लीजेंड्री बॉलीवुड एक्ट्रेस, टीवी होस्ट और प्रेजेंटर तबस्सुम जब भी सेल्यूलाइड या टीवी के स्क्रीन पर आती थीं, तो उन्हें देखकर सभी के चेहरों पर एक मुस्कराहट तैर जाती थी। लेकिन जब वो इस दुनिया से चोरी—छिपे गई, तो सभी को न सिर्फ हैरानी हुई, बल्कि उनका दिल उदास हो गया। वे इस बात से बेहद गमजदा हैं कि उन्हें अपनी पसंदीदा अदाकारा के इंतकाल की खबर उनकी मौत के एक दिन बाद मिल रही है। 18 नवंबर को तबस्सुम इस दुनिया से हमेशा—हमेशा के लिए जुदा हो गई। उनके बेटे होशांग गोविल ने मीडिया को यह जानकारी दी कि 18 नवंबर की शाम को उनकी मां ने आखिरी सांस ली। तबस्सुम की इच्छा थी कि उनके अंतिम संस्कार के बाद ही यह खबर लोगों को दी जाए। तबस्सुम ने इसी साल 9 जुलाई को अपना 78वां जन्मदिन मनाया था। उन्हें फिल्मों में काम करते हुए 75 तो टेलीविजन पर कार्यक्रम देते हुए 50 साल हो गए थे। बावजूद इसके तबस्सुम की चुलबुली आवाज जस की तस थी। जब भी टेलीविजन पर तबस्सुम को देखो, वे एक मोहक मुस्कान के साथ दिखाई देती थीं।
रेडियो पर जब उनकी खनकती हुई आवाज आती थी, तो माहौल खुशनुमा हो जाता था। गोया कि तबस्सुम की मौजूदगी एक जादू सा जगाती थी। उनकी शख़्सियत औरों से जुदा थी। उनके देश-दुनिया में लाखों चाहने वाले थे। तबस्सुम ने स्टेज कंपेयर के तौर पर भी काम किया। उन्होंने संचार और मनोरंजन के सभी माध्यमों यानी फिल्म, टीवी, रेडियो और वेब में काम किया। सभी में एक समान कामयाब रहीं। वे मनोरंजन के जिस मीडियम में उतरीं, कामयाबी ने उनके कदम चूमें।
यूट्यूब पर आज भी उनके पुराने प्रोग्राम उनके चाहने वालों को सुकून पहुंचाते हैं। एक दौर था, जब तबस्सुम अपने पूरे शबाब और जलाल के साथ पर्दे पर नमूदार होती थीं। उनके आते ही सामने वालों की छुट्टी हो जाती थी। वे गजब की हाजिर-जवाब थीं। फिल्मी दुनिया के बारे में उनके पास जानकारियों का अंबार था। एक जमाना था जब रेडियो सीलोन पर अमीन सायानी और तबस्सुम जैसे एनाउंसरों को सुनना, एक अलग ही नशा पैदा करता था।
9 जुलाई, 1944 को मुंबई में पैदा हुईं तबस्सुम के वालिद अयोध्यानाथ सचदेव, एक फ्रीडम फाइटर थे, वहीं उनकी वालिदा असगरी बेगम लेखक और पत्रकार थीं। उनके वालिद ने अपनी शरीक-ए-हयात के मजहबी जज्बात को खयाल में रखते हुए अपनी बेटी का नाम तबस्सुम रखा। जबकि उनकी मां ने किरण बाला। उनका पूरा नाम किरण बाला सचदेव था, लेकिन वे तबस्सुम के नाम से ही जानी गईं।
उन्होंने वाकई अपने नाम को चरितार्थ किया था। तबस्सुम का नाम आते ही जेहन में उनकी एक सौम्य और मुस्कराती हुई तस्वीर आ जाती थी। अलबत्ता यह बात अलग है कि वे खुलकर हंसती थीं और उसमें आवाज भी होती थी। उनकी मुस्कराहट और हंसी संक्रामक थी। जो सामने वाले को भी मुस्कराने पर मजबूर कर देती थी। मुंबई में वे पली-बढ़ीं और यहीं उनकी तालीम मुकम्मल हुई।
