दिल्ली से सटे गाजियाबाद में इन दिनों सत्ताधारी विधायक की अगुआई में बड़ा आंदोलन चल रहा है। हुआ यूं जिले के अलग-अलग इलाकों में लगने वाले साप्ताहिक बाजार पर नगर निगम ने रोक लगा दी। इसमें से एक स्थान भारतीय सेना का है जो इसे खाली चाहता है, जबकि बाकी बाजार व्यस्ततम सड़कों पर लगते थे। गौर करने वाली बात है कि उत्तर प्रदेश का प्रतिवर्ग किलोमीटर जनसंख्या घनत्व 829 लोगों का है, जबकि गाजियाबाद का जनसंख्या घनत्व प्रतिवर्ग किलोमीटर 3971 लोगों का है। प्रदेश के सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले गाजियाबाद की सड़कों पर हर समय जाम रहता है। चर्चा यह भी है कि कई महंगे बाजारों के व्यापारी इन साप्ताहिक बाजारों से खुद का नुकसान महसूस करते हैं। इन बाजारों से कोई दो लाख लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है और 90 प्रतिशत दुकानदार देवबंद, सहारनपुर, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फर नगर, हापुड़, दिल्ली, सीलमपुर आदि क्षेत्रों से आते है, जिनकी किसी प्रकार की कोई पहचान नहीं है। जिन इलाकों में बाजार लगता है, वहां के लोगों की शिकायत है कि बाजार वाले दिन वे अपने घरों में बंधक बन कर रह जाते हैं।
यह दुविधा अकेले गाजियाबाद की ही नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों से समय-समय पर इन बाजारों को बंद करने की मांग उठती रहती है। इसके पीछे गिनाए जाने वाले कारण लगभग एक जैसे होते हैं- बाजार के कारण यातायात ठप्प हो जाता है तथा इलाके के रहवासी अपने घर में बंधक हो जाते हैं, ऐसे बाजारों में गिरहकटी होती है, अपराधी आते हैं या फिर ये बाजार गंदगी करते हैं। और इसके चलते आवार पशु यहां आ जाते हैं। यदि गंभीरता से गौर करें तो असलियत दूसरी होती है। ऐसे बाजारों को बंद करने के पीछे स्थानीय व्यापारियों के कारण दीगर होते हैं, जैसे कि बाजार से कम कीमत पर सामान मिलने से हर सप्ताह घर का सामान खरीदने वाले लोग उनकी दुकानों पर ना जा कर हाट बाजार का इंतजार करते हैं। हाट बाजार में मिलने वाली सस्ती चीजों और मोलभाव की आदत के कारण ग्राहक अक्सर उनकी दुकान पर भी दाम करने या एमआरपी जैसे मसलों पर विवाद करते हैं। कई बार साप्ताहिक बाजारों से उगाही करने वाले गिरोहों के आपसी टकराव होते हैं और इसी के चलते वे बाजार को बंद करवाने की साजिशें रचते हैं।
हाट बाजार केवल विनिमय का स्थान ही नहीं होता। बस्तर तभी चर्चा में आता है जब वहां कुछ खून बहता है, लेकिन बस्तर के पास बारूद की गंध के अलावा बहुत कुछ है। उसमें सबसे महत्वपूर्ण है अपनी परंपराओं, जीवनशैली और सभ्यता को सहेज कर रखने का जीवट और कला। सनद रहे बस्तर का क्षेत्रफल केरल राज्य से अधिक है और यहां के घने जंगलों में आदिवासियों के छोटे-छोटे गांव होते हैं। बस्तर क्षेत्र में लगभग साढ़े तीन हजार गांव हैं और पांच-छह गांवों के मध्य एक हाट होता है, जहां लोग अपनी जरूरत की वस्तुओं को खरीद या बेच सकते हैं। बस्तर में लगने वाले इन हाटों में यहां की संस्कृति, खान पान और रहन सहन के तौर तरीकों को बेहद करीब से जानने और समझने का मौका मिलता है। बस्तर के आदिवासियों का जीवन अभी कुछ दशक पहले तक पूरी तरह जंगलों पर ही निर्भर था, महुआ, इमली, बोंडा, चिरोंजी की गुठली जैसे उत्पाद लेकर वे साप्ताहिक बाजार में जाते, वहां से नमक जैसी जरूरी चीजें उसके बदले में ले लेते।
