हालिया राज्यसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश, हिमाचल, कर्नाटक आदि राज्यों में विधायकों ने खुल कर ‘क्रॉस वोटिंग’ की। बयान दिए जाते रहे कि उन्होंने ‘अंतरात्मा’ की आवाज पर, जिसे योग्य समझा, उसके पक्ष में वोट किया। दरअसल इसके साथ दलबदल की समस्या भी जुड़ी है। उसे रोकने पर भी कानून है, लेकिन क्रॉस वोटिंग के साथ-साथ विधायकों के दलबदल भी सामने आए हैं। उनके खिलाफ संसदीय अथवा विधानसभा के स्तर पर कार्रवाई बहुत लंबी चलती है, देरी भी होती है या आगामी चुनाव का समय भी करीब आ जाता है। फिर कानून के फायदे क्या है? उत्तर प्रदेश में भी सपा विधायकों द्वारा बगावत की आशंका थी। वैसे बगावत कर्नाटक में भी हुई जहां भाजपा विधायक ने कांग्रेस प्रत्याशी को मत देकर सबको चौंका दिया। लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा और हिमाचल में कांग्रेस का प्रत्याशी चूंकि हार गया इसलिए भाजपा पर विधायकों को लालच और भय दिखाकर तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसमें सपा और कांग्रेस के नेतृत्व की विफलता देख रहे हैं जिसने सामने खड़े खतरे को नजरंदाज किया। उत्तर प्रदेश में जया बच्चन को उम्मीदवार बनाए जाते ही सपा में बगावत के सुर उठने लगे थे जिन्हें अखिलेश यादव ने अनसुना कर दिया। इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस को बगावत की आशंका थी इसीलिए सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का फैसला लिया गया। कुछ मंत्री और विधायक खुलकर मुख्यमंत्री के विरुद्ध थे। राम मंदिर के शुभारंभ पर विक्रमादित्य सिंह नामक मंत्री पार्टी लाइन से अलग हटकर अयोध्या भी गए। उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन षाम होते-होते उन्होंने अपना इस्तीफा वापिस ले लिया। इस घटनाक्रम के अगले दिन विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप पठानिया ने व्हिप की अनदेखी करने वाले सभी छह विधायकों को अयोग्य करार दे दिया है।
कुलदीप पठानिया ने कहा कि सभी सदस्य अब सदन के सदस्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा, आईडी लखनपाल, रवि ठाकुर, चैतन्य शर्मा और देवेंद्र भुट्टो सभी पर विधानसभा के यह आदेश लागू हैं। आदेश जारी होने के बाद सभी छह सदस्य अब से सदन के सदस्य नहीं रहे हैं। सभी विधायकों को व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित रहने के लिए व्हाट्सऐप पर संदेश भेजा गया था। हिमाचल विधानसभा ई-विधान से जुड़ी है। ऐसे में विधायक संदेश न मिलने की बात नहीं कर सकते हैं। सत्तापक्ष ने व्हिप जारी किया था और सभी छह सदस्य व्हिप जारी होने के बावजूद सदन में नहीं थे। उन्होंने कहा कि इसके बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में होने वाली न्यायिक प्रक्रिया को भी ध्यान में रखा जाएगा? छह विधायकों को अयोग्य करार देने के बाद हिमाचल की राजनीति में फिर एक बार तूफान उठने वाला है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे सरकार गिरने की चिंता तो है नहीं किंतु लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी के विधायकों की बगावत अखिलेश के लिए चेतावनी है। निश्चित रूप से भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों में सेंध लगाने की है । सत्ता में होने के कारण उसका प्रभाव और दबाव दोनों बढे हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी कमजोरी भी देखनी होगी। हिमाचल में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ ही भाजपा ने उठाया। उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के पास भारी बहुमत होने के बाद भी उसने एक भाजपा विधायक को तोड़ने में संकोच नहीं किया।
हिमाचल के मुख्यमंत्री कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की पसंद थे जिन्हें पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह का परिवार पसंद नहीं करता। विक्रमादित्य उन्हीं के बेटे हैं और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनकी माता जी। इस प्रकार श्री सिंघवी न हारते तब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को हिलाने का प्रयास जारी रहता। दरअसल ये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चेतावनी है कि उसके द्वारा थोपे गए नेताओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेने वाला दौर चला गया। वैसे भी पुरानी कहावत है कि जब केंद्रीय सत्ता कमजोर होती है तो सूबे सिर उठाने लगते हैं। गांधी परिवार राज्यों में अपनी मर्जी के नेताओं को लादने की जो गलती कर रहा है उसी के कारण अनेक राज्य उसके हाथ से खिसक गए।
बेहतर है भाजपा को कोसने के बजाय कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अपने अंदरूनी हालात सुधारें। केवल आपस में गठबंधन कर लेने से उनका बेड़ा पार नहीं होने वाला। भाजपा की रणनीति बेशक विपक्ष का मनोबल तोड़ने की है। इसके लिए वह कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती परंतु जहां भाजपा कमजोर है वहां विपक्ष को भी सफलता मिली। कर्नाटक और तेलंगाना इसके उदाहरण हैं। ऐसे में विपक्षी दलों को चाहिए वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें पार्टी में बने रहने प्रेरित करें। यदि वे इस काम में असफल रहते हैं तब फिर किसी और को दोष देना कहां तक उचित है? ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने खेला कर दिखाने का एलान किया था, हालांकि असल वक्त आने पर खुद उनकी पार्टी के साथ खेला हो गया। बहरहाल, जब कोई चलन इतना बेपर्दा रूप ले चुका हो, तो यह जरूरी हो जाता है कि उसे संचालित करने वाली परदे के पीछे की परिघटना को समझने की कोशिश की जाए। तो अगर हम गौर करें, तो यह साफ होने में देर नहीं लगती कि जिस लोकतंत्र पर हम गर्व करते हैं, वह धीरे-धीरे धनिकतंत्र या अभिजात्य-तंत्र में तब्दील हो चुका है।