जर्मनी के एक स्कूल की छुट्टी हुई तो दो दोस्त रोज की तरह खेलते-कूदते घर की ओर चले। यह उनका रोज का नियम था। दोनों स्कूल साथ-साथ आते भी थे और साथ-साथ घर भी लौटते थे। उस दिन रास्ते में एक अखाड़ा देख वे मस्ती के मूड में आ गए। वे बस्ता एक ओर रखकर कुश्ती लड़ने लगे। दोनों में जो कमजोर बालक था, वह हार गया और बलवान जीत गया। जीतने वाला बालक शेखी बघारने लगा। हारा हुआ बालक दुखी था। वह चूंकि गरीब परिवार से था, इसलिए उसे पौष्टिक भोजन नहीं मिलता था। कमजोर बालक ने कहा, ‘देखो, अगर मैं भी तुम्हारी तरह अमीर घर में पैदा हुआ होता तो मुझे भी खाने में पौष्टिक खुराक मिलती। तब शायद तुम्हारी जगह मैं जीतता।’ यह छोटी-सी बात उस विजयी बालक के दिल को छू गई। वह अपने मित्र की बात से बेहद दुखी हुआ, लेकिन उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया। वह उस दिन से खूब मन लगाकर पढ़ने लगा। उसने खेलना-कूदना कम कर दिया और शरारतें भी छोड़ दीं। पढ़ाई में वह अव्वल आने लगा और फिर एक दिन वह डॉक्टर बन गया। लेकिन अपने बचपन के उस मित्र की छोटी-सी बात वह कभी नहीं भूला। उसने और डॉक्टरों से अलग रास्ता चुना। उसने निर्बलों और गरीबों की सहायता करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस उद्देश्य से उसने अपना वतन छोड़कर अफ्रीका की राह पकड़ ली। वहां उसने एक सेवाग्राम स्थापित किया और अफ्रीका के पीड़ित और असहाय लोगों की सेवा में जुट गया। उसकी नजर में हर पीड़ित अहम था। धर्म, नस्ल और रंग उसके लिए कोई अहमियत नहीं रखते थे। आहिस्ता-आहिस्ता उसकी नि:स्वार्थ सेवा की चर्चा पूरी दुनिया में होने लगी। वह बालक था अल्बर्ट श्वाइत्जर। श्वाइत्जर को उनकी सेवाओं के लिए नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।