Tuesday, May 6, 2025
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सपनों के बोझ तले दब रही युवा पीढ़ी

Samvad 52


sonam lovevanshiकोटा, जो वर्तमान दौर की शिक्षा नगरी कहलाती है। अब उसका नाम जेहन में आते ही रूह कांप जाती है। ह्रदय द्रवित हो उठता है, कई बार तो सांसें थम जाती है, क्योंकि जो शहर सपनों को ऊंची उड़ान मुहैया करा रहा था। उसी शहर से अब मौत की खबरें आ रही है। मौत भी ऐसी-वैसी नहीं! सपने बच्चों के जीवन से इतने बड़े हो जा रहे हैं कि उसके बोझ तले जीवन और बच्चें की सांसें कमजोर पड़ती जा रही है। इस साल का अगस्त महीना बीते-बीते इस शहर से 24 बच्चों कि जान देने की खबरें सुर्खियां बन चुकी हैं, लेकिन प्रेशर कुकर बनें शहर से मौत की खबरें आने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब जरा विचार कीजिए कि अगर बच्चे अपना जीवन दांव पर लगाने को मजबूर हो रहे हैं, तो फिर ऐसी शिक्षा किस काम की? शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होनी चाहिए, लेकिन आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में शिक्षा के मायने बदल गए हैं! शिक्षा व्यवसाय और अथोर्पार्जन का वह जरिया बन गई है, जिसके सामने नैतिकता और मूल्यों का ह्रास हो चला है। कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चों की मौत कई सवाल खड़े करती है समाज और रहनुमाई व्यवस्था के सामने, लेकिन उन सवालों के प्रति अपनी जवाबदेही से समाज और व्यवस्था दोनों दूर भाग रही है। यही वजह है कि साल दर साल बच्चें पढ़ाई के बोझ तले दबकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर रहे हैं।

कोटा जिसे एजुकेशन हब कहा जाता है। वहां हो रहे बच्चों की मौत के आंकड़े को देखेंगे तो साधारणतया पाएंगे कि बच्चें मानसिक तनाव, सामाजिक प्रेशर और आर्थिक मजबूरी की वजह से आत्महत्या को गले लगाने को मजबूर हैं। स्वाभविक सी बात है कोई दूर-दराज का गरीब या मध्यम वर्ग का लड़का कोटा जैसे शहर में पढ़ने के लिए जाता है, तो उसे कई स्तर पर समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। उसके लिए घर-परिवार का दवाब हो सकता है। सामाजिक प्रतिष्ठा उसके मन को उद्देलित कर सकती है।

बच्चें के माता-पिता कर्ज लेकर उसे पढ़ाई के लिए भेजते हैं, तो उसके सामने आर्थिक मजबूरी आड़े आ सकती है कि अगर कामयाब नहीं हुए तो फिर घर-परिवार वालों पर क्या बीतेगी? जब बच्चा घर से पहली बार बाहर निकलता है। तो उसके संवेग उसे प्रभावित करते हैं। इसी बीच अगर बच्चा पढ़ाई में एक बार पीछे छूट गया। तो फिर वह चाहकर भी अग्रिम पंक्ति में नहीं आ सकता और विभिन्न रिपोर्ट्स के माध्यम से यह बात निकलकर सामने आ रही है कि बच्चों के द्वारा मौत को गले लगाने का एक कारण कोचिंग संस्थानों द्वारा लिए जाने वाले टेस्ट में पिछड़ जाना है।

इस वर्ष अब तक कोटा में जान गंवाने वाले 24 बच्चों की सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि को टटोले, तो यह ज्ञात होता है कि 24 में से 13 आत्महत्या करने वाले बच्चें नाबालिग हैं। वहीं 15 बच्चे गरीब या मध्यमवर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते थे। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जान गंवाने वाले बच्चों में से कोई नाई का बेटा है, तो किसी के पिता गाड़ी धोने का काम करते हैं। ऐसे में सहज आंकलन किया जा सकता है कि कैसे पढ़ाई, प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन के दबाव में जान देने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

यही नहीं, आंकड़े चीख-चीखकर गवाही देते हैं कि कोई बच्चा पढ़ाई करने तो कोटा शहर पहुंचता है, लेकिन एक हफ्ते के भीतर ही मौत को गले लगा लेता है तो कोई एक महीने भी इस सुसाइड फैक्ट्री में सही से जीवन नहीं गुजार पाता है। सुसाइड फैक्ट्री कहे जाने से कुछ कोचिंग संस्थान को मिर्ची लग सकती है, लेकिन धंधा इस कदर भी नैतिकता पर हावी नहीं होना चाहिए। जिस कारणवश किसी की जान की कोई कीमत ही शेष न बचें। वैसे सिर्फ दोषारोपण कोचिंग संस्थान पर करके भी अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से कोई अलग नहीं हो सकता है।

संवैधानिक व्यवस्था में जीवन जीने की स्वतंत्रता अगर मौलिक अधिकार में आती है। तो बच्चों के जीवन जीने का अधिकार न तो कोचिंग संस्थान पढ़ाई के नाम पर छीन सकता है और न ही परिजन अपने सपनों और सामाजिक पद-प्रतिष्ठा के नाम पर! बच्चों द्वारा की जा रही खुदकुशी की बढ़ती तादाद सामूहिक चेतना को सुन्न कर रही है और छात्रों की खुदकुशी की अकेली वजह-निश्चित सफलता के लिए बेहतर न कर पाने का दुसह्य दबाव तो है ही है, इसके अलावा कोचिंग संस्थानों में भेड़-बकरी की तरह बच्चों के साथ हो रहा व्यवहार भी।

एक टेस्ट है, जो बच्चों की योग्यता और मूल्यों को मापने का एकमात्र पैमाना बनकर रह गया है और इस कसौटी पर बच्चा खरा नहीं उतरता तो उसे इस तरह देखा जाता जैसे उसका जीवन ही व्यर्थ है और उसे इस धरा पर रहने का कोई अधिकार नहीं। नि: संदेह स्थिति इतनी क्रूर और दुर्भाग्यपूर्ण बना दी गई है। जहाँ बच्चों के लिए अपना जीवन जीने के लिए कोई जगह नहीं बची है। एक तरफ बच्चे अपने माँ-बाप की अधूरी- असंतृप्त इच्छाओं के शिकार हो रहे हैं, दूसरी तरफ बच्चों का स्वयं के द्वारा अंधानुकरण भी उन्हें गर्त की दिशा में ढकेल रहा है।

अभिवावकों को समझना होगा कि वो अपने किशोर उम्र के बच्चों के कोमल दिलो-दिमाग पर कितना बोझ डालना और कितना नहीं। इसके अलावा रहनुमाई व्यवस्था को चाहिए कि वो शिक्षा तंत्र को इस काबिल बना सकें, जो मौत बांटने के बजाय बेहतर और कुशल व्यक्तित्व निर्माण का साधन बन सके।


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