Sunday, January 19, 2025
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यह सामान्य घटना नहीं है

Samvad 52


SUBHASH GATADEस्पेन की महिलाएं इन दिनों राजधानी माद्रिद की सड़कों पर ‘वीवा’ अर्थात ‘जीत गए’ की निशानी बनाती दिख रही हैंै। और उनकी इस खुशी की वाजिब वजह हैं, छह साल के लंबे संघर्ष के बाद उन्हें यह जीत हासिल हुई है, जब यौन अत्याचार की पीड़िताओं/उत्तरजीवियों/सर्वावर्स को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने संघर्ष छेड़ा था। केवल राजधानी माद्रिद ही नहीं, देश के तमाम अग्रणी शहरों एवं क्षेत्रों में महिलाओं की इस एकता की झलक दिखाई दी थी, जिसके चलते स्पेन की संसद को कानून की किताबों में मौजूद नारीद्वेष की बातों को हटाना पड़ा था और एक नए विधेयक पर सहमति बनानी पड़ी थी, जिसका लुब्बेलुआब था कि यौनसंबंध सहमति को महज माना नहीं जा सकता या स्त्री के मौन को ही उसकी सहमति नहीं कहा जा सकता। यह प्रसंग शुरू हुआ था वर्ष 2016 में जब 18 साल की एक युवती पांच युवकों के यौन हमले का शिकार हुई थी। पाम्पलोना नामक स्थान पर बैलों की लड़ाई से जुड़ा कोई महोत्सव था, वहीं पर यह घटना हुई थी। अदालत ने अत्याचारियों को नौ साल की कम सजा सुनाई थी, क्योंकि अभियुक्तों ने यह सफाई पेश की थी कि पीड़िता ने यौन संबंध के प्रति सहमति प्रगट की थी।

दरअसल महिलाओं को जिस बात ने अधिक क्षुब्ध किया वह था इन दुष्कर्मियों की सजा को कम करने को लेकर जिस तरह ‘महज पुरूषों’ के वॉटसएप्प ग्रुपों में जिस तरह का स्वागत किया था या घोषित दक्षिणपंथियों ने सजा में कमी का स्वागत करने वाले बयान दिए थे, जिससे प्रतिरोध और बढ़ा था। अब इन अत्याचारियों को कुल 15 साल सलाखों के पीछे बिताने पड़ेंगे।

यह विडम्बना की पराकाष्ठा थी कि जब स्पेन के लोग इन तमाम मुददों पर गहरे आत्मपरीक्षण में मुब्तिला थे, स्पेन की संसद यौन सहमति कानूनों में संशोधन पर सोच रही थी, ताकि विभिन्न किस्म के यौन हमलों से स्त्रियों की रक्षा की जा सके, उन्हें तत्काल कानूनी सहायता एवं समर्थन मिले, कोई उनके साथ यौन अत्याचार को हलके में न ले, उन्हीं दिनों स्पेन की राजधानी माद्रिद से सात हजार किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर स्थित एक मुल्क के एक सूबे में-वही मुल्क जो अपने आप को ‘जनतंत्र की मां’ कहलवाना पसंद करता है-वहां की कार्यपालिका बिल्कुल विपरीत दिशा में कदम बढ़ा रही थी। वह सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के 11 दोषियों की सजा में विशेष छूट देने का प्रावधान पर अंतिम मुहर लगा रही थी।

तीन मार्च 2002 की इस घटना में अल्पसंख्यक समुदाय के 13 लोगों को-जिनमें एक ही परिवार की कई महिलाएं भी शामिल थीं-मार दिया गया था और मारे जाने के पहले यह महिलाएं सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुर्इं थीं। इस अत्याचार में 21 साल की एक युवती बिल्किस बानो ही बच पाई थी, जिसने अपनी आंखों के सामने अपनी मां एवं अन्य सदस्यों को निर्वस्त्र किए जाते और अत्याचार का शिकार बनाए जाते देखा था। इन खूनियों ने बिल्किस की तीन साल की बच्ची सलेहा को पत्थर पर पटक कर मार डाला था।

