एक नदी तट पर स्थित बड़ी सी शिला पर एक महात्मा बैठे हुए थे। वहां एक धोबी आता है किनारे पर वही मात्र शिला थी जहां वह रोज कपड़े धोता था। उसने शिला पर महात्मा जी को बैठे देखा तो सोचा-अभी उठ जाएंगे, थोड़ा इन्तजार कर लेता हूं अपना काम बाद में कर लूंगा।
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एक घंटा हुआ, दो घंटे हुए फिर भी महात्मा उठे नहीं अत: धोबी नें हाथ जोड़कर विनय पूर्वक निवेदन किया कि महात्मन यह मेरे कपड़े धोने का स्थान है आप कहीं अन्यत्र बिराजें तो मै अपना कार्य निपटा लूं। महात्मा जी वहां से उठकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गए। धोबी नें कपड़े धोने शुरू किए, पछाड़ पछाड़ कर कपड़े धोने की क्रिया में कुछ छींटे उछल कर महात्मा जी पर गिरने लगे। महात्मा जी को क्रोध आया, वे धोबी को गालियां देने लगें।
उससे भी शान्ति न मिली तो पास रखा धोबी का डंडा उठाकर उसे ही मारने लगे। महात्मा को क्रोधित देख धोबी ने सोचा अवश्य ही मुझ से कोई अपराध हुआ है। अत: वह हाथ जोड़ कर महात्मा से माफी मांगने लगा। महात्मा ने कहा, दुष्ट तुझ में शिष्टाचार तो है ही नहीं, देखता नहीं तूं गंदे छींटे मुझ पर उड़ा रहा है? धोबी ने कहा, महाराज शान्त हो जाएं, मुझ गंवार से चूक हो गई, लोगों के गंदे कपड़े धोते धोते मेरा ध्यान ही न रहा, क्षमा कर दें। धोबी का काम पूर्ण हो चुका था, साफ कपडे समेटे और महात्मा जी से पुन: क्षमा मांगते हुए लौट गया।
महात्मा नें देखा धोबी वाली उस शिला से निकला गंदला पानी मिट्टी के संपर्क से स्वच्छ और निर्मल होकर पुन: सरिता के शुभ्र प्रवाह में लुप्त हो रहा था, लेकिन महात्मा के अपने शुभ्र वस्त्रों में तीव्र उमस और सीलन भरी बदबू बस गई थी। कौन धोबी कौन महात्मा? यथार्थ में धोबी ही असली महात्मा था, संयत रह कर समता भाव से वह लोगों के दाग दूर करता था।