जैक लण्डन ने एक बार कहा था, मुट्ठी भर औसत साहित्य में इतनी क्षमता होती है कि वह विश्व के सारे महान साहित्य को ढंक सकता है। क्या हिन्दी साहित्य में वही समय चल रहा है? यह प्रश्न तब-तब सिर उठाता है, जब-जब अच्छी कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। लगता है इन कहानियों पर चर्चा क्यों नहीं हुई, क्यों नहीं होती? क्यों आलोचकों की निगाहों से ये कहानियां छूट जाती हैं (या जान-बूझकर छोड़ दी जाती हैं)? महावीर राजी की कहानियां पढ़ते हुए यह प्रश्न तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। महावीर राजी का साहित्यिक जीवन 1990 के आसपास शुरू हुआ। यही वह समय था जब देश में आर्थिक उदारीकरण, वैश्विकरण की खिड़कियां खुलीं। बाजार ने घरों में कदम रखा और ड्राइंगरूम तक फैल गया।
दुर्भाग्य से मैंने इससे पहले महावीर राजी की कोई कहानी नहीं पढ़ी थी। उनके संग्रह ‘आॅपरेशन ब्लैकहोल’ (वाणी प्रकाशन) को पढ़ते हुए मुझे बेहद अफसोस हुआ कि मैंने राजी को अब तक क्यों नहीं पढ़ा। हालांकि इससे पहले भी उनका एक संग्रह ‘बीज और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो चुका है। उन्हें ‘सूखा’ कहानी के लिए ‘कृष्ण प्रताप स्मृति सम्मान’ भी मिल चुका है। लेकिन वह इन सबसे निरपेक्ष दिखाई पड़ते हैं।
संग्रह की सभी दस कहानियां पढ़ने के बाद लगा कि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है, बिंबों से गुंथी मुहारेदार भाषा और शानदार शिल्प है। वह अपनी कहानियों में दलितों, पिछड़ों, कमजोर वर्गों और हाशिये पर जी रहे लोगों के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते हैं। उनकी कहानियां शोषितों की आवाज जान पड़ती हैं। उनकी कहानियों में बाजार और ब्रांड्स का विरोध है, मीडिया की टीआरपी के लिए खतरनाक लड़ाई है, दलितों के घर नेताओं के खाने पर जाने का ढोंग है, बंधुआ मजदूरी का क्रूरतम रूप है और सर्व शिक्षा जैसे अभियानों पर करारी चोट है। उनकी कहानियों में भूमंड़लीकरण और नये-नये प्रोडक्ट्स के विरोध के स्वर भी सुनाई पड़ते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि राजी के यहां किसी किस्म का आडंबर नहीं है। सबकुछ वह बेहद सहज तरीके से कहते हैं।
संग्रह की ‘सूखा’ कहानी पढ़ते हुए अनायास ही निर्मल वर्मा की कहानी ‘सूखा’ याद आ गई। निर्मल जहां बाहरी सूखे के साथ मन के सूखे का चित्रण करते हैं, वहीं राजी की कहानी ठोस जमीन पर खड़ी कहानी है। निर्मल के यहां भाषा का वैभव है, तो राजी अपनी कहानी में बंधुआ बनाने वाले सिंह परिवार के अत्याचारों को दर्ज करते हैं। बारिश न पड़ने से पैदा होने वाला सूखा हो या ठाकुर के वंशज पैदा न होने की वजह से पैदा होने वाला सूखा हो, दोनों ही स्थितियों में गाज गैर सवर्णों पर गिरती है।
पहले सूखे की स्थिति में पंडित को बुलाकर उसका उपाय पूछा जाता है। उपाय है किसी बारह बरस की सुन्दर छोकरी निर्वस्त्र गांव की परिक्रमा करे। इस काम के लिए सवर्णों की लड़की को नहीं, बल्कि हरिजन टोली की लड़की को चुना जाता है। जाहिर है सवर्णों की लड़की का चुनाव ‘षड्यंत्र’ के तहत नहीं किया जाता। कहानी अनेक स्तरों पर आगे बढ़ती है और अंत में बाबू साहब के बेटे की बहू के बच्चा होने के लिए हरिजन के बेटे की बहू का गर्भ कोठी पर जबरदस्ती गिरवाया जाता है। यह एक बेहतरीन कहानी है।
