Sunday, January 19, 2025
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वैश्वीकरण का असली चेहरा है इन कहानियों में !

Ravivani copy


Sudhanshu Guptआज, दस साल बाद या बीस साल बाद यदि कोई इस बात का मूल्यांकन करने बैठे कि भारतीय समाज में आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण, बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के आगमन, भारत के तेजी से एक बाजार में बदलने की प्रक्रिया, धन का लगातार बढ़ता महत्व और मूल्यों का किस तरह क्षरण हुआ, इसे साहित्य में खासकर कहानियों में कैसे देखा जा सकता है तो यह दिलचस्प अध्ययन हो सकता है। बहुत सी कहानियां इन विषयों पर मिल जाएंगी, मिल सकती हैं, लेकिन एक ईकाई के रूप में समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ा इसे देखने के लिए आपको अजय गोयल का कहानी संग्रह ‘तिनकों का कोरस: गिनीपिग’ (संभावना प्रकाशन, हापुड़) पढ़नी होगी। संग्रह में 21 कहानियां हैं। लेकिन इन कहानियों का उत्स एक ही है। ये सारी कहानियां भारत के तेजी से बाजार में बदल जाने की कहानियां हैं। ये कहानियां हैं, इस बदली हुई या बदल रही दुनिया में मूल्यों के क्षरण की। ये कहानियां हैं भारत जैसे देशों को गिनीपिग में तब्दील करने की। इन कहानियों का कालखण्ड 2000 से 2020 तक फैला है।

कायदे से देखें तो यही वह दौर है, जब भारतीय समाज में नये मूल्यों का रंग चढ़ने लगा और जब धन हर दूसरी चीज से अधिक अहम होता चला गया। राजनीति में भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ा, बहु राष्ट्रीय कंपनियों ने नए नए सपने परोसे, विज्ञापन की दुनिया फैलने लगी। पेशे से अजय गोयल डॉक्टर हैं। लेकिन इतिहास, समाज, परंपरा और पर्यावरण को वे अलग नजरिये से देखते हैं। उनकी कहानियों के नेरेटिव पर गौर करें तो कुछ बातें साफ हो जाएंगी: ‘वे किसानों और व्यापारियों का माल असबाब चौथाई कीमत पर जबरदस्ती उठा ले जाते हैं, और मारपीट, जुल्म कर वे रैयत को उस माल के लिए पांच रुपए देने को मजबूर करते हैं, जिसकी कीमत सिर्फ एक रुपया होता है।’ (गिनीपिंग-18)
‘अमेरिकापरस्त कौम में दलाल पैदा करेगी तो कौम अपने नेता हिजड़े तक चुनने के लिए मजबूर हो जाएगी (गिनीपिग, 19)’
‘क्रीम लगाने को प्रतिदिन ‘संस्कार करना’ कहना चाहिए- काला ताज
काला ताज का धनुष कहता है, कब्रिस्तान में सभ्यताएं विकसित नहीं होतीं। वह एक कायर कौम का अच्छा नुमाइंदा है, जिसे सबकुछ पका पकाया चाहिए—(काला ताज)
नायक सवाल उठाता है कि उस रात हवा का रुख हुक्मरानों के महलों की तरफ क्यों नहीं था (भोपाल गैस त्रासदी पर) हरम

उसकी आंखों में विचार का अनुवाद था-उपकथा
आज का युग यंग एंड वाइल्ड जैसे जुमले के सांचे में ढला मूवर्स एंड सेकर्स जैसी हसरतों से सजा और फन एंड लव में रंगा लीलाधारी है। इसकी लीलाओं का श्रद्धाभाव से देखो-माहिम की प्रार्थना
दुनिया मानवीय अंगों को चूहे की पीठ बनता देख रही है और वह अपना बच्चा तक नहीं बचा पाई। साथ में यूट्रस खो बैठी-उपनिवेश

