अंकुर सिंह
अभिभावक सोचते हैं कि जब तक बच्चा स्मार्ट फोन, टीवी पर फंसा है तब तक जरूरी काम निपटा लें, लेकिन उन्हें इसका तनिक भी आभास नहीं होता की उनके कामों के साथ-साथ उनके बच्चों का नाजुक बचपन भी निपट रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1 से 5 साल के बच्चों में शारीरिक विकास तेजी से होता हैं और मोबाइल टीवी पर समय बिताने के कारण वो बाकी अलग-अलग खेलों से दूर होते जाते हैं जिससे उनके शरीर का संर्वांगीण विकास नहीं हो पता।
गांधी जी की जयंती दो अक्टूबर पर किताब उठाई बापू की जीवनी पढ़ने लगा। पढ़ने पर पाया कि मोहन दास नामक बालक बचपन में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र नामक चल-चित्र देखने पर पूरे जीवन सत्य बोलने का प्रण कर लेता है और सत्य के मार्ग पर आजीवन चल पड़ता है। फिर विचार आता है कि आजकल के कोमल मन वाले बच्चों पर स्मार्टफोन के हिंसक गेमों, टीवी चैनल के अनेक धारावाहिकों का उनके बचपन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
आज के दौर में बच्चों के जीवन शैली को देखता हूं तो पाता हूं कि उनका अधिकांश बचपन स्मार्ट फोन और टीवी पर व्यतीत होता है। इसके जिम्मेदार ईश्वर रूपी नन्हें बालक ही नहीं, अपितु उनके अभिभावक भी हैं जो कामकाजी होने पर भी संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार में विश्वास रखते हैं और बच्चों को मनोरंजन के लिए उन्हें मोबाइल और टीवी के सामने बैठा देते हैं और खुद लग जाते हैं अपने दूसरे कामों में। बच्चा भी एकल परिवार में नाना-नानी और दादा-दादी के कहानी, प्यार और संस्कार की तो दूर मां की लोरी से भी वंचित हो बंद कमरें में मोबाइल और टीवी के साथ अपना बचपन गुजार देता है।
अभिभावक सोचते हैं कि जब तक बच्चा स्मार्ट फोन, टीवी पर फंसा है तब तक जरूरी काम निपटा लें, लेकिन उन्हें इसका तनिक भी आभास नहीं होता की उनके कामों के साथ-साथ उनके बच्चों का नाजुक बचपन भी निपट रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1 से 5 साल के बच्चों में शारीरिक विकास तेजी से होता हैं और मोबाइल टीवी पर समय बिताने के कारण वो बाकी अलग-अलग खेलों से दूर होते जाते हैं जिससे उनके शरीर का संर्वांगीण विकास नहीं हो पता।
दिल्ली स्थित, आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेस (एम्स) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत में 5-15 वर्ष की आयु वर्ग के 17 प्रतिशत बच्चे मायोपिया (निकट दृृष्टि दोष) से पीड़ित हैं। यह रोग आमतौर पर मोबाइल, लैपटाप पर ज्यादा समय बिताना, इलेक्ट्रानिक गैजेट्स को उपयोग करते समय उनसे बराबर दूरी ना होना, प्रकृतिक रोशनी में कम समय बिताने से बढ़ता है।
आज के परिवेश में लोगों का सामाजिक दायरा भी कम होता जा रहा हैं। लोग किसी से मेल-मिलाप न पसंद करते हुए बंद कमरों में ज्यादा समय व्यतीत कर रहें हैं जिससे अभिभावक के साथ उनका बालक भी प्राकृतिक रोशनी से वंचित हो बंद कमरों के कृत्रिम रोशनी में जीवन बिताने में मजबूर है। दूसरा एक ही पोजीशन (स्थिति) में सिर झुकाये मोबाइल पर गेम खेलने के कारण बच्चों में सर्वाइकलगिया (गर्दन में दर्द) होने कि प्रबल संभावना होती है।
और तो और, आज के बच्चों का बचपन देखता हूं और फिर अपने बचपन के बारे में सोचता हूं जहां हमारा बचपन विल्पुता के कगार पर पहुंचे चुके खेलों कबड्डी, खो-खो, लुका-छिपी, ऊंची कूद जैसे के साथ-साथ क्रि केट, फुटबाल, बालीबाल के साथ बीता, वही कल के भविष्य बच्चों का बचपन बंद कमरों में टीवी और स्मार्ट फोन पर बीत रहा जिससे उनका शारीरिक रूप से पूर्णतया विकास न होने के साथ-साथ उनमें सामाजिकता की कमी भी आती है। बाहर निकल कर बच्चे जब तक न खेलेंगे, तब तक अपने परिवेश में बाकी बच्चों से दोस्ती भी न कर पाएंगे और वो बचपन से ही संकुचित जीवन के आदि हो जाएंगे।
इन सब के साथ मोबाइल टीवी पर काफी ऐसे ज्ञानवर्धक कार्यक्रम हैं जो बच्चों के विकास के लिए अति-आवश्यक हैं। इससे ऐतराज नहीं किया जा सकता लेकिन उपयुक्त बातों का ध्यान रखते हुए बच्चों के मोबाइल और टीवी के उपयोग का समय सीमित कर देना चाहिए।
अत: मैं अभिभावकों से इतना कहना चाहूंगा कि आपके घर का बच्चा आपका ही बच्चा नहीं है अपितु राष्ट्र की धरोहर भी है जो कल देश के भविष्य कि दिशा का निर्धारण करेगा। इतिहास उठा कर देख लीजिए। महात्मा गांधी बचपन में भूत के डर के कारण अंधेरे में एक कदम नहीं बढ़ा पा रहे थे। इतने में बाहर खड़ी बूढ़ी दाई रंभा ने उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा-राम का नाम लो भूत तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा फिर राम नाम का ऐसा चस्का लगा उन्हें कि मरते समय भी आखिरी शब्द भी उनके ‘हे राम’ निकला। जब बाल्य मन इतना ग्राही होता है तो सोचिए आपका बच्चा जब देखेगा कि नोबिता जिद्द करके डोरेमोन से अपनी बात मनवा लेती है तो वो भी नोबिता की तरह जिद्दी बनेगा ना कि राम की तरह आज्ञाकारी।