Tuesday, July 9, 2024
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चुनौती बन रहीं स्लम बस्तियां

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Samvad 52


AMIT BAIJNATH GARGइन दिनों स्लम बस्तियां दुनिया ही नहीं, बल्कि भारत के लिए भी एक समस्या बनी हुई हैं। एक अनुमान के अनुसार, दुनिया की लगभग एक चौथाई शहरी आबादी स्लम बस्तियों में रहती है। वहीं आने वाले 10 वर्षों में भारत की 50 प्रतिशत आबादी नगरों में रहने लगेगी। भारत की वर्तमान आबादी का 28 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता है। शहरी आबादी में होने वाली इस बेतहाशा वृद्धि का सीधा प्रभाव उनके आवास पर पड़ेगा, जिससे आने वाले वर्षों में मलिन बस्तियों में रहने वाली आबादी में तीव्र वृद्धि होगी। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 2,613 शहरों में स्लम एरिया हैं, जहां बहुत सी आबादी इन बस्तियों में रहती है। इनमें से 57 फीसदी आबादी तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र से आती है।
वहीं दिल्ली दुनिया का छठा सबसे बड़ा महानगर है। इसके बावजूद यहां एक तिहाई आवास स्लम क्षेत्र का हिस्सा हैं, जिनके पास कोई बुनियादी संसाधन भी उपलब्ध नहीं हैं। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट की मानें तो देश में जहां हर छठा शहरी नागरिक स्लम बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है। ये बस्तियां इंसानों के रहने के लायक नहीं मानी जाती। यहां रहने वाला हर भारतीय शहरी नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर है। आंकड़े बताते हैं कि जहां आंध्र प्रदेश में हर तीसरा शहरी परिवार इन मलिन बस्तियों में रहता है, वहीं ओडिशा में हर 10 घरों में से नौ में जल निकासी की कोई सुविधा नहीं है। देश के 65 प्रतिशत शहरों में स्लम बस्तियां देखी जा सकती हैं। शहरों की चकाचौंध भरी दुनिया का हिस्सा होने के बावजूद इन बस्तियों में रहने वाले लोग आज भी अंधेरे में हैं।

आंकड़ों की मानें तो देश में हर 10 में से छह लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहने के लिए मजबूर हैं। इन बस्तियों में लोग गंदी और बदबूदार नालियों के बीच रह रहे हैं। वहीं हर 10 में से चार को आजादी के 72 साल बाद भी साफ पानी जैसी बुनियादी सुविधा नहीं मिल पाई है। इन गंदी बस्तियों में रहने वाले इस विकसित समाज, राजनीतिक गलियारों और प्रशासन की बेरुखी का शिकार हैं। असल में स्लम क्षेत्र का आशय सार्वजनिक भूमि पर अवैध शहरी बस्तियों से है। आमतौर पर यह एक निश्चित अवधि के दौरान निरंतर एवं अनियमित तरीके से विकसित होता है। स्लम क्षेत्रों को शहरीकरण का एक अभिन्न अंग माना जाता है और शहरी क्षेत्र में समग्र सामाजिक-आर्थिक नीतियों एवं योजनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है।

देश में कई स्लम एरिया हैं, जहां लोग गरीबी में जीवन-यापन कर रहे हैं। ऐसे में इन जगहों पर साक्षरता दर कम ही देखने को मिलती है। हालांकि देश के सबसे बड़े स्लम एरिया धारावी में साक्षरता दर 69 प्रतिशत है। इधर, आंध्र प्रदेश में शहरी आबादी का 36.1 प्रतिशत हिस्सा मलिन बस्तियों में रहता है। वहीं छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा की शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन मलिन बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, ओडिशा की मलिन बस्तियों में रहने वाले 64.1 प्रतिशत घरों में अब तक पीने का स्वच्छ पानी नहीं पहुंच पाया है, वहीं दूसरी ओर इन बस्तियों के 90.6 प्रतिशत घरों से जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं है, जिससे आए दिन यहां रहने वाले लोगों के बीमार होने का खतरा बना हुआ है।

देश में 13.7 मिलियन स्लम घरों में कुल 65.49 मिलियन लोग निवास करते हैं। लगभग 65 प्रतिशत भारतीय शहरों के आसपास झुग्गियां और स्लम क्षेत्र मौजूद हैं, जहां लोग घनी बस्तियों में रहते हैं। नेशनल सर्विस स्कीम राउंड के सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2012 तक दिल्ली में लगभग 6,343 स्लम बस्तियां थीं, जिनमें दस लाख से अधिक घर थे, जहां दिल्ली की कुल आबादी का 52 प्रतिशत हिस्सा निवास करता था। देश की लगभग 81 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करती है। संपूर्ण कोविड लॉकडाउन के अचानक लागू होने से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की आजीविका काफी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। पूर्व लॉकडाउन के बाद दिल्ली में भारी संख्या में रिवर्स माइग्रेशन देखा गया, जब हजारों प्रवासी कामगार अपने गृहनगर वापस चले गए। इस दौरान लगभग 70 प्रतिशत स्लम निवासी बेरोजगार हो गए, वहीं 10 प्रतिशत की मजदूरी में कटौती हुई और आठ प्रतिशत पर इसके अन्य प्रभाव देखे गए।

इंटरनेशनल जर्नल आॅफ एनवायरनमेंट एंड पॉल्यूशन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, स्लम बस्तियों से होने वाले प्रदूषण के कारण एशिया में मौसम के पैटर्न में बदलाव आ रहा है। इनके चलते एक ओर जहां हवा की रफ्तार में वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर बारिश में कमी आ रही है। क्लाइमेट मॉडल्स पहले ही इस बात के संकेत दे चुके हैं कि स्थानीय स्तर पर हो रहा प्रदूषण चक्रवाती तूफानों के गठन और उनके विकास को प्रभावित कर सकता है। गौरतलब है कि भारत के पूर्वी तट पर कई बड़े शहर बसे हैं, जो कि नियमित रूप से हर वर्ष अक्टूबर से दिसंबर के बीच इन तूफानों से प्रभावित होते हैं। इन शहरों की झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लाखों लोग आज भी खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में लकड़ी का उपयोग करते हैं, जिससे बड़ी मात्रा में बायोमास कण उत्पन्न होते हैं, जो कि हवा में मिल जाते हैं। यह प्रदूषित कण जो काफी समय तक रासायनिक रूप से शहरों में वायु के भीतर रहते हैं, बादलों में क्लाउड कंडेंसशन न्यूक्लीय की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं।

असल में सरकारी योजनाओं के लाभ अभीष्ट लाभार्थियों के एक छोटे से हिस्से तक ही पहुंच पाते हैं। अधिकांश राहत कोष और लाभ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों तक नहीं पहुंचते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि इन बस्तियों को सरकार की ओर से आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी जाती है। देश में उचित सामाजिक सुरक्षा उपायों का अभाव देखा गया है और इसका बीमारी से लड़ने की हमारी क्षमता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार शहरी नियोजन और प्रभावी शासन के लिए नए दृष्टिकोण समय की आवश्यकता है। टिकाऊ, मजबूत और समावेशी बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए आवश्यक कार्रवाई करना जरूरी है। स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें ऊपर से नीचे के दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत है। स्लम बस्तियों की समस्याओं के समाधान के लिए हम सभी को मिलकर काम करना होगा, नहीं तो हालातों को बदला नहीं जा सकेगा।


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