तबस्सुम जब महज तीन साल की थीं, तभी उन्हें फिल्म में काम करने का मौका मिल गया। साल 1947 में ‘मेरा सुहाग’ से बाल कलाकार के तौर पर उनका फिल्मों में आगाज हुआ। स्क्रीन पर उनका नाम बेबी तबस्सुम था। फिल्म में उन्होंने एक्ट्रेस नरगिस के बचपन का रोल अदा किया था। इस फिल्म के बाद नरगिस के साथ उन्होंने और भी काम किया। फिल्म ‘मझधार’ (1947) ‘बड़ी बहन’ (स्1949) और ‘दीदार’ (1951) में तबस्सुम ने नरगिस के बचपन का रोल निभाया। नितिन बोस द्वारा निर्देशित ‘दीदार’ में परीक्षित साहनी और उन पर फिल्माया गया गाना, ‘बचपन के दिन भुला न देना, आज हंसे कल रुला न देना’ खूब मकबूल हुआ।
लता मंगेशकर और शमशाद बेगम की आवाज में यह गाना, हिंदी फिल्मों का अमर गीत बन गया। तबस्सुम, विजय भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बैजू बावरा’ (1952) में भी थीं। इसमें उन्होंने फिल्म की नायिका मीना कुमारी के बचपन का रोल किया था। फिर उनकी जॉय मुखर्जी और आशा पारेख अभिनीत ‘फिर वही दिल लाया हूं’ को कौन भूल सकता है? इस फिल्म में उन्होंने ‘अजी किबला मोहतरमा’ गाने में शानदार अदाकारी की थी। इन फिल्मों के अलावा ‘कॉलेज गर्ल’, ‘मुगल-ए-आजम’, ‘बचपन’, ‘गैम्बलर’ और ‘तेरे मेरे सपने’ में भी उनके अहम रोल थे।
बीच के दौर में रेडियो, स्टेज शो और टेलीविजन में मसरूफियत की वजह से तबस्सुम फिल्मों से दूर हो गईं। एक लंबे अरसे के बाद वे फिर फिल्मों में लौटीं और उन्होंने चरित्र अभिनेत्री के तौर पर ‘चमेली की शादी’, ‘स्वर्ग’ जैसी फिल्मों में अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया। बीसवीं सदी के सातवें दशक में जब मुंबई में दूरदर्शन की इब्तिदा ही हुई थी, तबस्सुम तब से ही टीवी इंडस्ट्री का हिस्सा हो गईं थीं। दूरदर्शन केंद्र मुंबई द्वारा निर्मित ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ देश में टीवी का पहला टॉक शो था। जिसमें तबस्सुम फिल्मी हस्तियों और टेलिविजन हीरो-हीरोइन का इंटरव्यू लिया करती थीं। वे बड़े ही शाइस्तगी से अपने चुलबुले सवालों से अच्छे-अच्छे अदाकारों को लाजवाब कर देती थीं।
शो में खास तौर पर उनकी हिंदुस्तानी जबान और हिंदी—उर्दू लफ़्जों का साफ तलफ़्फुज लोगों को बहुत पसंद आता था। जाहिर है कि यह प्रोग्राम बेहद लोकप्रिय हुआ। प्रोग्राम की मकबूलियत का ही नतीजा था कि यह साल 1972 से लेकर 1993 तक दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ। तबस्सुम ने मनोरंजन के सभी माध्यमों में काम किया। जब भी कोई नया माध्यम आया, उन्होंने इसका सही इस्तेमाल किया। मनोरंजन की दुनिया में तबस्सुम ने जो मुकाम हासिल किया, वह बहुत कम लोगों को मयस्सर होता है।