Friday, June 6, 2025
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इस हिंसा के मायने क्या हैं?

 


वैसे तो सांप्रदायिकता की नफरती मुहिम की रफ़्तार कभी धीमी नहीं हुई मगर इस बीच इसमें अचानक कुछ ज्यादा ही तेजी आई है। उत्तर प्रदेश सहित पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनावों में जीतने के बाद तो इसमें कुछ ज्यादा ही तेजी आ गई है। इसकी शुरुआत राम नवमी के मौके पर निकाले गए प्रदर्शनों के दौरान मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, झारखंड और दिल्ली आदि सहित अनेक राज्यों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के रूप में सामने आई।
रामनवमी के नाम पर हथियारबंद आक्रामक जुलूस निकालना, अल्पसंख्यकों की बसावट के इलाकों से इसे गुजारते हुए पुलिस की मौजूदगी में अत्यंत घिनौने नारे लगाना, मस्जिद पर भगवा झंडा फहराने सहित उकसावे और प्रतिक्रिया के लिए हर संभव असंभव तरीका अपनाना। इसके लिए अपने एक्सपर्ट उकसावे बाजों को देश भर के संवेदनशील इलाकों में भेजकर खुले आम हमलों का आह्वान करना। मप्र के खरगौन में कपिल मिश्रा ने ऐसा ही उन्मादी भाषण दिया जैसा उसने दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा से पहले दिया था।
देश भर में एक ही दिन, एक साथ, अनेक जगहों पर एक जैसी हरकतों से साफ है कि यह सब स्थानीय या स्वत:स्फूर्त नहीं था; शीर्ष पर बनाई गयी योजना के साथ किया जा रहा था। इस पूरे अपराध में तकरीबन हर जगह प्रशासन इन उन्मादियों के साथ रहा। ऐसे जुलूसों को, बिना समुचित बंदोबस्त के, अल्पसंख्यकों के इलाकों से निकलने की इजाजत दी गई। बिना किसी जांच या किसी वैध कानूनी प्रक्रिया के बिना ही, ‘बलवाई होने’ के कथित आरोपियों की संपत्तियों को ढहा दिया गया है। यह सिर्फ मकानों या दुकानों को ढहाया जाना नहीं है-यह संविधान और कानून के राज पर चलाया गया बुलडोजर है।

बाद में इन्हें कथित अतिक्रमण बताये जाने का बहाना कितना झूठा था यह मध्यप्रदेश के खरगौन में ध्वस्त किए गए 60 वर्षीय श्रीमती हसीना फाखरू के प्रधानमंत्री आवास योजना में बनाए गए मकान के मलबे ने बता दिया। इस घर के बनने पर स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें बधाई की चिट्ठी लिखी थी। महंगाई, बेरोजगारी हर रोज हर नागरिक के भोजन की थाली को छोटा कर रही है। बाजार के सिकुड़ने से छोटे मंझोले दुकानदारों की तबाही आम हो गई है। सब कुछ मिटाकर कॉरपोरेट के हिसाब से नए तरह से ढालने वाली नीतियों ने गैर-कॉरपोरेटी उद्योग धंधों के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया है। इससे उपजे आक्रोश को भोथरा करना है, पीड़ा की चीखों को अनसुना करना है। इसलिए नफरती रेडियो की आवाज को तेज से तेजतर किया जा रहा है।

इतना सब करने के बाद भी चुनाव तो जीतने ही हैं और वो तभी जीते जा सकते हैं जब लोगों में एक नकली दुश्मन का डर पैदा किया जाए , उससे ‘बचने’ के लिए बहुसंख्यक आबादी में समग्र हिन्दू एकता का भाव पैदा किया जाए और खुद को उन ‘दुश्मनों’ से बचाने वाला एकमात्र योद्धा बताया जाए। उत्तरप्रदेश में 80 बनाम 20 के नाम पर इसे आजमाया जा चुका है। अब असफलताओं के हिमालयीय रिकॉर्ड से ध्यान बंटाने के लिए अगली साल 2023 में होने वाले कुछ प्रदेशों और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए अभी से इसी तरह का झूठा और आपराधिक नैरेटिव गढ़ने की शुरूआत कर दी गयी है।

