विश्व प्रसिद्ध कहानीकार मोपासां ने एक बार कहा था-एक सरल जीवन जीने वाली स्त्री की कहानी नहीं होती बल्कि कहानी विरल जीवन जीने वाली स्त्री की होती है। यह बात उस अर्थ में सही साबित हो सकती है, जब लेखक स्त्री की सभी छवियों को लेखन में उतारता हो। लेकिन क्या सरल जीवन जीने वाली स्त्री की अनेक छवियां नहीं हो सकतीं? और क्या सरल जीवन जीने वाला एक लेखक अपने लेखन में चारों तरफ दीख रहे विरल जीवन को दर्ज नहीं कर सकता। करता है, बल्कि कर रहा है-आज 94वर्ष की उम्र में भी। बल्लभ डोभाल नाम है उस लेखक का। 1930 में उनका जन्म पौढ़ी गढ़वाल में हुआ और श्रीपत राय द्वारा संपादित कथा पत्रिका ‘कहानी’ से अपनी कथा यात्रा शुरू की। इसके बाद लगातार लिखते रहे…यायावरी करते रहे…जीवन को देखते-समझते रहे…और जीवन से ही कहानियां चुराते रहे। जिद्दी और जुनूनी इतने के जीवन में शायद ही कभी कोई समझौता किया हो। उपन्यास, कविताएं, यात्रा संस्मरण, नाटक, बाल उपन्यास और कहानियां-विविध विषयों पर काम किया। लेकिन कहानियों से ज्यादा जुड़े रहे। कहानियां भी उन्होंने जीवन से उठाई। सहज और सरल भाषा, बिना किसी पाखण्ड या नाटकीयता के। उनकी कहानियां पढ़कर साफ दिखाई देता है कि उन्होंने उधार के अनुभवों पर नहीं लिखा। इसलिए मौलिकता उनके साथ बनी रही।
उत्तराखण्ड के कथा-शिल्पी, बल्लभ डोभाल-संपादक-महेश दर्पण (काव्यांश प्रकाशन) पढ़ते हुए यह भी पता चला कि यह एक श्रृंखला शुरू की गई है, जिसमें उत्तराखंड के कथाकारों की कहानियां प्रस्तुत की जाएंगी। बल्लभ डोभाल की कहानियां, घर-परिवार, पहाड़, पहाड़ी लोगों के सुख-दुख, छोटे शहरों और महानगरों में पहाड़ के लोगों का पलायन, पहाड़ और शहर के बीच पैदा हो रही समस्याओं के चारों तरफ घूमती है। पहाड़ बल्लभ डोभाल के भीतर हमेशा जीवित रहता और जीवित रहते हैं वहां के किरदार।
संग्रह की पहली ही कहानी है ‘खेत में कविता’। कहानी का 85 पार कर चुका नायक बासूदा अभी भी खेत में हल चलाते हैं। शहर से गाँव आया एक व्यक्ति कविता लिखता है तो बासूदा कहते हैं कि हम भी कविता लिखते हैं, हल की नोक हमारी कलम है और दूर दूर तक फैले खेत हमारा कागज। यानी बासूदा जैसे लोग आज भी खेती बाड़ी को ही सब कुछ मानते हैं। गाँव की दुनिया के समानांतर लेखक शहरों के दफ्तरों की संस्कृति से भी नावाकिफ नहीं है। ‘दफ्तर-दीक्षा’ कहानी कहती है कि रोजमर्रा के काम में लगा इंसान किस तरह संवेदनहीन होता जा रहा। आँख और कान बंद करके नौकरी करने की संस्कृति उसे सिखा रही है कि बॉस के आदेश का पालन ही नौकरी है। क्या यही महानगरों का सच नहीं है! गाँव छोड़कर शहरों के लोग जब अपने ही गाँव में आते हैं तो किस तरह बदले हुए गाँव और वहाँ के लोगों को देखते है और खुद का ज्ञानी समझते हैं, यह बात ‘जन से जनतंत्र’ में दर्ज होती है, जब नैरेटर का गाँव में ही रह गया दोस्त उससे कहता-देश नेताओं से नहीं हल से चलते हैं।
