भारत में अक्टूबर के मुद्रास्फीति के आंकड़ों ने कई लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया है। खुदरा मुद्रास्फीति अगस्त 2023 के बाद पहली बार अक्टूबर 2024 में सालाना आधार पर 6.21 प्रतिशत के साथ 14 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। सितंबर में खुदरा मुद्रास्फीति 5.49 प्रतिशत थी, जबकि चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में औसत दर 4.2 प्रतिशत थी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापी गई मुद्रास्फीति अक्टूबर 2023 में 4.87 प्रतिशत थी। इस वर्ष सितंबर में, खुदरा मुद्रास्फीति भारतीय रिजर्व बैंक के मध्यम अवधि के लक्ष्य 4 प्रतिशत (+/-2 प्रतिशत) के सहनशीलता बैंड को पार कर गई। पिछले 12 महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति 8 प्रतिशत से ऊपर रही है। अक्टूबर में कीमतों में उछाल का एक बड़ा कारण संभवत: सब्जियों की ऊंची कीमतें हैं। भारत के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (उढक) घटक का लगभग आधा हिस्सा खाद्य संबंधी लेखों से बना है। कोर मुद्रास्फीति (जिसमें अस्थिर खाद्य और ऊर्जा घटक शामिल नहीं है, और जिसे मांग दबाव के संकेतक के रूप में भी देखा जाता है) 3.7 प्रतिशत के साथ 10 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। वहीं अक्टूबर में थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति भी बढ़कर 2.36 प्रतिशत हो गई, जो 4 महीने का उच्चतम स्तर है। खाद्य पदार्थों में मुद्रास्फीति बढ़कर 13.54 प्रतिशत हो गई, जबकि इंधन में अपस्फीति देखी गई।
मुद्रा स्फीति के सितम्बर और अक्टूबर माह के क्षेत्रवार आंकड़ों पर नजर डालें तो अक्टूबर में, इंधन और प्रकाश मुद्रास्फीति (-) 1.61 प्रतिशत रही, जबकि पिछले महीने 1.31 प्रतिशत की गिरावट आई थी। आवास मुद्रास्फीति अक्टूबर में बढ़कर 2.81 प्रतिशत हो गई, जो सितंबर में 2.78 प्रतिशत थी। पिछले महीने कपड़ों और जूतों की मुद्रास्फीति 2.70 प्रतिशत थी। खाद्य मुद्रास्फीति, जो समग्र उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बास्केट का लगभग आधा हिस्सा बनाती है, अक्टूबर में बढ़कर 10.87 प्रतिशत हो गई, जो पिछले महीने 9.24 प्रतिशत थी। ग्रामीण मुद्रास्फीति भी सितंबर में 5.87 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 6.68 प्रतिशत हो गई, जबकि शहरी मुद्रास्फीति पिछले महीने के 5.05 प्रतिशत से बढ़कर 5.62 प्रतिशत हो गई। रसोई के मुख्य खाद्य पदार्थों, खासकर प्याज की कीमतों में उछाल चिंताजनक है। प्याज के थोक मूल्य 40-60 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़कर 70-80 रुपये प्रति किलोग्राम हो गए हैं, कुछ क्षेत्रों में 8 नवंबर तक कीमतें 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गर्इं हैं। सब्जियों की कीमतों में अक्टूबर में 42.18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो लगातार होती दुर्दशा को दर्शाता है। हालांकि नई फसल के आने से खाद्य कीमतों पर मुद्रास्फीति के दबाव में कमी आने की उम्मीद है।
सरकार का मानना है कि मुख्य मुद्रास्फीति दर, जो कुछ खाद्य पदार्थों से प्रभावित होती है, अंतर्निहित मांग का सबसे सटीक माप नहीं हो सकती है। यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने यह मुद्दा उठाया है। मुख्य आर्थिक सलाहकार (उएअ) अनंथा नागेश्वरन ने पहले भारत के मुद्रास्फीति ढांचे से खाद्य को बाहर करने की आवश्यकता की ओर इशारा किया था। अपनी 2023-24 की सर्वेक्षण रिपोर्ट में, वित्त मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया कि भारत के मौद्रिक नीति ढांचे को खाद्य को छोड़कर मुद्रास्फीति को लक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि खाद्य कीमतें, मांग की तुलना में आपूर्ति कारकों से अधिक प्रभावित होती हैं।
