बीती 9 जुलाई को जापान में एशिया प्रशांत सप्ताह का समापन इस संदेश के साथ हुआ कि जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान की दिशा में आगामी नवम्बर 2021 में ग्लासगो में आहुत संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में किए जाने वाले क्षेत्रीय प्रयास सफलता में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। यही नहीं आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि मानव गतिविधियां, पूर्व औद्यौगिक स्तर से वर्तमान में 1.0 डिग्री ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने का प्रमुख कारण रही है। यदि यह इसी दर से बढ़ती रही तो 2030 से 2052 तक के बीच यह 1.5 डिग्री हो जाएगी। इसके चलते भूमि और महासागरों के औसत तापमान में बढ़ोतरी होगी। कई क्षेत्रों में भारी वर्षा होगी, भयंकर सूखे के हालात पैदा होंगे, समुद्री जलस्तर बढेगा, इसमें तटीय समुद्री द्वीप व निचले तटीय देश सर्वाधिक प्रभावित होंगे और डेल्टाई क्षेत्र डूबने के कगार पर पहुंच जाएंगे। जैव विविधता। की हानि होगी, जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित होगी, प्रजातियों की विलुप्ति की दर में और समुद्री जल में अम्लता की दर में तेजी से बढ़ोतरी होगी। आर्कटिक की बर्फ पिघलने की दर तेजी से बढ़ेगी और मत्स्य पालन में भारी नुकसान होने की आशंका बलवती होगी।
असलियत में यह रिपोर्ट कृषि अपशिष्ट, कोयला खनन, मीथेन पर एक नए विज्ञान को समझने की बेहद जरूरत का खुलासा करती है। जिसे अभीतक लगभग एक चौथाई वैश्विक तापमान के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद नीति निर्माताओं ने बड़े पेमाने पर नजरंदाज कर दिया गया है।
सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक तापमान वृद्धि से लंबे समय से बचने का एक तरीका नवीकरणीय ऊर्जा की ओर जाना है। यह कटु सत्य है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का आधे से अधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इसे यदि वैश्विक आबादी के स्तर पर देखें तो यह वैश्विक आबादी के एक महत्वपूर्ण अनुपात के साथ दुनिया के सबसे अधिक तेजी से विकासशील क्षेत्रों में से यह एक है।
गौरतलब यह है कि इसी क्षेत्र में ऐसे बहुतेरे ऐसे छोटे-छोटे द्वीप हैं जिनका अस्तित्व ही आज समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी के चलते खतरे में है।
आज जलवायु परिवर्तन दुष्प्रभाव को समूची दुनिया के लिए भीषण समस्या है। दरअसल जलवायु परिवर्तन आज एक ऐसी अनसुलझी पहेली है, जिससे हमारा देश ही नहीं, समूची दुनिया जूझ रही है। जलवायु परिवर्तन और इससे पारिस्थितिकी में आए बदलाव के चलते जो अप्रत्याशित घटनाएं सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए इस बात की प्रबल आशंका है कि इस सदी के अंत तक धरती का काफी हद तक स्वरूप ही बदल जाएगा।
इस विनाश के लिए जल, जंगल और जमीन का अति दोहन जिम्मेदार है। बढ़ते तापमान ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। वैश्विक तापमान में यदि इसी तर बढ़ोतरी जारी रही तो इस बात की चेतावनी तो दुनिया के शोध अध्ययन बहुत पहले ही दे चुके हैं कि आने वाले समय में दुनिया में 2005 में दक्षिण अमेरिका में तबाही मचाने वाले आए कैटरीना नायक तूफान से भी भयानक तूफान आएंगे।
सूखा और बाढ़ जैसी घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि होगी। जहां तक तूफानों का सवाल है, समुद्र के तापमान में वृद्धि होने से स्वाभाविक तौरपर तूफान भयंकर हो उठते हैं। क्योंकि वह गर्म समुद्र की ऊर्जा को साथ ले लेते हैं। इससे भारी वर्षा होती है। कारण वैश्विक ताप के कारण हवा में जल वाष्प बन जाता है।
तापमान में बढ़ोतरी की रफ्तार इसी गति से जारी रही तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। परिणामत: दुनिया का बीस-तीस फीसदी हिस्सा सूखे का शिकार होगा। इससे दुनिया के 150 करोड़ लोग सीधे प्रभावित होंगे। इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन, और पेयजल पर पड़ेगा।
नतीजतन आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा। इसके चलते अधिसंख्य आबादी वाले इलाके खाद्यान्न की समस्या के चलते खाली हो जाएंगे और बहुसंख्यक आबादी ठंडे प्रदेशों की ओर कूच करने को बाध्य होगी। जिस तेजी से जमीन अपने गुण खोती चली जा रही है, उसे देखते हुए अनुपजाऊ जमीन ढाई गुणा से भी अधिक बढ़ जाएगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसी स्थिति में जल संकट बढ़ेगा, उस स्थिति में और जबकि इक्कीस करोड़ लोगों ने जल संकट के चलते विस्थापन का दंश झेला हो। बीमारियां बढ़ेंगी, खाद्यान्न उत्पादन में कमी आएगी, ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, नतीजतन दुनिया के कई देश पानी में डूब जाएंगे। समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ेगा और समुद्र किनारे के सैकड़ों की तादाद में बसे नगर-महानगर जलमग्न तो होंगे ही, तकरीब बीस लाख से ज्यादा की तादाद में प्रजातियां सदा के लिए खत्म हो जाएंगी।
जीवन के आधार रहे खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व कम हो जाएंगे। कहने का तात्पर्य यह कि उनका स्वाद ही खत्म हो जाएगा। खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले विटामिन्स की कमी इसका जीता जागता सबूत है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि और उससे उपजी जलवायु परिवर्तन की ही समस्या का परिणाम है कि आर्कटिक महासागर की बर्फ हर दशक में तेरह फीसदी की दर से पिघल रही है, जो अब केवल 3.4 मीटर की ही परत बची है, यदि वह भी खत्म हो गई तब क्या होगा?
समस्या यह है कि हम अपने सामने के खतरे को जानबूझ कर नजरअंदाज करते जा रहे हैं, जबकि हम भलीभांति जानते हैं कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा? यह भी कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण मौसम के रौद्र रूप ने पूरी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है।
तकरीबन डेढ़ लाख से ज्यादा लोग दुनिया में समय से पहले बाढ़, तूफान और प्रदूषण के चलते मौत के मुंह में चले जाते हैं। बीमारियों से होने वाली मौतों का आंकड़ा भी हर साल ढाई लाख से भी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। कारण जलवायु परिवर्तन से मनुष्य को उसके अनुरूप ढालने की क्षमता को हम काफी पीछे छोड़ चुके हैं।
महासागरों का तापमान उच्चतम स्तर पर है। 150 साल पहले की तुलना में समुद्र अब एक चौथाई अम्लीय है। इससे समुद्री पारिस्थितिकी जिस पर अरबों लोग निर्भर हैं, पर भीषण खतरा पैदा हो गया है। दर असल इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकारों का इस ओर किसी किस्म का सोच ही नहीं है।
वह विकास को पर्यावरण का आधार बनाना ही नहीं चाहतीं। वर्तमान में यह दुर्दशा प्रकृति और मानव के विलगाव की ही परिणति है। निष्कर्ष यह कि जब तक जल, जंगल और जमीन के अति दोहन पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक जलवायु परिवर्तन से उपजी चुनौतियां बढ़ती ही चली जाएंगी और उस दशा में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रहेगा।