दिल्ली राजधानी क्षेत्र की हर कालोनी में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लोगों की जीवन रेखा बने हैं। कहां बस्तर के घने जंगल के बीच का बाजार और कहां दिल्ली में गगनचुबी अट्टालिकाओं में पूरी तरह वातानुकुलित बाजार यानि मॉल के ठीक सामने लगने वाले बाजार में कंधे छीलती भीड़। स्थान, भले ही एक हो, लेकिन बेचने व खरीदने वाले की मनोस्थिति, अर्थशास्त्र और मनोवृति एक ही है। दिल्ली के डीडीए फ्लैट कालकाजी के साप्ताहिक बाजार हों या फिर वसंत विहार जैसे बेहद महंगे इलाके का बुध बाजार या फिर करोलबाग व विकासपुरी में मंगल बाजार या फिर सुदूर भोपाल या बीकानेर या सहरसा के साप्ताहिक हाट बाजार, जरा गंभीरता से देखें तो ये सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण होते हैं।
यह हकीकत है कि ये बाजार रोजगार की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन कर आए निम्न आय वर्ग के लोगों की जीवनरेखा होते हैं। आम बाजार से सस्ता सामान, चर्चित ब्रांड से मिलता-जुलता सामना, छोटे कम दाम वाले पैकेट, घर के पास और मेहनत-मजदूरी करने के बाद देर रात तक सजा बाजार। दुखद यह है कि सभी स्थानीय निकाय इन पैठ बाजार वालों से नियमित वसूली करते हैं, लेकिन इनके लिए शौचालय, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसी कोई सुविधा उन्हें नहीं होती। असल में सारे देश के हाट बाजार के पीछे केवल वे ही नहीं होते जो सामने फुटपाथ पर अपना सामान बेचते हैं, और भी कई लोगों की रोजी रेटी इनसे चलती हैं। एक तो हर जगह बाजार लगाने की जिम्मेदारी स्थानीय निकाय यानि नगर निगम से लेकर ग्राम पंचायत तक की होती है। प्रत्येक विक्रेता से उसकी पैठ या बैठकी का निश्चित कर वसूला जाता है। बहुत सी जगहों पर निकाय इसे ठेके पर उठा देते हैं व ठेकेदार के आदमी प्रत्येक दुकानदार से एक शाम की वसूली करते हैं। यह राशि पंद्रह रूपए से सौ रूपए तक होती है। बाजार के लिए लकड़ी के फट्टे या टेबल, ऊपर तिरपाल, और बैटरी से चलने वाली एलईडी लाईट की सप्लाई वालों का बड़ा वर्ग पूरी तरह इन हाट बाजार पर ही निर्भर होता है। कई लोग ऐसे बाजारों के सामन के परिवहन के लिए वाहन उपलब्ध करवाते हैं।
इसके अलावा बहुत सा धन ऐसा भी इन बाजार के जरिये जेबों तक घूमता है जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता, जैसे कि पुलिस का हफ्ता, सफाई वाले को अतिरिक्त पैसा देना और कई जगह लोकल रंगदारी भी। हाट-बाजार में दुकान करने वालों का अभी तक कभी कोई सर्वेक्षण तो हुआ नहीं लेकिन अनुमान है कि दिल्ली शहर, गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गु़डगांव में लगने वाले कोई 300 से अधिक बाजारों में 35 से चालीस हजार दुकानदार हैं। पूरे देश में यह संख्या लाखों में होगी, इसके बावजूद ना तो इनको कोई स्वास्थ्य सुविधा मिली है और ना ही बैंक से कर्ज या ऐसी कोई बीमा की सुविधा। यह पूरा काम बेहद जोखिम का है, बरसात हो गई तो बाजार नहीं लगेगा, कभी-कभी त्योहारों के पहले जब पुलिस के पास कोई संवेदनशील सूचना होती है तो भी बाजार नहीं लगता। कभी कोई जाम में फंस गया और समय पर बाजार नहीं पहुंच पाया तो कभी सप्लाई चैन में गड़बड़ हो गई। ऐसे दुकानदारों का वैसे तो पूरा सप्ताह ही एक बाजार से दूसरे बाजार में अपने ठिये को सजाने, ग्राहक को बुलाने में व्यतीत होता है, थोड़ा भी समय मिला तो उन्हें खुद बाजार जा कर अपनी दुकान के लिए थोक के व्यापारी से माल लेना होता है। पटरी बाजारों ने नए बसते शहर देखे, चमकते मॉल का आगमन देखा, घरों में खुलती दुकानें देखीं, कई तरह के विरोध व बुराई भी सहीं, लेकिन सप्ताह के किसी तयशुदा दिन सड़क के कनिरे, भयंकर ट्रैफिक के बीच भारी चिल्लपों वाले बाजार की रौनक कभी कम नहीं हुई।