- फसलों की सिंचाई के समय अधिक पानी इस्तेमाल पर होता था मुकदमा
- सिंचाई विभाग के कैबिनेट मंत्री रहते कानून को खत्म कर दिलाई राहत
राजपाल पारवा |
शामली: जनपद के प्रथम नागरिक जिला पंचायत अध्यक्ष से लेकर प्रदेश के प्रथम नागरिक राज्यपाल के पद को सुशोभित करने वाले वीरेंद्र वर्मा को आम-ओ-खास आज भी याद करते हैं। उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लेते हुए आजादी की लड़ाई में जेल यात्राएं कीं, बल्कि अंग्रेजी कानून से राहत दिलाते हुए किसानों को फसलों की सिंचाई के लिए पानी सुलभ मुहैया कराने का मार्ग प्रशस्त किया।
वीरेंद्र वर्मा जिन्हें लोग स्नेह से ‘वर्माजी’ कहते थे, ने 1998 में कैराना लोकसभा सीट पर पहली बार भाजपा का परचम फहराया था। तब उन्होंने सपा के मुनव्वर हसन को पराजित कर संसद में दस्तक दी थी। 1943 में मेरठ कालेज, मेरठ से एलएलबी करने के पांच साल बाद वे जिला बोर्ड, मुजफ्फरनगर के अध्यक्ष बने, जो आज के समय की जिला पंचायत अध्यक्ष है। इसके बाद राजनीति की पगडंड़ी पर ‘वर्माजी’ सरपट दौड़ते चले गए। पहली बार 1952 में कैराना दक्षिण विधानसभा से विधायक बनने के बाद वे 1962, 1967, 1969 व 1977 में निर्वाचित होकर प्रदेश विधानसभा में पहुंचें। प्रदेश सरकार में वे 1970 से 1971 तक सिंचाई, बिजली, उद्योग, श्रम, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और गृह विभाग जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे। साथ ही, 1975 से 1977 कृषि मंत्री रहे।
सिंचाई के लिए अधिक पानी चलाना होता था गुनाह
पूर्व राज्यपाल स्व. वीरेंद्र वर्मा के पुत्र डा. सत्येंद्र वर्मा बताते हैं कि उप्र में नहरों व रजवाहों से सिंचाई करते समय अगर किसान ने फसलों की सिंचाई के लिए निर्धारित से अधिक समय पानी का इस्तेमाल कर लिया तो फिर पतरोल किसान के खिलाफ वाद दायर कर देता था। वाद निपटराने के लिए तारीख-पर-तारीख लगती थी। ‘वर्मा जी’ जब प्रदेश सरकार में सिंचाई मंत्री बने तो उन्होंने इस अंग्रेजी कानून से प्रदेश के किसानों को राहत दिलाई। तत्कालीन कैबिनेट सिंचाई मंत्री वीरेंद्र वर्मा की पहल पर कानून खत्म किया गया।
तटबंध के जरिए आमजन को बाढ़ से दिलाई राहत
डा. सत्येंद्र वर्मा बताते हैं कि बरसात के दिनों में यमुना नदी का जलस्तर काफी चढ़ जाता था। यमुना नदी के बाढ़ का पानी कस्बा झिंझाना तक आ जाता था। किसानों की हजारों बीघा फसलें बाढ़ में बर्बाद हो जाती थीं। ‘वर्माजी’ ने यमुना नदी किनारे करीब 80 किमी के क्षेत्र में बांध बनवाने का कार्य किया। इससे किसानों के साथ-साथ आम जनता को बाढ़ से राहत मिली। डा. सत्येंद्र वर्मा बताते हैं कि तटबंध बनने के बाद क्षेत्र के अनेक किसान उस समय ‘वर्माजी’ के पास आए थे, उन सभी कहना था कि उनसे आपका ये कर्ज इस जन्म में तो नहीं उतर पाएगा। हालांकि ‘वर्माजी’ उनको किसानों के हित में कार्य करना अपना फर्ज बताते थे।
…जब चौधरी चरण सिंह से गलत फहमियों से बढ़ीं दूरियां
पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरणसिंह और वीरेंद्र वर्मा में एक समय काफी नजदीकियां थी। यहां तक 1969 में चौ. चरण सिंह लहर में वीरेंद्र वर्मा बीकेडी के टिकट पर खतौली से विधायक बने। तब बीकेडी ने जनपद मुजफ्फरनगर में क्लीन स्विप किया था। इन मध्यावधि चुनाव के बाद चौ. चरणसिंह फरवरी 1970 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1971 प्रदेश विधानमंडल में नेता प्रतिपक्ष के रहते हुए लोकसभा चुनाव में चौ. चरण सिंह मुजफ्फरनगर लोकसभा सीपीआई के विजयपाल सिंह बराल से चुनाव हार गए। यह बड़ी हार थी, लंबे समय तक किसान इसे पचा नहीं पाए थे। इससे पूर्व चौ. चरणसिंह व वीरेंद्र वर्मा के बीच गलत फहमियों के साथ-साथ दूरियां उत्पन्न हो गई थी।
गलतफहमी का कारण डा. सत्येंद्र वर्मा, ‘वर्माजी’ के पार्टी का कोषाध्यक्ष रहते हुए हिसाब-किताब की बात करना बताते हैं। दूसरी ओर, हार के लिए तमाम लोगों ने गेंद वीरेंद्र वर्मा और नारायण सिंह के पाले में डाल दी थी। हालांकि वीरेंद्र वर्मा ने चौ. चरण सिंह से कहा था कि आपके जीतने के बाद वे प्रदेश विधानमंडल दल में नेता प्रतिपक्ष बनते। फिर, वे ऐसा क्यों करेंगे? इसके बाद भी गलतफहमियां दूर नहीं हुई थी। यही कारण रहा कि 1980 के चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह की धर्मपत्नी गायत्री देवी ने कैराना लोकसभा पर नारायण सिंह के सामने ताल ठोंक दी। गायत्री देवी ने नारायण सिंह को करीब 60 हजार मतों से हराया। तब, लोगों का कहना था कि मुजफ्फरनगर से चौ. चरण सिंह की हार का बदला गायत्री देवी ने नारायण सिंह को हराकर ले लिया है।
बेटे को राजनीति में नहीं मिली सफलता
एक ओर जहां वीरेंद्र वर्मा राज्यपाल के पद तक पहुंचें, वहीं उनका बेटे डा. सत्येंद्र वर्मा को राजनीति में सफलता नहीं मिली। डा. सत्येंद्र वर्मा ने 2012 में शामली विधानसभा सीट से भाजपा के टिकट पर पहला चुनाव लड़ा, लेकिन वे चौथे नबंर पर रहे थे। इसके बाद उन्होंने फिर चुनाव नहीं लड़ा।