Monday, April 28, 2025
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सुख नहीं, दुख हमें जोड़ते हैं!

सुधांशु गुप्त
सुधांशु गुप्त
हाल ही में अनिल प्रभा कुमार का संग्रह ‘कतार से कटा घर’ (भावना प्रकाशन) एक बार फिर से पढ़ा। इसे पढ़ना इसलिए भी जरूरी लगा, क्योंकि कोरोना काल ने इंसान को नितांत अकेला कर दिया है। संग्रह को पढ़कर साफ लगा कि उनकी कहानियों में दुखों की साझी विरासत मौजूद है। इन कहानियों को पढ़ते हुए आप एक पल को यह भूल जाते हैं कि आप दशकों से अमेरिका में रह रहीं किसी लेखिका की कहानियां पढ़ रहे हैं। इन कहानियों के जरिये आप संस्कृति की यात्रा करते हैं और पाते हैं कि आप अपने देश से कितनी भी दूर निकल जाओ, आपके भीतर आपकी संस्कृति हमेशा बची रहती है। अनिलप्रभा कुमार की कहानियों में अपने देश की मिट्टी की सुगंध साफ तौर पर महसूस की जा सकती है।

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अनिलप्रभा अपनी कहानियों में किसी चमत्कार या जादुई दुनिया को चित्रित नहीं करतीं। बेहद सहजता से वे कहानी को आगे बढ़ाती हैं। पाठक को अहसास ही नहीं होता कि वे कहानी पढ़ रहे हैं। वे न किसी आयातित विमर्श के पचड़े में पड़ती हैं, ना ही भाषा या शिल्प के मोह में। यही ईमानदारी उनकी कहानियों की ताकत है। चौंकाने वाले तत्व के पक्ष में भी उनकी कहानियां दिखाई नहीं देतीं। अमेरिका में रहने के बावजूद उनकी कहानियां भारतीय संस्कृति के पक्ष में खड़ी हैं। लेकिन इसके साथ ही वह भारतीय समाज की बुराइयों से लड़ती भी दिखाई पड़ती हैं। शीर्षक कहानी ‘कतार से कटा घर’ से लगता है कि आप किसी अजनबीपन पर कहानी पढ़ रहे हैं। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों के माध्यम से कहानी आपको समलैंगिकता की तरफ ले जाती है। एक बच्चे के घर में पिता नहीं है, उसकी दो मांएं हैं और एक छोटी बहन। बच्चे स्कूल में उसे चिढ़ाते हैं। अमेरिका जैसे समाज में रहने के बावजूद एक साथ रह रहीं दोनों स्त्रियों को यह दुख झेलना पड़ रहा है। लेकिन इस दुख से वह वे हारती नहीं बल्कि इसके खिलाफ लड़ाई लड़ती हैं। अंतत: न्यूयॉर्क में गे मैरिज बिल पास हो जाता है। बच्चे की दोनों मांएं विवाह करती हैं। लेकिन कार के पिछले शीशे पर लिखे शब्द न्यूली मैरिड पर कोई अंडा फेंक कर चला जाता है। प्रतीकात्मक अर्थों में उनकी यह लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। यह कहानी पूरी संवेदना के साथ लिखी गई है। बिना समलैंगिकता पर बहस के और बिना ‘जजमैंटल’ हुए। समलैंगिकता पर ही उनकी एक अन्य कहानी है ‘दीवार के पार’। इस कहानी में अनिलप्रभा ने एक मां और उसके समलैंगिक बेटे की कथा बहुत मार्मिक ढंग से कही है। समलैंगिक बेटा आत्महत्या कर लेता है और अंत में मां लिखती है, प्रिय फादर रिल्के, जिस धर्म में मेरे बेटे के लिए स्वीकृति नहीं, आज से मैं उसको ही अस्वीकार करती हूं। मैं अब कभी चर्च नहीं आ पाऊंगी।
ऐसा नहीं है कि अनिलप्रभा की कहानियों का कथानक जीवन से ही लिया गया है। ‘महानगर में ही कहीं’ बेशक न्यूयॉर्क की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है लेकिन दरअसल यह कहानी समय, स्थान और परिवेश को तोड़ती है। यह उस अकेलेपन की कहानी है जो आधुनिकता के अभिशाप के रूप में सामने आ रहा है। यह अकेलापन झेलने को आज हम सभी अपनी अपनी तरह से विवश हैं। यह कहानी किसी विशेष महानगर की त्रासदी नहीं है, बल्कि एक ऐसी त्रासदी की कहानी है जो कहीं भी किसी के भी साथ घट सकती है, घट रही है। अनिलप्रभा कुमार ने इस कहानी को कहने के लिए जिस डिवाइस का प्रयोग किया है वह बेहद शानदार है और इस महानगरीय त्रासदी को पूरी इंटेंसिटी के साथ चित्रित करता है।
