एक साधु को एक नाविक रोज नदी के इस पार से उस पार ले जाता था, बदले मैं कुछ नहीं लेता था। नाविक सरल था पढा-लिखा तो नही पर समझ की कमी नही थी। साधु रास्ते में ज्ञान की बात कहते कभी भगवान की सर्वव्यापकता बताते और कभी अर्थसहित श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक सुनाते। नाविक मछुआरा बङे ध्यान से सुनता और बाबा की बात ह्रदय में बैठा लेता।
एक दिन उस पार उतरने पर साधु नाविक को कुटिया में ले गए और बोले, वत्स, मैं पहले व्यापारी था धन तो कमाया था पर अपने परिवार को आपदा से नही बचा पाया था, अब ये धन मेरे किसी का काम का नही तुम ले लो, तुम्हारा जीवन संवर जाएगा। नाविक बोला, नहीं महाराज, मैं ये धन नहीं ले सकता।
मुफ्त का धन घर में जाते ही आचरण बिगाड़ देगा। बिना परिश्रम के आलसी जीवन, लोभ लालच और पाप बढ़ाएगा। आप ही ने मुझे ईश्वर के बारे में बताया, मुझे तो आजकल लहरों में भी कई बार वो नजर आता है। जब मैं उसकी नजर में ही हूं तो फिर अविश्वास क्यों करूं, मैं अपना काम करूं और शेष उसी पर छोङ दूं।
एक वो जिसने दु:ख आया तो भगवा पहना, संन्यास लिया धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया और समझाने लायक स्थिति में भी आ गया, फिर भी धन की ममता नहीं छोङ पाया, सुपात्र की तलाश करता रहा। और दूसरी तरफ वो निर्धन नाविक, धन नहीं होने पर भी पराये धन के प्रति कोई ललक नहीं संसार में लिप्त रहकर भी निर्लिप्त रहना आ गया। भगवा नहीं पहना संन्यास नही लिया, पर उस का ईश्वरीय सत्ता में विश्वास जम गया। श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों को व्यवहार में भी उतारा और पल भर में धन के मोह को ठुकरा गया। सोचिए बड़ा वैरागी कौन-साधु या नाविक?
प्रस्तुति: राजेंद्र कुमार शर्मा