भारत सदियों से अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए पहचाना जाता है। हमारे देश में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की परम्परा रही है। यहां तक कि सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को सुदृढ और संपन्न बनाएं रखने में भी हम अव्वल रहे, लेकिन पश्चिमी संस्कृति के मोहपाश और उदारीकरण की नीतियों को अंगीकार करने के बाद से हमारे समाज में परिवार की सिर्फ परिभाषा नहीं बदली है, बल्कि परिवार तक बिखरने लगें हैं। अब संयुक्त परिवार तो छोड़िए पति पत्नी के रिश्तों में भी छोटी छोटी बातों को लेकर दरारें आने लगी है। जिस भारतीय समाज को उसकी संयुक्त परिवार प्रणाली द्वारा परिभाषित किया जाता था और वो प्रणाली पूरे विश्व में अद्वितीय थी। आधुनिक समय में इसका स्थान एकल परिवार प्रणाली ने ले लिया है। व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का चलन हावी हो गया है। जिसकी वजह से हमारे समाज में अनेक प्रकार की कुरीतियों का प्रवेश हो गया है। उसी में से एक तलाक है। प्यार दुनिया का एक खूबसूरत एहसास है और जब हम किसी इंसान को दिल से चाहते हैं, तो उसे अपना सब कुछ मान बैठते हैं। उसके साथ जिंदगी जीने की कसमों और वादों के साथ रिश्तों को एक नए धागे में पिरोने लगते हैं, लेकिन बढ़ते अधिकारों की मांग और परिस्थितियां कई बार ऐसी बन जाती हैं। जिससे रिश्ता खत्म होने की कगार पर आ जाता है और फिर तलाक लेना ही आखिरी विकल्प शेष बचता है। अमूमन भारतीय समाज में तलाकप्रथा और तलाकशुदा स्त्री-पुरुष को हीन भावना से देखा जाता था, लेकिन टीवी की स्क्रीन से इसे ग्लैमराइज्ड और व्यक्तिगत आजादी से जोड़ दिया। जिसकी वजह से कलंक समझी जाने वाली प्रवृति में कमी आई और यही वजह है कि भारत जैसे देश में भी तेजी के साथ तलाक के मामले बढ़ रहे हैं।
वैश्विक परिदृश्य पर भी तलाक को लेकर स्थिति ठीक नहीं। विडंबना देखिए कि जिन पुर्तगाली महिलाओं को बाकी यूरोपीय देशों के मुकाबले सबसे ज्यादा महिला अधिकार मिले हैं। वही आज देश दुनिया में सबसे ज्यादा तलाक लेने वाले देशों में अव्वल नम्बर पर है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या महिला अधिकार और सशक्तिकरण की मांग भी तलाक के बढ़ते मामलों को प्रभावित करता है? नि:सन्देह बढ़ते अधिकार और सशक्तिकरण ने इसमें योगदान दिया है, लेकिन बात सिर्फ इसी के इर्दगिर्द नहीं कही जा सकती। ऐसे अन्य कई कारण हैं। जिसकी वजह से भी तलाक के मामलों में बढ़ोतरी को प्रोत्साहित करते हैं। जिसमें ‘समझौता’ नामक शब्द को शादीशुदा जिंदगी में नकारात्मक साबित करना और परिवारिक संरचना नाटकीय परिवर्तन आदि शामिल है। एक शोध के अनुसार, पुर्तगाल में 10 में से 8 जोड़ों का तलाक होता है। पुर्तगाल में तलाकशुदा महिला और पुरुष को तिरस्कार की नजर से नहीं देखा जाता। यही वजह है कि 87 प्रतिशत महिलाएं सिंगल पेरेंट हैं। जबकि फिलीपींस दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां पर तलाक का कोई प्रावधान नहीं है। यहां ‘तलाकशुदा’ होना एक अपमान की बात मानी जाती है।
ऐसे में कहीं न कहीं कहने को तो आज हमारे समाज में महिलाओं के अधिकार बढ़ गए हैं। लेकिन दूसरी तरफ बढ़ते तलाक के मामले चिंता का विषय बनते जा रहे है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भी तेजी से तलाक की दर बढ़ रही है। देश की राजधानी दिल्ली में हर साल 8 से 9 हजार तलाक के मामले आते हैं। जबकि महाराष्ट्र सबसे ज्यादा तलाक लेने वाले राज्यों में शीर्ष पर है। यहां डिवोर्स रेट तकरीबन 18.7 प्रतिशत है। साल 2021 में देश की परिवार अदालतों में तलाक के करीब 5 लाख मामले थे जबकि साल 2023 में तलाक के 8 लाख मामले रजिस्टर हुए। भारत जैसे देश में तलाक के बढ़ते मामले चिंता का विषय बनते जा रहे हैं। बढ़ते तलाक के पीछे की बड़ी वजह भी बढ़ती जागरूकता, मोबाइल इंटरनेट का बढ़ता इस्तेमाल, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, घटती निर्भरता, महिला सशक्तिकरण, मतभेद, वैचारिक तालमेल का न मिलना, कानून का दुरुपयोग, शिक्षा, नपुंसकता और बांझपन है। एक तरफ जहां आधुनिक होते समाज में हमारी परम्परागत विवाह पद्धति को ध्वस्त करने का काम किया गया है। वहीं आज भले ही महिलाएं शिक्षित और आत्मनिर्भर हो रही है लेकिन अपनी भौतिक सुख सुविधाओं की पूर्ति के लिए पुरुषों से ही अपेक्षा करती है। जब उनकी भौतिक लालसाएं पूरी नहीं हो पाती है तो तलाक की स्थिति निर्मित हो जाती है।
भारतीय समाज भले ही पुरुष प्रधान क्यों न हो लेकिन आज भी जब कभी तलाक की बात आती है तो पुरुषों को दोषी माना जाता है। जबकि अधिकतर मामलों में महिलाएं अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल कर रही हैं। आज जिस गति से हमारा समाज उन्नति कर रहा है, उसी गति से संबंध पीछे छूटते जा रहे हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं की बढ़ती इच्छाओं के कारण संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। आज समाज में पुरुषों के दर्द को सुनने वाला कोई नहीं है। जबकि महिलाओं के पास पुरुषों की तुलना में अधिक करीबी दोस्त होते हैं जिनसे वह अपना दुख दर्द बांट सकती हैं। तलाक के दर्द की पीड़ा पुरुषों के हिस्से भी कम नहीं आती। यहां तक कि हमारी अदालतें भी महिलाओं के पक्ष में ही निर्णय सुनाती है। बच्चों के मानसिक अवसाद में जाने के पीछे की वजह भी कहीं न कहीं बिखरते परिवार परिपाटी ही है। ऐसे में हमें अपने विचारों और संस्कारों को पुन: परिष्कृत करने की आवश्यकता है और हमें समझना होगा कि हमारी संयुक्त परिवार की प्रणाली ही बेहतर थी, क्योंकि उसमें बड़े-बुजुर्गों का अनुभव और सीख शामिल होती है। जो एक नव दम्पति और उसके बच्चे दोनों के लिए किसी औषधि से कम नहीं।