Tuesday, July 9, 2024
- Advertisement -
Homeसंवादसप्तरंगरुकिए! भावनाओं में न बहें

रुकिए! भावनाओं में न बहें

- Advertisement -

 

Samvad 17


Raju Panday 2जब समाज में तार्किकता और सहिष्णुता का अभाव होने लगता है तब द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में बनती भी हैं और कामयाब भी होती हैं। यह देखना आश्चर्यजनक है कि हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग यह समझ पाने में असमर्थ है कि इस फिल्म में आपत्तिजनक क्या है? कश्मीरी पंडितों के साथ हुई भयानक त्रासदी एक ऐतिहासिक सत्य है और तीन दशकों तक इन्हें न्याय न मिल पाना आज का कटु यथार्थ। फिर इसके फिल्मांकन को लेकर विवाद क्यों?
आपत्तिजनक है वह निष्कर्ष जिस पर यह फिल्म हमें पहुंचाने की कोशिश करती है, वह मनोदशा जिसमें यह फिल्म हमें छोड़ जाती है। निष्कर्ष यह है कि कश्मीरी मुसलमान और यदि इसका सामान्यीकरण करें तो मुसलमान ही भारत विरोधी एवं पाकिस्तान परस्त हैं। यह क्रूर और बर्बर हैं। इनकी उदारता और संविधानप्रियता तभी तक है जब तक यह अल्पसंख्यक हैं, जिस दिन यह बहुसंख्यक हो जाएंगे(और ये योजनाबद्ध रूप से अपनी जनसंख्या बढ़ा भी रहे हैं) उस दिन देश के हर भाग में हिंदुओं के साथ वही होगा जो कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ। जिस मनोदशा में फिल्म दर्शक को छोड़ जाती है- वह है आक्रोश, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की मनोदशा।

Weekly Horoscope: क्या कहते है आपके सितारे साप्ताहिक राशिफल 20 मार्च से 26 मार्च 2022 तक |

कश्मीरी पंडितों के साथ हुई अमानवीय बर्बरता का फिल्मांकन कुछ इस तरह से भी हो सकता था कि उसे देखकर हम देश और दुनिया में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध स्वयं को खड़ा देखते, हम अल्पसंख्यकों की पीड़ा का अनुभव कर सिहर उठते, हम यह संकल्प लेते कि कश्मीर में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों पर जो गुजरी है वह देश के किसी अल्पसंख्यक के साथ न गुजरे, बल्कि विश्व का कोई अल्पसंख्यक इस तरह की बर्बरता का शिकार न हो। हम संकल्प लेते कि बहुसंख्यक होने के नाते हम हर अल्पसंख्यक को ऐसा स्नेह, प्रेम और अपनापन देंगे कि उसे भय और असुरक्षा की भावना छू न पाए, वह स्वयं को पूर्णत: सुरक्षित महसूस करे।

हम पलायन के उस दर्द का अनुभव करते जो साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार कोई हंसता-खेलता परिवार तब करता है जब उसे अचानक अपना घर-शहर छोड़ना पड़ता है। हम हर पीड़ित अल्पसंख्यक को न्याय दिलाने और उसकी घर वापसी के लिए वचनबद्ध होते। किंतु दुर्भाग्य से फिल्म संकीर्ण राजनीतिक हितों की सिद्धि के लिए प्रयासरत लगती है।

किसी भी साम्प्रदायिक हिंसा के स्थानीय कारण होते हैं। अनेक बार अल्पसंख्यक समुदाय संख्या में तो कम होता है किंतु राजतंत्र की परिपाटी, आर्थिक संपन्नता और शिक्षा के बेहतर स्तर के कारण वह बहुसंख्यक समुदाय पर शासन कर रहा होता है। स्वाभाविक है कि न तो वह बहुसंख्यक समुदाय की आकांक्षाओं का प्रतिनिधि होता है न ही भावनात्मक रूप से उनके द्वारा स्वीकृत होता है। कई बार ऐसा भी होता है कि स्थानीय अपराधी तत्व विघटनकारी विदेशी ताकतों से मिलकर सुनियोजित हिंसा करते हैं-ऐसी हिंसा जिसका संदेश प्रदेश विशेष तक सीमित न रहे बल्कि पूरे देश और दुनिया में फैल जाए और इसका निशाना उस समुदाय को बनाया जाता है जो स्थान विशेष पर तो अल्पसंख्यक है किंतु देश में बहुसंख्यक है।