यह बात अलग है कि इसमें जिन दलितों और अति पिछड़ों के कंधे पर त्रिशूल और फरसे लादे जा रहे हैं वे बाद में उन्हीं के सरों को कलम करने के काम आने वाले हैं। क्योंकि संघ ने जिस बात को कभी नहीं छुपाया वह यह है कि मुसलमान और ईसाई तो उसके लिए सिर्फ फौरी लामबंदी का मोहरा हैं उसका अंतिम मकसद इस देश में स्वतंत्रता आंदोलन के लंबे विमर्श के नतीजे में आए संविधान को हटाकर उसकी जगह मनुस्मृति को प्रतिष्ठित करना है।

रामनवमी के दिन से देश भर में जो हो रहा है, उसे समझने के लिए आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक, और उनके एकमात्र ‘विचारक’ माधव सदाशिव गोलवलकर की लिखी ‘वी आॅर अवर नेशनहुड डिफाइंड; नाम की किताब में झांकना जरूरी है। 1936 में प्रकाशित इस किताब में उन्होंने लिखा है कि ‘नस्ल और संस्कृति को शुद्ध बनाए रखने के लिए (हिटलर की) जर्मनी ने यहूदियों का सफाया कर दुनिया को चौंका दिया।’ और यह भी कि नस्लीय गौरव सर्वोत्तम रूप में वहां प्रकट हुआ। (हिटलर की ) जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि भिन्न-भिन्न जड़ों वाली नस्लों और संस्कृतियों का एक हो जाना असंभव है।

यह हिंदुस्तान के लिए एक अच्छा सबक है।’ इसके बाद वे इससे और आगे जाते हैं और कहते हैं कि ‘हिंदुस्तान में रहने वालों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा को अपनाना, हिंदू धर्म का सम्मान करना और आदरपूर्ण स्थान देना सीखना होगा, हिंदू जाति और संस्कृति यानी हिंदू राष्ट्र का और हिंदू जाति, की महिमा के अलावा और किसी विचार को नहीं मानना होगा और अपने अलग अस्तित्व को भुलाकर हिंदू जाति में विलय हो जाना होगा या उन्हें हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर, किसी भी अधिकार का दावा किए बिना, बिना विशेषाधिकार के, यहां तक कि नागरिक के रूप में अधिकारों से वंचित होकर देश में रहना होगा।’

पिछले कुछ वर्षों में भले आरएसएस आधे अधूरे मन से कई अगर, मगर, किंतु, परंतु करके इस किताब से पल्ला झाड़ने का ऐलान कर चुका है, मगर इसे अमल में लाना उसने कभी नहीं छोड़ा। इसीलिए रामनवमी के दिन से यह जो हो रहा है, वह सिर्फ अल्पसंख्यकों पर हमला नहीं है। यह उससे कहीं आगे की, ज्यादा जघन्य और सांघातिक बात है। यह भारत के संविधान, लोकतंत्र, समावेशी धर्मनिरपेक्षता का ही विलोम नहीं है यह भारतीय सभ्यता के 5 हजार वर्षों के सभी सकारात्मक हासिलों का निषेध भी है।

यह ‘इंडिया दैट इज भारत’ की अवधारणा का नकार है। ठीक इसीलिए यह सभी भारतीय देशभक्तों की चिंता का मसला है। यह उनके लिए जीवन मरण की चुनौती है, जिससे निबटने के लिए उन्हें; हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों के भीषण हमले के शिकार हो रहे भारतीय गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक चरित्र की हिफाजत करने के लिए, भारतीय संविधान की रक्षा करने के लिए, संविधान में दिए गए अनुल्लंघनीय हक-अधिकारों का बचाव करने के लिए और जनविरोधी नीतियों के हमले के खिलाफ एकजुट होना होगा और मुकाबला करना होगा।

संतोष की बात है कि देश की 13 राजनीतिक पार्टियों ने इस संकट की संक्रामक सांघातिकता को समझा है और साझी अपील जारी की है-इसमें बाकी दलों और संगठनों को भी जुड़ना चाहिए। यह साझापन अपील से आगे मैदानी सक्रियता तक जाना चाहिए।


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