्तर पर एशिया और अफ्रीका के अनेक इलाके तीव्र बढ़ती आबादी की गिरफ्त में हैं। यहां भूख और कुपोषण जैसी मूलभूत समस्याओं की ओर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं पूर्व में कई बार इस ओर ध्यान आकृष्ट कर चुकी हैं।

विश्व स्तर पर बढ़ती हुई जनसंख्या का जो प्रमुख रूझान सामने आया है उसमें ग्रामीण आबादी का नगरों की ओर तेज होता पलायन है। आंकड़े बताते हैं कि 18वीं शताब्दी में दुनिया की 3 फीसदी से भी कम आबादी नगरों में रहती थी, परंतु 21वीं शताब्दी तक आते-आते दुनिया की यह नगरीय आबादी बढ़कर 50 फीसदी तक पहुंच गर्इं। आज दुनिया में एक करोड़ से भी अधिक की आबादी वाले लगभग 46 महानगर हो गए हैं। इसमें टोक्यो, शंघाई, मनीला, जकार्ता, ओसाका, कराची, ढाका और बीजिंग के साथ में भारत के दिल्ली, मुंबई और कोलकत्ता जैसे शहर प्रमुख हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि विश्व स्तर पर अनेक ऐसे देश हैं जो अपनी सामाजिक व आर्थिक कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं। परंतु वहीं दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या और उनके मानव संसाधन के रूप में रूपान्तरित न होने के कारण से दुनिया के अनेक देश निरंतर बिगड़ते पर्यावरण, खाद्य आपूर्ति, पानी की समस्या, भुखमरी, बेरोजगारी, आत्महत्या तथा आतंकवाद जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। विश्व स्तर पर ऊर्जा की बढ़ती खपत और आक्रामक उपभोग के चलते दुनिया के अनेक शहर पर्यावरण प्रदूषण के साथ में ‘हीट आइलैण्ड’ बनकर रह गए हैं।

अमेरिका आज खुद गरीबी और बेरोजगारी का दंश झेल रहा है। वहां बढ़ती आर्थिक असमानता युवाओं में असंतोष है। अमेरिका में आर्थिक असमानता की स्थिति यह है कि अमेरिका के केवल एक प्रतिशत लोगों का देश की 42 प्रतिशत वित्तीय संपत्ति पर कब्जा है। पिछले एक दशक में अमेरिका की आय में जो बढ़ोत्तरी हुई उसका 66 प्रतिशत भाग केवल एक प्रतिशत लोगों को मिला है। विश्व स्तर पर अमेरिका के साथ अन्य विकसित देश भी इस प्रकार की समस्याओं से अछूते नहीं हंै।

विश्व के जनसंख्यात्मक ढांचे का विश्लेषण भारत की जनसंख्या की चर्चा के बिना अधूरा है। आंकड़े बताते हैं कि भारत की जो आबादी 2001 में 102.8 करोड़ थी वह वर्तमान में 138 करोड़ पहुंच गई है। सच्चाई यह है कि भारत की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 17.5 फीसदी है। यह सच है कि भारत की यह जनसंख्या अमेरिका, जापान, रूस, इंडोनेशिया और ब्राजील की जनसंख्या के बराबर है। ऐसी आशा है कि 138 करोड़ की आबादी वाला भारत 2023 में 140 करोड़ आबादी वाले चीन को पछाड़ देगा।

2050 तक हम चीन से 35 करोड़ अधिक होकर 166 करोड़ हो जाएंगे। भारत में आज लगभग एक तिहाई आबादी 15 साल से कम उम्र की है, जबकि दूसरी ओर युवाओं की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। कुछ विशेषज्ञों ने युवाओं की बढ़ती इस जनसंख्या को जनसांख्यिकीय लाभांश तथा कुछ ने इसे जनसांख्यिकीय घाटा माना है। इस जनसंख्या को लाभांश के रूप में स्वीकार करने वालों का तर्क यह है कि आज का अल्पायु किशोर कल का व्यस्क नागरिक बनेगा जिससे कार्यशील युवाओं की संख्या बढ़ेगी।

दूसरी ओर पश्चिम के देशों जैसे जापान, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन में जहाँ जनसंख्या के बढ़ने का स्तर शून्य हो चुका है वहां भविष्य में वृद्धजनों की संख्या बढ़ेगी और कार्यशील जनसंख्या कम होती जाएगी जिससे उत्पादन स्वत: ही घटेगा। परंतु भारत में ऐसा नहीं है। ऐसी बढ़ती जनसंख्या को घाटा स्वीकार करने वालों का तर्क यह है कि इन बच्चों के युवा होने में कई वर्ष लग जाएंगे तथा उन्हें कार्यशील और कौशलयुक्त बनाने के लिए शिक्षा जैसी कई संस्थाओं की व्यवस्था करनी पड़ेगी। उनके बेहतर स्वास्थ्य की देखभाल करते हुए पोषाहार के साथ में पहनने के लिए कपड़े और आवागमन के लिए यातायात साधन उपलब्ध कराने होंगे।

स्पष्ट है कि ऐसे बच्चों के युवा होने तक उनके भरण-पोषण में काफी धन व्यय होगा जिसका प्रबंधन आसान नहीं होगा। ऐसे में धन की कमी के कारण आम जनता पर करों का बोझ बढ़ेगा। 1991 के बाद नवउदारवादी नीतियों के क्रियान्वयन के पश्चात यह दावा किया गया था कि आर्थिक संवृद्धि की रफ्तार तेज होने पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और लोक खुशहाल होंगे। परंतु देश में उदारीकरण की नीति के बाद संगठित क्षेत्र में रोजगार को लेकर लोगों में अभी भी आक्रोश बरकरार है।

यह सच है कि लोगों के पास नौकरी अथवा काम नहीं होगा तो निश्चित ही देश में बेरोजगारी बढ़ेगी, अपराध व उन्मादी गतिविधियों का ग्राफ की बढ़ेगा। लोग एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर तेजी से पलायन करेंगे। युवा जनसंख्या को साथ लेकर सामंजस्य और समन्वयात्मक प्रयासों के साथ कार्य करते हुए उन्हें कौशलयुक्त संसाधन में रूपान्तरित करने की महती आवश्यकता है। तभी हमारी आबादी हमारे लिए वरदान सिद्ध होगी।


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