बल्लभ डोभाल की कहानियों में ग्रामीण समाज और शहरी समाज के भीतर पनप रही विसंगतियाँ भी निरंतर उजागर होती हैं। वह तंदूरी रात, कलिकथा और उनका स्वर्ग सहज कहानियाँ लगती हैं लेकिन इन कहानियों में अंडरटोन में और भी बहुत कुछ छिपा हुआ है। वह तंदूरी रात पहाड़ से शहर लौटती खराब हो जाती है। एक यात्री को ट्रक पर बिठा दिया जाता ताकि उसे चंडीगढ़ छोड़ा जा सके। बिल्कुल सहज सा लगता है लेकिन कहानी की अंतर्ध्वनियां दिल्ली में हुए तंदूर कांड की याद दिलाती रहती हैं। कलिकथा गांधी जी के विचारों को न अपनाकर उसका ढोंग करने की संस्कृति को उजागर करती कहानी है। उनका स्वर्ग में पोता अपने बाबा को देखने गांव आता है। वह यहां बाबा की कंजूसी और परिजनों के लालच को देखता है। लेकिन विडंबना यह देखिए कि ताई ने बताया था कि अगर बाबा के प्राण आंख कि रास्ते निकलेंगे तो बाबा स्वर्ग जाएंगे। इस प्रयास में चाचा बाबा का नाक और मुख दबा देते हैं। यह कहानी समाज के क्रूर यथार्थ की ओर इशारा करती हैं।
बल्लभ डोभाल गांवों और शहरों की दुनिया को भी संजीदा दृष्टि से देखते रहे हैं। वह यह भी जानते और समझते हैं कि आज के समय में, समाज मृत व्यक्ति को तो खाना दे सकता है, लेकिन जीवित व्यक्ति को खाना मिलना बहुत मुश्किल है ‘प्रेतयोनि’ यही बात प्रभावशाली ढंग से कहती है। प्रेतयोनि बताती है कि लोग प्रेतात्मा में जितना विश्वास करते हैं और जीवात्मा में नहीं। इस कहानी को पढ़कर अनायास मुझे रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी जीवित और मृत याद आ गई। इस कहानी में एक लड़की को ‘मृत’ घोषित कर दिया जाता। वह बार बार कहती है कि वह जीवित है, लेकिन कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। अंत में, वह जीवित थी इस बात का प्रमाण देने के लिए वह नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है। इस दृष्टि से प्रेतयोनि एक यादगार कहानी है।
मकान के प्रति मनुष्य का गहरा लगाव (मकान रोग), मूल्यहीन होते समय की कमजोरियाँ (दिशाबोध), आपसी संबंधों की खोज (कितना बड़ा इंसान), बेरोजगारी से परेशान एक व्यक्ति को कितने नाटक करने पड़ते हैं (नाट्यकर्मी), न्याय व्यवस्था पर चोट (काठ की टेबुल), प्रकृति, प्रेम और मनुष्य के संबंध (वही एक अंत) बल्लभ डोभाल की कहानियों में दिखाई देता है। लेकिन कहीं कहीं लेखक पहाड़ की दुनिया से बाहर भी निकलता है और कहानी भी एक खास तरह का खुलापन महसूस करती है। ‘स्वप्नजीवी’ ऐसी ही कहानी है। स्मृतियों में चलती यह कहानी मैरी से मीरा बनी और मीरा से राधिका बनी युवती की कहानी है। वह अपने कन्हैया की प्रतीक्षा में आतुर एक विदेशी युवती है, जो हिप्पियों की तरह पहाड़ के जंगल में घूमती रहती है। स्मृतियों से ही पता चलता है कि युवती शायद नैरेटर से प्रेम करने लगी है और नैरेटर भी उससे प्रेम करने लगा है, लेकिन स्वीकारोक्ति कहीं नहीं है। यह एक बेहतरीन कहानी है। लेकिन बल्लभ डोभाल किन्हीं भी कारणों से अपनी कहानी में ‘ओपन’ नहीं होते। उनके मूल्य, उनके आदर्श, उनकी नैतिकताएँ कहानी को विकसित होने से रोके रहती हैं। एक अन्य बात यह कि जिस व्यक्ति ने लगभग 100 वर्ष का जीवन देखा हो, उसे पहाड़ से बाहर निकल कर भी कुछ सोचना और लिखना चाहिए। इसके बावजूद बल्लभ डोभाल की कहानियाँ यह भी साबित करती हैं कि सरल मनुष्य द्वारा सरलता और ईमानदारी से लिखी गई कहानियां भी विरल जीवन को चित्रित कर सकती हैं, करती हैं।