किसी सॉफ्टवेयर की तरह समूची मां मेरे अंदर फीड है-उपनिवेश
विज्ञापनों की रमक में जब कोई कार पर बैठे तो उसे लगे कि वह औरत पर चढ़ा है। सीट पर बैठे तो लगे औरत में धंसा है और तंबाकू खाए तो तो लगे कि औरत को चबा रहा है-बीसवीं सदी का जीवाश्म
ये पेड़ बन जाना इतना आसान है क्या, पेड़ बन जाना तन मन की उच्चतम अवस्था है। पेड़ बनकर जलकुम्भी से पार पाया जा सकता है-इंडिया मस्ट बी ब्लेड
अगर उपरोक्त दिए गए सभी वाक्यों से आप कुछ अंदाज लगाने की कोशिश करें तो यह पता चलता है कि अजय गोयल की कहानियां अलग-अलग दुनिया की कहानियां नहीं हैं, बल्कि ये एक ही दुनिया की कहानियां हैं, जिसे समझने में हम शायद चूक कर गए। गिनीपिग कहानी में वह दिखाते हैं कि अमेरिका और साम्राज्यवादी देशों के लिए लातिन अमेरिका, अफ्रीका और भारत समेत अधिकांश एशियाई देश गिनीपिग से अधिक महत्व नहीं रखते। उनके लिए गांधी, मार्क्स या बासमती चावल महज पेटेंट हैं, जिनके माध्यम से दुनिया पर अपना नियंत्रण किया जा सकता है। अजय गोयल की कहानियों की एक खास बात यह है कि वह इतिहास, वर्तमान और भविष्य को एक साध साधते हैं। अतीत को वह वर्तमान से जोड़ते हैं। सलीम बॉटलिंग प्लांट का विरोध करता है। स्थानीय विधेयक प्लांट के समर्थन में है। मौजूदा सत्ताधारियों का मकसद हर हाल में पैसा कमाना है। इसके आगे पीछे कोई नहीं सोचना चाहता। यह कहानी बहुत से सवाल उठाती है। कहानी पूछती है कि यदि मुसलमान गद्दार हैं तो वे कौन हैं जिनका एक हजार डॉलर स्विस बैंकों में जमा है। वे सब यानी 99 फीसदी हिंदू ही हैं ना।

अजय गोयल की प्राथमिकताओं में इतिहास, समाज परंपरा और पर्यवारण हैं। उनकी कहानियों में बाजार जीवित किरदार की तरह आता है। ‘काला ताज’ में मनुष्य की नैसर्गिक इच्छाओं पर अपना शिकंजा कसता बाजार है। यह कैच लाइन है कि क्रम लगाने को संस्कार करना कहना चाहिए। ‘हरम’ में बाजार बार्बी डॉल के रूप में आता है। नायक की छोटी उम्र की बेटी बॉर्बी डॉल की तरह बनना चाहती है। यह पूरी कहानी दस घंटे लंबी शिमला तक की यात्रा है।

अजय गोयल की कोई भी कहानी ठेठ परंपरागत खांचे की कहानी नहीं है। वह किसी शिल्प या भाषा के वैभव के भी मोहताज दिखाई नहीं पड़ते। लेकिन उनके पास विचार हैं। हर कहानी में वह विचार को ही अपनी कथा में पिरोते हैं। उनके यहां वायरस (कोरोना वायरस नहीं) वह कुसंस्कृति है जिसने पूरी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। वायरस कहानी में वह कहते हैं, आज देश के स्थान पर बाजार में रहने का ज्यादा अहसास होता है। जहां हर किसी की एक कीमत है। यहां जाति की दलदल है, कठमुल्लेपन का अंधेरा पसरा है। कहानी में अजय दिखाते हैं कि किस तरह उपनिवेश से मुक्त होकर भारत भूमंडलीकरण के जाल में फंस गया है। जिस तरह हम अमेरिका से खैरात का इंतजार करते हैं, उसी तरह मां बाप बच्चे के विदेश से खैरात का इंतजार करते रहते हैं। उनकी कहानियों  में वह ‘दूसरा आसमान’ भी दिखाई देता  है, जिसे हम असली आसमान जान बैठे हैं।  ‘बीसवीं सदी का जीवाश्म’ में खत्म हो गए और नए मूल्यों के बीच द्न्वद्न्व दिखाई पड़ता है। अजय गोयल के पास चीजों को देखने का नजरिया है।

‘वेलेंटाइन डे’ कहानी में वह दिखाते हैं कि किस तरह नब्बे प्रतिशत भारत यदि इस दस प्रतिशत की होड़ करेगा तो बेइज्जत ही होगा। अप्रवासी हो जाने की अदम्य इच्छा, उसके परिणाम और  कुपरिणाम अजय की कहानियों में देखे जा सकते हैं। ‘नन्हीं उंगलियों का विद्रोह’ एक बच्चे को बाजार के अनुरूप बनाए जाने के विरुद्ध लिखी गई कहानी है। अजय गोयल मौजूदा समय में चर्चित स्त्री विमर्श और कन्या भ्रूण हत्या जैसे विषयों को अपनी कहानी में लाते हैं। ‘सौनचिरैया का पहला गीत’ भ्रूण हत्या पर लिखी गई कहानी है। लेकिन यहां भी बाजार, उपभोक्तावादी दृष्टिकोण और विसंगतियों को वह अनावृत्त करते हैं। ‘सारथी ने कहा-गधों! हर बोतल में समन्दर’ टेलीविजन पर आ रहे या आए उन कार्यक्रमों पर सवाल उठाती है, जो आपको करोड़पति बनाने के सपने दिखाते हैं।


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