Thursday, July 10, 2025
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मंडराने लगे हैं सत्तारूढ़ भाजपा पर संकट के बादल

पंचायत चूुनावों में खराब प्रदर्शन से बदलाव के संकेत साफ

सपा के साथ ही कांग्रेस महासचिव ने भी बढ़ा दी है चिंता


अवनीन्द्र कमल |

सहारनपुर: राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले किसी शख्स से अगर पूछा जाए कि उत्तर प्रदेश की सियासत का स्थाई भाव क्या है? जवाब होगा परिवर्तन अथवा बदलाव। पिछले करीब 25 साल से भी ज्यादा समय से सूबे के मतदाताओं ने सत्ता की चाबी लगातार दो बार किसी भी दल और उसके दिग्गज को नहीं सौंपी।

इस बात के साक्षी हैंं पिछले तीन बार के विधान सभा चुनाव। पूर्ण बहुमत पाकर 2007-08 में बसपा सुप्रीमो मायावती, फिर संपूर्ण बहुमत के साथ सन् 2012 में सपा के अखिलेश यादव और प्रचंड बहुमत से सन 2017 में भाजपा के योगी आदित्यनाथ सूबे के सुल्तान बने। लेकिन, इनमें से लगातार दूसरी बार किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। याने कि हर बार बदलाव। इसके संकेत इस बार भी हैं।

पंचायत चुनावों में भाजपा का पराक्रम वैसा नहीं दिखा, जैसा कि उसके कारकुनों को उम्मीद थी। इसलिए सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी के बड़े-बड़े पहरुओं की चिंता बढ़ गई है।

बताने की जरूरत नहीं कि प्रदेश के विधान सभा चुनाव में ज्यादा नहीं यही कोई आठ महीने शेष हैं। ऐसे में मुख्य विपक्षी दलों ने तेवर तल्ख कर लिए हैं और सत्तानशीं योगी सरकार पर हमलावर हैं। इस संदर्भ अगर बात करें पंचायत चुनावों की तो भाजपा को बड़ा झटका लगा है।

परिणाम आशा के विपरीत रहे। रही, सही कसर निकाल ली है कोरोना की दूसरी लहर ने। गांवों में भाजपा सरकार की खूब किरकिरी हो रही है।

दरअसल, दूसरी लहर बेकाबू हुई और सरकारी सिस्टम धड़ाम हो गया। ऐसे में सरकार की फजीहत तो होनी ही थी। खैर, अब पंचायत चुनावों पर आते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की राय में पंचायत चुनाव, विस चुनाव का सेमीफाइनल था। लेकिन, धूम-धड़ाके और पूरे ताम-झाम और इंतजाम के साथ मैदान में उतरी भाजपा को कई अहम जगहों पर मुंह की खानी पड़ी। अयोध्या, मथुरा और काशी में इस दल की दुर्गति हुई। अयोध्या और काशी में क्रमश: सपा तो मथुरा में बसपा नंबर वन पर रही।

पश्चिम में रालोद ने भाजपा की कई जगहों पर हवा बिगाड़ दी। जानकारों का कहना है कि भाजपा की इस हार के पीछे कार्यकर्ताओं-पदाधिकारियों की उपेक्षा रही। मंत्रियों-सांसद और विधायकों के परिजनों को टिकट मिला नहीं, लिहाजा वह चुनाव प्रचार से दूरी बनाए रखे। पार्टी की अंदरूनी कलह भी बड़ी वजह रही। पश्चिम में गन्ना किसानों का रुका भुगतान और कृषि कानूनों को लेकर बड़ी नाराजगी ने भाजपा का बे़ड़ा गर्क किया।

कोरोना की संकट घड़ी में सरकार का सारा सिस्टम उल्टा पड़ा रहा। लोग आक्सीज के बिना मर गए। अस्पातलों में बेड नहीं मिले। चारों ओर सरकार पर विपक्षी इसीलिए हमलावर हैं। अब आगे की पतली हालत को भांपकर भाजपा भले ही भौकाल खड़ा करने की सोच रही है किंतु पनघट की डगर उसके लिए आसान नहीं होगी।

सत्ताविरोधी लहरों पर तैरने के लिए सपा-रालोद के अलावा बसपा, कांग्रेस और अन्य छोटे दल भी तैयार बैठे हैं। सपा ही नहीं, कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी ने भी भाजपा की पेशानी पर बल ला दिया है। दरअस्ल, प्रियंका गांधी ने गत 26 मई से सेवा सत्याग्रह कार्यक्रम शुरू किया है। इसके तहत होम आइसोलेशन में रहने वाले मरीजों को कांग्रेस दवाएं उपलब्ध करा रही है। मरीजों के लिए ये दवाएं भले कारगर हो जाएं पर भाजपा के गले में अटकने लग गई हैं।

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