संग्रह में कुछ और भी कहानिया हैं, ये कहानियां कहीं न कहीं भारतीय समाज की ही कहानियां दिखाई पड़ती हैं। ‘बस पांच मिनट’ एक ऐसी महिला की कहानी है, जिसे आग में जला दिया गया है। वह उठती है और नये सिरे से जिंदगी शुरू करती है। उसके साथ तमाम ऐसी महिलाएं जुड़ती चली जाती हैं जो कहीं ये दुख झेल रही हैं। यह कहानी भारतीय समाज में एसिड अटैक की शिकार महिलाओं के दर्द को पूरी शिद्दत से व्यक्त करती है। इसी तरह ‘जब मंदिर ढहते हैं’ कहानी में एक महिला न्यूयॉर्क से भारत अपनी मां के पास पहुंचती है और देखती है कि किस तरह उसकी मां एक डॉक्टर महादेव नामक स्वंभू संत की भक्त बनती चली जा रही हैं। अंत में मां अपनी बेटी के पास अमेरिका चली आती है और पता चलता है कि वह कथित संत अपनी ही पुत्रवधु से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। यह कहानी भारतीय समाज के उन संतों पर तीखा प्रहार है जो अपने ही भक्तों से बलात्कर तक कर डालते हैं। लेकिन इस कहानी में मां और बेटी के रिश्ते का भी महीन चित्रण देखने को मिलता है जो कहानी की ताकत है। विदेशी जमीन पर रहते हुए कई बार इनसान को कुछ घटनाएं देखकर सांस्कृतिक आघात सा लगता है। ‘उसका मरना’ कहानी इसी सांस्कृतिक आघात की प्रतिक्रिया है। कहानी में एक तरफ दिखाया गया है कि किसी परिचित की मृत्यु पर अश्रु के साथ श्रद्धांजलि देने की परंपरा पश्चिमी समाज में नहीं है। किस तरह उस समाज की सारी निष्ठा भौतिक लाभ के लिए ही है। भारत में रहते हुए हम सोचते हैं कि कम से अमेरिका में तो लैंगिक असमानता नहीं होगी, वहां तो महिलाओं को अपने साथ पक्षपात नहीं देखना पड़ता होगा। लेकिन ऐसा है नहीं। कहानी में यह लैंगिक असमानता पूरी शिद्दत से दिखाई पड़ती है और साथ ही दिखाई पड़ती है इसके खिलाफ लड़ाई।
संग्रह की सबसे सशक्त, खूबसूरत और तकलीफदेह कहानी है बे-मौसम की बर्फ। इस कहानी को पढ़कर बरबर ओ हेनरी की विश्व प्रसिद्ध कहानी ‘वो आखिरी पत्ता’ याद आ जाती है। ‘बे मौसम की बर्फ’ में पति पत्नी अपनी कैंसर से पीड़ित बेटी को बचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। बाहर बहुत बर्फबारी हो रही है। मां देखती है कि जिस पेड़ को उनकी बेटी खिड़की के बाहर देखा करती थी, वह पेड़ बर्फबारी में नष्ट हो चुका है। जब पिता बेटी को उसी कमरे में लिटाने की कोशिश करता है, जहां से वह मैग्नीलिया के पेड़ को देखती थी तो मां बेटी को उसके हाथ से ले लेती है और उसे दूसरे कमरे में लिटाती है। यह कहानी वास्तव में मानवीय रिश्तों की कहानी है, जो आपको बाहरी आपदाओं से लड़ने की ताकत देती है।
कतार से कटा घर की कहानियों को पढ़ना दो संस्कृतियों के बीच बने या बन रहे उस सेतु पर चलना है, जहां से आपको नये परिवेश में अपने दुखों की महीन ध्वनियां सुनाई देती हैं। बेहद ईमानदारी से लिखी गई ये कहानियां संवेदनशीलता की नयी परतें खोलती हैं और बताती हैं कि सुख नहीं, दुख हमें जोड़ता है।

फीचर डेस्क Dainik Janwani

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