हर सांप्रदायिक हिंसा का सामाजिक,आर्थिक एवं राजनीतिक पहलू होता है। व्यापारिक और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, व्यक्तिगत विवाद और महत्वाकांक्षाएं, स्थानीय राजनीति की कुटिल चालें आदि साम्प्रदायिक दिखने और समझी जाने वाली हिंसा के मूल में होती है। किंतु यह भी सच है कि बिना साम्प्रदायिकता की आग के स्थानीय कारणों के इस बारूद में विस्फोट नहीं हो सकता और यही कारण है कि इसके बाद फैलने वाली हिंसा की लपटें साम्प्रदायिकता के रंग में रंगी रहती हैं। द कश्मीर फाइल्स साम्प्रदायिक रंग में रंगी हिंसा की लपटों की भयानकता को तो दिखाती है किंतु उस ईंधन को नहीं दिखाती जो एकदम गैर साम्प्रदायिक है और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सामरिक, स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से मिलकर बना है।

साम्प्रदायिक विद्वेष और घृणा हमारे देश की स्याह सच्चाई है किंतु इसकी कालिख हमारे साम्प्रदायिक सद्भाव की उजली चमक पर कभी हावी न हो पाई। हमने आजादी के बाद यह सिद्ध किया है कि हमारे देश में साम्प्रदायिक विद्वेष एक अपवाद है और साम्प्रदायिक सद्भाव हमारा स्थायी भाव। हमने पूरी दुनिया को अचरज में डालते हुए अपने बहुलवाद और सामासिक संस्कृति की रक्षा की है। कश्मीर की हिंसा में कितने ही वतनपरस्त मुसलमान भी शहीद हुए। कितने ही ऐसे मुसलमान थे जिन्होंने अपने अल्पसंख्यक मित्रों को बचाने की कोशिश की।

कितने ही ऐसे साहसी पत्रकार और नेता थे जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए इस हिंसा और आतंकवाद का पुरजोर विरोध किया। फिल्म इनकी कुबार्नी को अनदेखा कर देती है। आज देश को सांप्रदायिकता के रंग में रंगने की कोशिश की जा रही है। यह आशंका एकदम जायज है कि कश्मीर फाइल्स जैसी और फिल्में आने वाले दिनों में बनें भी एवं उन्हें राज्याश्रय तथा व्यावसायिक सफलता भी मिले।

जब सोशल मीडिया के देशभक्त कश्मीरी पंडितों पर हुए नृशंस अत्याचारों के प्रति बुद्धिजीवियों के कथित मौन पर आपत्ति करते हैं तो उन्हें याद करना चाहिए कि दलितों पर हुए अमानवीय अत्याचारों, सीवर सफाई के दौरान हुई मौतों, जातिगत विद्वेष जन्य बलात्कार और हत्याओं, किसानों की आत्महत्याओं तथा आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न की घटनाओं पर वे कितनी बार मुखर हुए हैं और उन्होंने पीड़ित के हक की लड़ाई लड़ी है।
फिल्म देखकर निकल रहे दर्शकों की भाषिक हिंसा चिंता पैदा करने वाली है।

यह आशंका भी है कि यह निकट भविष्य में राज्य पोषित शारीरिक हिंसा का रूप धारण कर सकती है। इनमें से अधिकांश दर्शक युवा हैं, उन्होंने हिंसा को फिल्मों और सोशल मीडिया पर महिमामण्डित होते देखा है। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब हिंसा होती है तब मौत मनुष्य और मनुष्यता की ही होती है। धर्मों, विचारधाराओं,सत्ताओं और राष्ट्रों के मध्य जय-पराजय, आत्म रक्षा और आत्म विस्तार के हिंसक खेल तो चलते ही रहते हैं। ये खेल हिंसा के नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं। हिंसा के इन नियमों में एक शाश्वत नियम यह है कि चाहे उदात्त भाव से की जाए या उन्माद में, हिंसा मानव जीवन का अंत करती ही है। जब समाज हिंसा का अभ्यस्त हो जाता है, असहिष्णु बन जाता है तब वह हर अप्रिय स्थिति का अंत हिंसा में ढूंढता है फिर चाहे वह राजनीतिक बैर हो, सामाजिक वैमनस्य हो या जातीय संघर्ष हो।

द कश्मीर फाइल्स ने सोशल मीडिया पर अनौपचारिक रूप से पिछले अनेक वर्षों में फैलाई गई साम्प्रदायिक विभाजनकारी सोच को बौद्धिक विमर्श की मुख्यधारा में लाने का कार्य किया है, भाजपा और केंद्र सरकार ने इसका खुला समर्थन कर नए भारत के अपने असमावेशी विजन का उद्घोष कर दिया है। इस विजन को कोई चुनौती देने वाला भी नहीं है। चुनावी पराजय से हतप्रभ विपक्ष पहले ही जमीनी संघर्ष की आदत भूल चुका है। अब सब कुछ आम जनता पर है।


janwani address 122

What’s your Reaction?
+1
0
+1
3
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
- Advertisement -

Recent Comments