भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया था लेकिन पुलिस ने तीनों को जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए आरोपित किया। गिरफ्तारी के बाद सॉन्डर्स की हत्या में शामिल होने के आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर देशद्रोह तथा हत्या का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी मामले को बाद में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से जाना गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हडताल की। 23 मार्च 1931 की शाम करीब 7.33 बजे भारत मां के इन तीनों महान वीर सपूतों को फांसी दे दी गई।
भारत के महान वीर सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि देने के लिए प्रतिवर्ष 23 मार्च को शहीद दिवस अथवा सर्वोदय दिवस मनाया जाता है, जो प्रत्येक भारतवासी को गौरव का अनुभव कराता है। इस दिन देश की आजादी के दीवाने ये तीनों स्वतंत्रता सेनानी इसी दिन हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार द्वारा इस दिन को ‘शहीद दिवस’ घोषित किया गया। यह वही दिन है, जब अंग्रेजों से भारत की आजादी के लिए लड़े भारत मां के वीर सपूतों भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को अंग्रेजों ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में फांसी पर लटका दिया था। हालांकि पहले इन वीर सूपतों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन इनके बुलंद हौंसलों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने जन आंदोलन को कुचलने के लिए उन्हें एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को ही फांसी दे दी थी। भगत सिंह प्राय: एक शेर गुनगुनाया करते थे:-
जब से सुना है मरने का नाम जिंदगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूंढते हैं।।
भगत सिंह जब पांच साल के थे, तब एक दिन अपने पिता के साथ खेत में गए और वहां कुछ तिनके चुनकर जमीन में गाड़ने लगे। पिता ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो मासूमियत से भगत सिंह ने जवाब दिया कि मैं खेत में बंदूकें बो रहा हूं। जब ये उगकर बहुत सारी बंदूकें बन जाएंगी, तब इनका उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ करेंगे। शहीदे आजम भगत सिंह ने स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद से अपनी पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबती की लौ पर हाथ रखकर कसम खाई थी कि उनका समस्त जीवन वतन पर ही कुर्बान होगा। 28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने अपने 23 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में वैचारिक क्रांति की ऐसी मशाल जलाई थी, जिससे आज के दौर में भी युवा काफी प्रभावित हैं।
क्रांतिकारियों राजगुरुऔर सुखदेव का नाम हालांकि सदैव शहीदे आजम भगत सिंह के बाद ही आता है लेकिन भगत सिंह का नाम आजादी के इन दोनों महान क्रांतिकारियों के बगैर अधूरा है क्योंकि इनका योगदान भी भगत सिंह से किसी भी मायने में कमतर नहीं था। तीनों की विचारधारा एक ही थी, इसीलिए तीनों की मित्रता बेहद सुदृढ़ और मजबूत थी। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में आसपास ही रहते थे और दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती थी। 15 मई 1907 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे सुखदेव भगतसिंह की ही तरह बचपन से आजादी का सपना पाले हुए थे।
भगत सिंह, कामरेड रामचंद्र और भगवती चरण बोहरा के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन कर सॉन्डर्स हत्याकांड में भगतसिंह तथा राजगुरू का साथ दिया था। 24 अगस्त 1908 को पुणे के खेड़ा में जन्मे राजगुरू छत्रपति शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से काफी प्रभावित थे। अच्छे निशानेबाज रहे राजगुरु का रुझान जीवन के शुरूआती दिनों से ही क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था। वाराणसी में उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और जतिन दास राजगुरू के अभिन्न मित्र थे।
पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के कारण स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गज नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर स्वयं को गिरफ्तार करा दिया था और भगत सिंह वेश बदलकर कलकत्ता निकल गए थे, जहां उन्होंने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह बिना कोई खून-खराबा किए ब्रिटिश शासन तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहते थे लेकिन तीनों क्रांतिकारियों को अब यकीन हो गया था कि पराधीन भारत की बेड़ियां केवल अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकतीं, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीतियों के पारित होने के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए लाहौर की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया था लेकिन पुलिस ने तीनों को जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए आरोपित किया। गिरफ्तारी के बाद सॉन्डर्स की हत्या में शामिल होने के आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर देशद्रोह तथा हत्या का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी मामले को बाद में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से जाना गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हडताल की। 23 मार्च 1931 की शाम करीब 7.33 बजे भारत मां के इन तीनों महान वीर सपूतों को फांसी दे दी गई।