Sunday, July 7, 2024
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मोहताजी से चुकाई ईमानदारी की कीमत

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krishan partap singhसादा जीवन उच्च विचार की राह अब हमारे देश के नेताओं में शायद ही किसी को सुहाती हो। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। नवस्वतंत्र देश में स्वतंत्रता संघर्ष की आंच से तपकर निकले अनेक ऐसे नेता थे, जो निजी सुखों और वैभवों से सायास परहेज बरतकर इस राह पर चलते थे। इनमें महात्मा गांधी के बाद की पीढ़ी के दो नामचीन नेताओं लालबहादुर शास्त्री(2 अक्टूबर, 1904-11 जनवरी, 1966) व गुलजारीलाल नन्दा (4 जुलाई, 1898-15 जनवरी, 1998) ने तो अपने तर्इं, अपने जीवन को मिसाल बनाकर, इस राह के प्राय: सारे उदात्त मूल्यों को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की भरपूर कोशिशें कीं। उनकी ईमानदार देशसेवा ने उन्हें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया, जहां, और तो और, दो-दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री रह चुकने का भी उनके निकट एक ही हासिल था-मोहताजी यानी आर्थिक बदहाली, जिसके चलते राजनीति से अवकाश लेने के बाद वे एक अदद घर तक से महरूम रहे। विडम्बना देखिए आज इंदौर में उनके नाम पर नन्दानगर नाम से पूरी की पूरी कालोनी बसी है, लेकिन उस वक्त उनका ऐसे हालात से सामना था कि राजधानी दिल्ली के जिस घर में रहते थे, उसका किराया तक नहीं दे पाते थे और उसका मालिक बार-बार उन्हें निकाल देने की धमकी देता था। एक बार तो उसने इस धमकी पर अमल भी कर डाला था। इसके बावजूद उन्हें अपनी संतानों या परिजनों को अपने राजनीतिक प्रभाव या विरासत का तनिक भी लाभ उठाने देना गवारा नहीं था। राजनीति में उनकी लांचिंग की सीढ़ी बनना भी नहीं। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें स्वीकृत 500 रुपये की सरकारी पेंशन लेने से भी यह कहकर मना कर दिया था कि उन्होंने आजादी की लड़ाई पेंशन के लिए थोड़े ही लड़ी थी।

खुद्दार तो वे इतने थे कि उन्हें अपनी संतानों, परिजनों व शुभचिंतकों से किसी भी रूप में आर्थिक सहायता लेना गंवारा नहीं था। सरकार द्वारा घर देने के प्रस्ताव को भी उन्होंने ठुकरा दिया था और जब उनके पास अपना घर तक नहीं था तो कार या कोई और वाहन होने का सवाल ही नहीं था। इसलिए राजधानी दिल्ली में वे प्राय: बसों से आते-जाते दिखाई देते थे। बाद में उनकी अहमदाबादवासी बेटी से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई तो वह उन्हें किसी तरह समझा-बुझाकर अपने साथ ले गई। 1998 में 15 जनवरी को अपने सौवें जन्मदिन से कुछ महीनों पहले उन्होंने वहीं अंतिम सांस ली। निधन से कोई साल भर पहले 1997 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया, जबकि ‘पद्मविभूषण’ से पहले से विभूषित किया जा चुका था।

अपने मंत्रीकाल में वे भ्रष्टाचार को लेकर इतने असहिष्णु थे कि भ्रष्टाचारी कितना भी प्रभावशाली या ‘अपना’ क्यों न हो, उसे बख्शते नहीं थे। एक बार इसी के चलते उन्हें अपना मंत्री पद भी गंवा देना पड़ा था। उनकी बाबत यह जानना भी दिलचस्प है कि वे जितने बड़े राजनेता, उतने ही अच्छे अर्थशास्त्र के जानकार व लेखक भी थे। उन्होंने कई किताबें तो लिखी ही हैं, श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा और 1947 में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

1898 में चार जुलाई को अविभाजित भारत के सियालकोट स्थित गुजरांवाला के बडोकी गोसार्इं कस्बे में एक पंजाबी हिंदू खत्री परिवार में जन्मे नंदा ने सियालकोट व लाहौर में शुरुआती शिक्षा के बाद आगरा व इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से अर्थशास्त्र व कानून की पढ़ाई की थी और बम्बई में अध्यापन करने लगे थे। 1921 में वहीं उनकी महात्मा गांधी से भेंट हुई तो उनके प्रस्ताव पर वे गुजरात में आ बसे थे। कई दूसरे आन्दोलनों में सक्रिय रहने के बाद उन्होंने 1932 के राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेकर जेल यात्राएं की थीं। तत्कालीन बंबई राज्य की विधानसभा के सदस्य और श्रम व आवास मंत्री के रूप में प्रदर्शित उनकी प्रतिभा से प्रेरित कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी सेवाओं से सारे देश को लाभान्वित करने के लिए उन्हें दिल्ली बुलाकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष का पदभार सौंपा तो उन्होंने देश के नवनिर्माण के लिए प्रस्तावित पंचवर्षीय योजनाओं के स्वरूप निर्धारण में निर्णायक योगदान दिया था।

तदुपरांत समय के साथ वे पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में गृह समेत कई महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने और पं. नेहरू व शास्त्री के निधन पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री के दायित्वों का निर्वहन किया। पहली बार वे 27 मई, 1964 से 9 जून, 1964 तक कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे और दूसरी बार 11 जनवरी, 1966 से 24 जनवरी, 1966 तक। प्रसंगवश, नेहरू के निधन के वक्त उनके ‘नम्बर दो’ होने के कारण प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी लालबहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई से ज्यादा सशक्त थी। इसके बावजूद वे सत्ता-संघर्ष से सर्वथा अलग रहे। 1965 में शास्त्री के निधन के बाद भी उन्होंने प्रधानमंत्री पद का लोभ नहीं किया। हालांकि उनके कई मित्र चाहते थे कि इस बार वे उससे चूकें नहीं। अलबत्ता, पहले से लेकर पांचवें आम चुनाव तक वे अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों से लोकसभा के सदस्य निर्वाचित होते रहे।

वे खुद को महात्मा गांधी जैसा सर्वधर्मसमभाव का आकांक्षी हिंदू बताते थे और गोरक्षा के प्रबल समर्थक थे। 07 नवम्बर, 1966 को गोरक्षा महाअभियान समिति के बैनर पर गोहत्या के विरोध में साधुओं के संसद घेराव के वक्त पुलिस फायरिंग से आठ जानें चली गर्इं, तो संभवत: इसी के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्थिति से ठीक से न निपटने को लेकर उन्हें गृहमंत्री पद से बर्खास्त करा दिया था।


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