एक तरफ अर्थव्यवस्था में मंदी के संकेत दिख रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मुद्रास्फीति की इस वृद्धि से आरबीआई फिर अलर्ट मोड पर दिखाई पड़ता है। आरबीआई द्वारा मौद्रिक ढील की संभावना में और देरी हो सकती है। इससे अर्थव्यवस्था में निजी निवेशकों में निराशा हो सकती है जो आर्थिक वृद्धि दर को प्रभावित करेगी। भारत में कॉरपोरेट जगत लम्बे समय से नीतिगत दरों में कटौती की बाट जोह रहा है। अधिकांश विश्लेषकों, जिनमें भारतीय स्टेट बैंक के अर्थशास्त्री सौम्य कांति घोष शामिल हैं, ने पहले ही आगामी दिसंबर में आरबीआई द्वारा नीतिगत दरों में कटौती की संभावना को खारिज कर दिया है। आईसीआरए की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने कहा कि सीपीआई मुद्रास्फीति वित्त वर्ष 2025 की तीसरी तिमाही के लिए एमपीसी के अनुमान से कम से कम 60-70 बीपीएस अधिक होने की उम्मीद है। इससे दिसंबर 2024 की नीति समीक्षा में दरों में कटौती की संभावना नहीं दिखती है।
भारत का मध्यम वर्ग अपनी कमर कस रहा है क्योंकि उच्च मुद्रास्फीति उनकी खर्च करने की क्षमता को कम कर रही है। शहरी खपत में यह मंदी भारत की आर्थिक वृद्धि को खतरे में डालती है। भारत के शहरी निवासी बिस्किट से लेकर फास्ट फूड तक, हर चीज पर खर्च में कटौती कर रहे हैं। लगातार उच्च मुद्रास्फीति मध्यम वर्ग के बजट को कम कर रही है। पिछले तीन से चार महीनों में शहरी खर्च में कमी ने, न केवल सबसे बड़ी उपभोक्ता वस्तु कंपनियों की आय को नुकसान पहुंचाया है, बल्कि इसने भारत की दीर्घकालिक आर्थिक सफलता की संरचनात्मक प्रकृति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं, जिससे देश की तेज आर्थिक वृद्धि को खतरा है।
महामारी के खत्म होने के बाद से भारत की आर्थिक वृद्धि काफी हद तक शहरी खपत से प्रेरित रही है, हालांकि, अब इसमें बदलाव होता दिख रहा है। भारत में आय और सम्पत्ति के वितरण में असमानताएं और गहरी होती जा रही हैं। इससे मध्यम वर्ग सिकुड़ता जा रहा है। एक मध्यम वर्ग हुआ करता था, जिसके द्वारा ज्यादातर फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स की मांग की जाती थी। इससे अर्थव्यवस्था में निवेश, रोजगार, और मांग में सतत वृद्धि का क्रम बना रहता था। हालांकि भारतीय मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए कोई आधिकारिक रूप से परिभाषित आय वर्ग नहीं है, लेकिन मोटे तौर पर अनुमान है कि वे भारत के 1.4 बिलियन लोगों में से लगभग एक तिहाई हैं। उन्हें आर्थिक और राजनीतिक दोनों रूप से एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकी माना जाता है। इस साल लोकसभा चुनावों में सत्ताधारी राजग के कमजोर चुनावी प्रदर्शन के पीछे मध्यम वर्ग की हताशा को एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखा जा रहा है।
केंद्रीय बैंक मार्च 2025 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए 7.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि की उम्मीद करता है। इस उम्मीद का आधार बेहतर ग्रामीण मांग और मजबूत सेवा क्षेत्र है। इन आशावादी आर्थिक विश्लेषकों के अर्थव्यवस्था के बारे में गुलाबी अनुमानों को झुठलाते हुए, घरेलू क्षेत्र में तीव्र मंदी के संकेत हैं। सिटीबैंक द्वारा प्रकाशित एक सूचकांक, जो एयरलाइन बुकिंग, ईंधन बिक्री और मजदूरी जैसे संकेतकों को दर्शाता है, के अनुसार भारतीय शहरी खपत अक्टूबर में दो साल के निचले स्तर पर पहुंच गई। शहरीखपत में कमी के साथ बचत में गिरावट, और व्यक्तिगत ऋणों के लिए सख्त नियम भी मंदी के लिए जिम्मेदार हैं। कम आशावादी अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि जुलाई-सितंबर तिमाही में जीडीपी वृद्धि केंद्रीय बैंक के अनुमानित 7 प्रतिशत से कम रहेगी, जिसका कारण शहरी खपत में कमी है।