तय बात है कि किसी भी सभ्य समाज में ऐसे मनुष्यहंता लोगों की सजा को कम करने के बारे में कोई सोच नहीं सकता था, जिन्होंने अपनी सजा से बचने के लिए बिल्किस बानो एवं उनके बचे परिवार को काफी आतंकित किया था, जिसके चलते उसे जगह जगह छिप कर रहना पड़ा था। यह कहना मुश्किल है कि सूबे के मुखियाओं ने यह निर्णय लेने के बारे में क्यों सोचा, मुमकिन है प्रधानमंत्री के इस गृहराज्य के इन कर्णधारों को लगा होगा कि इसके चलते वह अपने जनाधार में एक अलग तरह का संदेश दे सकेंगे।

जेल के बाहर इन दरिंदों का बाकायदा फूल मालाओं, आरती से स्वागत किया गया था और इतना ही काफी नहीं जान पड़ा था, जेल के बाद ही उन्हें नगर के एक सार्वजनिक हॉल में ले जाया गया था और उन्हें फिर मालाएं पहनायी गर्इं थीं। इन दोषियों के लिए इस बात से क्या फर्क पड़ता था कि उनकी सजा माफी के लिए राज्य सरकार ने कई स्थापित नियमों एवं परंपराओं का उल्लंघन किया था, इस मामले में सीबीआई की जांच होने के बावजूद, सजा माफी के लिए उनसे अनुमति नहीं ली थी।

एक तरफ स्पेन है, जहां की स्त्रियों के जबरदस्त संघर्ष ने शेष समाज को भी आंदोलित किया, बेचैन किया और जो कसक संसद तक भी पहुंची और वह अपने कानून में तब्दीली के लिए मजबूर हुई, वही यह ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ का एक सूबा है, जहां ऐसे घृणित अपराध में लिप्त लोगों की सजा में छूट मिल रही है, उन्हें नायक के तौर पर सराहा जा रहा है। क्या यह वही समाज है जिसने किसी ज्योति सिंह (निर्भया) के दुष्कर्मियों को सजा दिलाने के लिए हजारों-लाखों की तादाद में सड़कों को संघर्ष का मैदान बनाया था और अब वही समाज है, जो किसी बिल्किस बानो के अत्याचारियों की अदालती सजा को मिली छूट को लेकर मौन धारण किए हुए है, इन दुष्कर्मियों एवं हत्यारों का स्वागत होते चुपचाप देख रहा है। क्या इस समाज का गुस्सा भी अब अलग अलग कंपार्टमेंट में बंटने लगा है जो तभी फूट पड़ता है, जब ‘अपने जैसे’ लोग निशाने पर होते हैं।

जर्मन अमेरिकी दार्शनिक हन्ना अरेंडट, जिन्होंने यहूदी जनसंहार पर बहुत कुछ लिखा है, वह इस बात को बार-बार स्पष्ट करती हैं कि नात्सीकाल में साठ लाख से अधिक यहूदियों, जिप्सियों, वामपंथियों आदि को जब गैस चैम्बरों में भेजा गया और मार डाला गया-इसे अंजाम देने वाले लोग कोई मानसिक विकृतियों का शिकार परपीड़क लोग नहीं थे, वह साधारण लोग थे, जिन्होंने अपने इस काम को नौकरशाहाना अंदाज में एवं कार्यक्षमता के साथ अंजाम दिया था। वह यह भी जोड़ती हैं कि ‘बुराई बिल्कुल साधारण बन जाती है, जब वह एक अविचारी एवं सुव्यवस्थित स्वरूप ग्रहण करती है या जब साधारण लोग इसमें हिस्सा लेते हैं या उससे दूरी बनाते हैं और उसे विभिन्न तरीकों से उचित ठहराते हैं। उन्हें किन्हीं नैतिक द्वंद्वों का सामना नहीं करना पड़ता ना किसी बेचैनी का शिकार होना पड़ता है। बुराई तब बुराई भी नहीं लगती है, वह चेहराहीन हो जाती है।’

अगर आप सामूहिक दुष्कर्म एवं हत्या के शिकार लोगों को हार पहनाने की बात को बेहद सामान्य घटना मान रहे हैं, अगर समाज के ऐसे तलछटों का सम्मान आप के लिए बेहद सामान्य घटना है, तो यकीन मानिए आप में और नात्सी अधिकारी आईशमैन में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है।


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