स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी द्वारा अपने अहिंसा के बल पर अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त इस देश को आजादी दिलाने के दिवा स्वप्न दिखाने पर चुटकी लेते हुए उन्होंने लिखा था, ‘अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है, लेकिन वह अतीत की चीज है। जिस स्थिति में आज हम हैं, सिर्फ अहिंसा के बल पर कभी आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। आज यह दुनिया सिर से पांव तक हथियारों से लैस है, लेकिन हम जो गुलाम कौम हैं, हमें ऐसे झूठे सिद्धांतों के जरिए अपने रास्ते से नहीं भटकना चाहिए।’ देश की स्वतंत्रता के बाद हमारे देश के आमजन, छोटे दुकानदारों, मजदूरों, किसानों आदि की हालत उत्तरोत्तर ही खराब और बद से बदतर होती चली गई है । 23 मार्च 1931 को ब्रिटिशसाम्राज्यवादियों ने शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह और उनके अन्य दो साथियों को बगैर ट्रायल पूरा किए ही आनन-फानन में फांसी पर लटका दिया था, क्योंकि ब्रिटिशसाम्राज्य-वादियों को शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह की आवाज को किसी भी तरह से जल्दी से जल्दी शांत कर देना था, क्योंकि ब्रिटिशसाम्राज्यवादियों की नजरों में शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह उस समय कथित रूप से ‘सबसे बड़े देशद्रोही या राष्ट्रद्रोही’ थे। वे तत्कालीन ब्रिटिशसाम्राज्यवादियों द्वारा शासित भारतीय राष्ट्रराज्य के लिए बहुत बड़े खतरे भी थे।
फांसी के दिन शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह की उम्र मात्र 23 वर्ष 5 महीनें 25 दिन थी! आज के समय में कल्पना करें कि लगभग साढ़े तेइस साल की उम्र का एक नवयुवक सामान्यत: बिल्कुल अधकचरे ज्ञान का ही होता है, लेकिन शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह इतनी सी उम्र में भी बहुत ही गंभीर व संजीदा चिंतनशील व मननशील बौद्धिक युवक थे।
अपनी फांसी से कई साल पूर्व से ही वे कानपुर में प्रताप प्रेस से निकलनेवाले दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र प्रताप, जो अमर शहीद स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पादकत्व में निकलता था, उसमें क्रांतिकारी व इस देश के जागरूक युवा वर्ग के रगों में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के अकथनीय जुल्मों के खिलाफ गर्म रक्त में जोश भर देनेवाले व मस्तिष्क को झंकृत कर देनेवाले तथा इस देश को जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के गुलामी की जंजीरों में सिसक रहा था, से मुक्ति के लिए जोश भर देनेवाले लेख लिख रहे थे।
वे अपनी फांसी से कुछ ही दिनों पूर्व एक व्यक्ति द्वारा उनके ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की विचारधारा की खिल्ली उड़ाते हुए यह कहने पर कि ‘भगत सिंह! तुम फांसी पर लटकने के वक्त भगवान को जरूर याद करोगे’, के जबाब में उन्होंने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ एक बहुत ही सुचिंतित, बौद्धिक व बड़ा लेख (15 पृष्ठों का) लिखा था, जो अभी भी भारत के प्रबुद्ध वर्ग में बड़े ही आदर और सम्मान के साथ पढ़ा जाता है।
इस लेख में शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने समाज के कुछ बहुत चालाक व धूर्तों द्वारा अविष्कृत काल्पनिक भगवान के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हुए, ऐसे-ऐसे अकाट्य, तार्किक व न्यायोचित्त तर्क प्रस्तुत किए हैं, जिसका आज के समय के भी कथित पाखंडी, धूर्त व धार्मिक बने बड़े-बड़े संतों, गुरुओं और शंकराचार्यों के पास कोई सम्यक व न्यायोचित्त जवाब ही नहीं है!
स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस की पूंजीवादी व सामंतवादी नीतियों के खिलाफ उन्होंने लिखा है कि ‘समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों और किसानों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के पेट भरनेवाले अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मुहताज हैं।
दुनियाभर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करनेवाले बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकने भर को कपड़ा नहीं पा रहे हैं। सुंदर महलों का निर्माण करनेवाले राजगीर, लोहार और बढ़ई आदि स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं।’
शहीद-ए-आजम स्वर्गीय भगत सिंह अपने कालजयी लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ में स्पष्टता और निर्भीकता से धर्म और पाखंड के ठेकेदारों से प्रश्न करते हुए पूछते हैं कि ‘मैं पूछता हूं, सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, शोषण, असमानता, दासता, महामारी, हिंसा और युद्ध आदि का अंत क्यों नहीं करता? इन सबको समाप्त करने की शक्ति रखकर भी यदि वह मानवता को इन अभिशापों से मुक्त नहीं करता तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता…और जनहित में उसका जल्द समाप्त हो जाना ही बेहतर है।’
आज के तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों के कर्णधार देश के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले उन वीर शहीदों के स्वप्नों को कितना साकार कर रहे हैं! आज इस देश के आमजन, मजदूरों और किसानों की हालात पिछले 60 साल शासन करने वाली कांग्रेस सरकार और मोदी सरकार में कितनी सुधरी है या कितनी बदतर हुई है? इस अतिगंभीर मुद्दे पर देश के सभी शिक्षित लोगों, यूनिवर्सिटी के छात्रों, बुद्धिजीवियों, विचारकों, साहित्यकारों, कवियों, जागरूकजनों, प्रोफेसरों और डॉक्टरों आदि को एक बार गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए।