परमानंद परम |
जुआ खेलने की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। दीपावली जैसा महापर्व हो या फिर शादी के अवसर पर वर वधू द्वारा खेला जाने वाला जुआ हो, लोग इसे खेलकर सौभाग्य से युक्त होना चाहते हैं किंतु सनतकुमार संहिता के अनुसार भगवान शंकर ने माता पार्वती के पूछने पर बताया कि जुआ (द्यूत) मेरा एक ऐसा दूत है जो मनुष्य के संपूर्ण संचित धर्म एवं व्रतफलों को नष्ट करके उसे अपने साथ ले आता है। इसी से संबंधित एक कथा सनतकुमार संहिता में आती है जिसमें भगवान शंकर और पार्वती देवी के बीच जुआ खेलने का रोचक विवरण मिलता है।
सृष्टि के संहार करने वाले महेश्वर एवं देवी पार्वती कार्तिक शुक्लपक्ष प्रतिपदा के दिन जुआ खेलने बैठे। देवी पार्वती ने जुआ खेलते हुए भगवान शंकर से तीनों लोकों को जीत लिया। इस पर महेश क्र ोधित हो उठे और क्रुद्धावस्था में ही वे निराश होकर गंगातट पर जाकर बैठ गए। गंगातट पर क्रीड़ा करते हुए जब कुमार कार्तिकेय ने महेश्वर को नैराश्यावस्था में देखा तो उन्होंने महेश्वर से इसका कारण पूछा। कारण जानने के बाद कार्तिकेय ने महेश्वर से द्यूतविद्या को सीखा और माता पार्वती के पास आकर उन्होंने माता के साथ द्यूतक्र ीड़ा को खेलना प्रारंभ कर दिया। माता से तीनों लोकों को जीतकर कार्तिकेय ने महेश्वर को अर्पित कर दिया।
अब तक माता पार्वती इसी आशा में बैठी थीं कि महेश्वर अपनी हारी हुई सभी वस्तुओं को लेने जब उनके पास आएंगे तो वह उन्हें मना लेंगी किंतु कार्तिकेय ने उनसे सभी चीजों को जीतकर उनकी आशा पर पानी फेर दिया था। माता पार्वती ने पुत्र गणेश को बुलाया और उसे द्यूतविद्या सिखाकर महेश्वर के पास भेजा।
गणेश जी ने महेश्वर को द्यूतक्रीड़ा में हरा दिया और सभी वस्तुएं वापस लाकर माता पार्वती को लौटा दी। गणेश को आशीर्वाद देकर माता ने उन्हें वापस जाने के लिए कहा। गणेश के चले जाने के बाद माता पार्वती ने ध्यान करते हुए कहा- हे आदि देव! साम, दाम, दंड, भेद, किसी भी प्रकार से महेश्वर को वापस घर लाइये अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगी।
दूसरी ओर महेश्वर को चिंतित बैठे देखकर भगवान विष्णु, कार्तिकेय एवं नारद जी ने तीन पासे वाले एक जुए का निर्माण किया जिसका एक पासा स्वयं लक्ष्मीपति ने बनने का आश्वासन दिया। इसके अतिरिक्त एक भूमिका बांधकर नारद जी ने रावण के यहां जाकर उसे कुछ सिखाया। रावण ने नारद जी के बताए अनुसार कार्य करने की स्वीकृति दे दी। माता पार्वती के आदेशानुसार आदि देव गणेश मूषकवाहन पर द्रुतगति से महेश्वर की ओर बढ़े जा रहे थे, तभी रावण ने बीच रास्ते में पहुंचकर बिलाड़ की आवाज में चूहे (मूषक) को डराया। बिलाड़ की भयानक आवाज को सुनकर गणेश जी का चूहा भागकर बिल में जा छिपा और गणेश जी को वहां से गंतव्य की ओर पैदल ही जाना पड़ा।
दूसरी ओर भगवान विष्णु पासे के रूप में बदल ही रहे थे कि गणेश जी ने उन्हें पासा के रूप में बदलते देख लिया। वे महेश्वर के पास आकर बोले-हे देवों के देव! माता पार्वती आपका स्मरण कर रही हैं। अगर कुछ पल और इसी प्रकार व्यतीत हो जाएंगे तो वे अपना प्राणांत कर लेंगी।
महेश्वर ने शीघ्र आने का वचन देकर गणेश को विदा कर दिया। गणेश जी पैदल ही मातृमहल की ओर चल पड़े। इसी बीच भगवान विष्णु, नारद एवं रावण महेश्वर के समक्ष पहुंचे और महेश्वर को माता पार्वती से द्यूतक्र ीड़ा खेलने के लिए राजी करके माया से गणेश जी के पहुंचने से पहले ही महल में पहुंच गये। महेश्वर ने माता पार्वती से कहा -देवी! पहले आपको हमसे द्यूतक्रीड़ा करनी होगी। मैंने इस कार्य हेतु पासों का निर्माण भी किया है। यदि आप जीत गईं तो मैं अवश्य ही आपके साथ रहूंगा।
खेल आरंभ हुआ और महेश्वर जीतते चले गए। इसी बीच आदि देव गणेश भी वहां पहुंच गये। उन्होंने माता से कहा-महा माता! इन पासों से मत खेलिए। इन पासों में से एक में स्वयं भगवान विष्णु बैठे हैं। आपके साथ छल हुआ है। गणेश जी की बात सुनते ही माता पार्वती की आंखें ज्वालामयी हो गयीं। उन्होंने श्राप देते हुए कहा-मैं सभी को श्राप देती हूं कि एक अबला से छल करने के अपराध में महेश्वर का मस्तक सदैव अबला के भार से नत रहेगा। इधर-इधर सदा चिंगारी लगाने के कारण स्वप्न में भी नारद को किसी स्त्री का साहचर्य प्राप्त न होगा।
एक अबला से छल करने के कारण भगवान विष्णु की पत्नी का अपहरण रावण करेगा और इस छल में सहयोगी बनने के कारण रावण को विष्णु के हाथों मरना पड़ेगा। इस छल में सहयोग देने के कारण कार्तिकेय को भी श्राप देती हूं कि वे न कभी युवा होंगे और न ही बूढ़े। महेश्वर के दूत जुआ (द्यूत) को श्राप देती हंू कि वह जिस घर में भी जाएगा, उस घर की सुख-संपत्ति एवं खुशी को नष्ट कर देगा। माता पार्वती के श्राप का प्रभाव सब पर पड़ा और श्रापित जुआ हर घर को नष्ट करने लगा।