किशोर उपाध्याय साहित्य जगत में एक जाना-पहचाना नाम है। कुछ गुदगुदाते, रिझाते, सोचने पर मजबूर करते व्यंग्यों में समाज और उसके सभी क्षेत्रों में असहमति के स्वर उठाने वाले रामकिशोर उपाध्याय के जादुई शब्दों से सजा एक व्यंग्य संग्रह ‘मूर्खता के महर्षि’ इन दिनों प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में शामिल बत्तीस व्यंग्यों को पढ़ते समय हम यह भूल जाते हैं कि हमारी बत्तीसी अंदर है या बाहर, ऊपर है कि नीचे, खुली है या दबी हुई। लेखक का यह प्रथम व्यंग्य संग्रह है और वह स्वयं इसे एक दस्तक मानते हैं फिर भी जहां-जहां यह दस्तक सुनाई देती है,वहां-वहां हम अपने आसपास के संसार को विद्यमान पाते हैं और यही इस संग्रह की विशेषता है।
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शीर्षक व्यंग्य ‘मूर्खता के महर्षि’ में यह जानकर वास्तव में एक परम आनंद की प्राप्ति होती है कि बॉस की नजरों में मूर्ख बनकर रहना ही श्रेयस्कर है। ‘लोकतंत्र की सेल’ शीर्षक पढ़कर ही मन मयूर नाच उठता है। ‘सेल’ लगी हो और उसकी गूंज ग्राहकों तक न पहुंचे, ऐसा कभी हुआ है भला। सबकुछ तो बिक रहा है इस लोकतंत्र में। ‘लोकतंत्र के लोकनंदन’ व्यंग्य के मूल भाव में यह पंक्तियां बहुत प्रभावित करती हैं, ‘कुंडली के अनुसार शिक्षा, न्याय, सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन जैसी संतानों के जन्म होने से पूर्व ही बार-बार गर्भपात होता रहेगा। योग्य चिकित्सक भी इसका कोई इलाज न ढूंढ पाएंगे। वोट देवी सदा के लिए सत्ता पटरानी की चेरी बनकर अपना जीवन यापन करती रहेगी।’ स्पष्ट है कि लोकतन्त्र सिर्फ नाम का है।
‘जनहित की ठकठक’ व्यंग्य में रोचकता भरपूर है, लेकिन जिन विसंगतियों का वर्णन है, वह हमारे समाज की ही कहानी है जिसमें हम सब भी शामिल हैं। सच है कि आजकल न जाने कितने लोग दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं लेकिन मुआवजे के चक्कर में उनका अंतिम संस्कार भी सही ढंग से नहीं हो पाता क्योंकि उस पर भी राजनीति होने लगती है। ‘बेईमानी का मौसम’ में मौसम विभाग की महिमा नहीं है बल्कि सत्ता के पल-पल परिवर्तित होने को मौसम की विभिन्न परिस्थितियों में ढाला गया है। मौसम बेईमान हो या न हो लेकिन उसे इस प्रकार रेखांकित किया जाता है कि बेईमानी खुद ही अपने पैर पसारने लगती है। ‘बहारों का मौसम’,‘इनकार का मौसम’,‘तकरार के मौसम, इजहार के मौसम’,‘पुरस्कार के मौसम,‘इकरार का मौसम’ में बेईमानी शामिल है। इसे कवितामय और साहित्यिक शब्दों की जोरदार जुगलबंदी से समझाया गया है।
क्या कोई गाय या गधा कहलाने वाला सरकारी नौकर आपने देखा है। निश्चित रूप से आपका जवाब नहीं होगा क्योंकि नौकरी में पदोन्नति और आय बढ़ाने के तरीकों पर थीसिस तक लिखी जाती है लेकिन ‘पानीदार बुद्धिजीवी’ एक ऐसा व्यक्तित्त्व है जिसके पास बुद्धि तो भरपूर है लेकिन वह इधर-उधर के प्रपंचों में न पड़कर सिर्फ अपने बॉस को खुश रखता है। पूरी नौकरी करने के बाद वह बहुत ही मासूमियत के साथ सेवानिवृत्त हो जाता है।
‘एक असाहित्यिक साक्षात्कार’ व्यंग्य में लेखक ने राजा साहब के साक्षात्कार पर शानदार तरीके से बात की है। साक्षात्कार वही सफल है जहां एक राजनीतिज्ञ से आप राजनीति के बारे में कोई भी सवाल मत पूछिए। इसी तरह से साहित्यकार के सामने गैर साहित्यिक प्रश्नों का तांता बांध दीजिए। कोई उनसे मन की बात कहना चाहे तो उसे दुतकारते हैं फिर भी चौबीसों घंटे भाषण के लिए तैयार रहते हैं और जनता सेवक कहलाते हैं।
‘कबीर मत आप ठगाइये’ व्यंग्य दर्शाता है कि कबीर हमारे समाज के सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं। यद्यपि उनकी अनेक साखियां हमारे ऊपर से निकल जाती हैं। ‘फिक्रनामा’ इस व्यंग्य संग्रह की एक अद्भुत रचना कही जा सकती है। ‘काम कर या न कर काम का फिक्र जरूर कर। फिक्र कर न कर फिक्र का जिक्र जरूर कर।’ हालांकि पुस्तक में कुछ स्थानों पर व्याकरण संबंधी अशुद्धियाँ हैं जो इसकी प्रूफ रीडिंग पर सवाल उठाती हैं फिर भी व्यंग्यकार रामकिशोर उपाध्याय का यह व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत में धूम मचाएगा।
पुस्तक: मूर्खता के महर्षि, लेखक : रामकिशोर उपाध्याय, प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी, मूल्य: 200 रुपये