महावीर राजी अकारण कहानियां नहीं लिखते, बल्कि जब उन्हें समाज में होने वाला अत्याचार-अनाचार दिखाई पड़ता है तो वह कलम उठाते हैं। शीर्षक कहानी ‘ब्लैक होल’ में राजी दिखाते हैं कि किस तरह मीड़िया बोरवेल में गिर गए एक पांच साल के बच्चे की खबर को मुनाफे के लिए बेचता है। राजी एक जगह लिखते हैं, ‘ये साधारण बोरवेल या गड्ढे नहीं हैं।
वैश्वीकरण के मानसपुत्र पूंजीवाद द्वारा ब्रह्माण्ड के ‘ब्लैक होल्स’ के तर्ज़ पर ही बनाए गए वैसे ही पावरफुल ब्लैकहोल्स हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण भी उन ब्लैक होल्स जैसा ही दुर्दान्त शक्तिशाली है। इस कदर शक्तिशाली कि देश की जल, जंगल, जमीन, जैसी प्राकृतिक संपदा: कोयला, लोहा, बाक्साइट, तेल जैसे दुर्लभ खनिज: खेत खलिहान, उद्योग, सब कुछ बूंद-बूंद इनके अतल गर्भ में समा जाएगा।’ यह कहानी राजी के गंभीर सरोकारों और प्रतिबद्धताओं को दिखाती है।
राजी अपनी कहानियों में एक तरफ वैश्वीकरण और पूंजीवाद का विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ ‘कद’ कहानी में इंसान के हर रूप को बेचने की प्रवृत्ति का घोर विरोध करते हैं। गुलीवर नाम के एक बच्चे का कद और शरीर बेडौल है। परिणास्वरूप मांबाप निरंतर उसकी उपेक्षा करते हैं। मांबाप दूसरे बेटे को अफसर बनाने के लिए सारी जद्दोजहद करते रहते हैं। गुलीवर सर्कस में पहुंच जाता है और काफी पैसे कमाने लगता है।
राजी इस कहानी में दिखाते हैं कि किस तरह बाजार आपके बेडौल शरीर और आकार को भी एक ब्रांड में बदलकर बेचता है-बेच रहा है। बाजार के ही दबावों पर उनकी एक अन्य कहानी है ‘दूसरा वामन अवतार’। कहानी का ‘नायक’ करोड़ी गांव में खेल- तमाशे दिखाकर अपना घर खर्च चलाता है। उसकी बेटी गांगली सिर पर कई मटके रखकर रस्सी पर चलती है और दर्शक पैसे फैंकते हैं।
लेकिन गांव में भी बाजार फैल रहा है। बाजार का दबाव ही करोड़ी को यह सपना दिखाता है कि वह बेटे को पढ़ा-लिखाकर अफसर बना सकता है। वह अपने तमाशों की संख्या बढ़ा देता है। ताकि बेटे को अफसर बनाया जा सके। एक दिन वह देखता है कि उसकी बेटी गांगली बड़ी लगने लगी है। उसे चिंता सवार होती है कि अगर यह बड़ी हो गई या इसका कद निकल आया तो बेटा अफसर कैसे बनेगा। वह कैसे खेल तमाशे दिखाएगा। उसके बढ़ते कद को रोकने के लिए वह एक तांत्रिक के पास जाता है और एक दवाई ले आता है।
जब करोड़ी गांगली को दवा पिलाने लगता है तो उसकी पत्नी दवा के कटोरे को उसके हाथ से छीनकर गिरा देती है। दवा करोड़ी के चेहरे पर लिथड़ जाता है। करोड़ी का कद इँच दर इँच सिकुड़ने लगता है और सिकुड़ता ही चला जा रहा है। महावीर राजी इस कहानी में यह दिखाने की कोशिश भी करते हैं कि किस तरह इंसान की महत्वकांक्षाओं ने उसका कद छोटा कर दिया है या कर रहा है।
‘आॅपरेशन ब्लैकहोल’ की कहानियां पढ़ते समय बराबर इस बात का अहसास होगा कि कहानियां बिना दर्शन के नहीं लिखी जा सकतीं। महावीर राजी के पास कथ्य है, शानदार शिल्प है और मुहावरेदार भाषा है, इन तीनों को वह बेहतर तरीके से ‘सिंक्रोनाइज्ड’ करते है। इसलिए ये कहानियां आपको झिंझोड़ती हैं, बेचैन करती हैं और सोचने के लिए बाध्य करती हैं।
इन कहानियों में बेरोजगारी है (दस कदमों का फासला) और पानी को बचाने कें लिए गहरे सरोकार भी हैं (पानीदार)। ‘बाघ’ कहानी में राजी जातिवाद पर चोट करते हैं। आॅपरेशन ब्लैकहोल को पढ़ना अपने समय और समाज की नब्ज को पढ़ना है। लिहाजा इन कहानियों को ना केवल पढ़ा जाना चाहिए बल्कि इन पर चर्चा भी होनी चाहिए।
सुधांशु गुप्त