Wednesday, April 30, 2025
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शहर की सबसे पुरानी कालोनी में क्यों पास नहीं हो रहे नक्शे?

  • मानचित्र स्वीकृत करने से कन्नी काटने के पीछे प्राधिकरण के अफसरों का महाखेल

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: शहर की सबसे पुरानी कालोनियों में शुमार मसलन जब मेरठ विकास प्राधिकरण का उदय हुआ है। उसी दौर की सिविल लाइन स्थित मानसरोवर कालोनी है। साल 2016 से मानसरोवर कालोनी के मेरठ विकास प्राधिकरण में मानचित्र पास नहीं किए जा रहे हैं। इस कालोनी में बगैर मानचित्र स्वीकृत कराए ही अंधाधुंध निर्माण चल रहा है। साल 2016 के बाद ये मानसरोवरों में यहां जितने भी निर्माण किए जा रहे हैं, उनमें से किसी का भी मानचित्र पास नहीं किया गया है। इस बीच जानकारी दी गई है शहर की इस पुरानी कालोनी में बनने वाले भवनों का मानचित्र स्वीकृत न करने के पीछे प्राधिकरण अफसरों का बड़ा खेल है।

प्राधिकरण के अफसरों के इस खेल को बेपर्दा करते हुए नाम ना छापे जाने की शर्त पर मानसरों के कुछ पुराने वाशिंदों ने संवाददाता को बताया कि मेरठ विकास प्राधिकरण का उदय 1973 में हुआ था। प्राधिकरण के तत्कालीन अफसरों ने पॉलिसी जारी की थी कि 1976 तक के पहले के जो भी निर्माण है। वहां मानचित्र की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई। जहां जो जैसा है स्वीकार कर लिया गया, लेकिन 1976 के बाद मानचित्र की अनिवार्यता कर दी गयी। मानसरोवर कालोनी में भी मेरठ विकास प्राधिकरण के उदय के आसपास की बतायी जाती है।

हालांकि कुछ लोग मानसरोवर कालोनी का उदय काल 1969 बताते हैं। वहीं, दूसरी ओर जानकारी देने वालों ने संवाददाता को प्राधिकरण से साल 1984 में पास कराया गया। इस कालोनी का एक मानचित्र भी दिखाया। 2916 तक मानसरोवर के होने वाले निर्माणों के मानचित्र स्वीकृत कराने में कोई पाबंदी नहीं थी और न ही कोई रोकाटोकी थी, लेकिन तब के बाद से यहां जितने भी निर्माण किए गए सरकारी नजरिये की बात करें तो सभी अवैध हैं और उनका ध्वस्तीकरण भी तय है। इसकी वजह यहां किसी भी निर्माण का मानचित्र स्वीकृत नहीं किया जा रहा है।

खेल का खुलासा

मानसरोवर का सर्किल रेट करीब 55 हजार का है, लेकिन जो लोग यहां रहने की ख्वाहिश रखते हैं, वो सर्किल रेट से दोगुना मसलन एक लाख रुपये गज की जमीन खरीद रहे हैं और वहां नए सिरे से निर्माण करा रहे हैं। जितने भी निर्माण हो रहे हैं, वो यहां के पुराने मकानों को तोड़कर कराए जा रहे हैं। कुछ पुराने मकानों को कोठी का स्वरूप दे दिया गया है तो कुछ में फ्लैट बनाए जा रहे हैं। यहां ये भी बता दें कि जिन मकानों को कई मंजिला फ्लैट में तब्दील किया जा रहा है। वहां भू-उपयोग परिवर्तित नहीं कराया जा रहा है

। जब प्राधिकरण से मानचित्र ही स्वीकृत नहीं कराए जा रहे हैं तो फिर फ्लैट बनाने के लिए भूउपयोग यानि व्यवसायिक उद्देश्य के लिए भू-उपयोग का लफ्डा कौन पाले की तर्ज पर ही निर्माण जारी हैं। दरअसल, प्राधिकरण के कुछ अफसरों का मानसरोवर कालोनी के नक्शे पास न करने के पीछे बड़ा खेल बताया जा रहा है। इस कालोनी में ज्यादातर प्लाट जिन पर पुराने भवन बने हैं, वो सभी 300 गज के हैं। सर्किल रेट के हिसाब से यहां कोई भी अपना पुराना भवन नहीं बेच रहा है, बल्कि सर्किल रेट से दोगुने से भी ज्यादा के दाम पर यहां सौदे जा रहे हैं।

किसी भी भवन का मानचित्र स्वीकृत कराने के लिए प्राधिकरण में बैनामे की कापी जमा करनी होती है। बैनामे में जो लिखा पढ़ी रेट को लेकर की जाती है उसकी पर्देदारी रखी जाती है। उस रेट पर मानचित्र स्वीकृत यदि कराया जाता है तो सरकारी खजाने में बड़ी रकम जाएगी। इस बड़ी रकम खर्च करने से बचाने के रास्ते प्राधिकरण के ही कुछ अफसर मानसरोवर में कोठी व फ्लैट का निर्माण करने वालों को बताते हैं। मसलन जो डिमांड की जा रही है।

बस वह पूरी कर दो और फिर आराम से बगैर किसी मानचित्र के जैसा चाहो वैसा भवन बना लो। जानकारों का ये भी कहना कि फौरी तौर पर जिस फायदे को बताकर अफसर यहां निर्माण करा रहे हैं। उन पर हर वक्त ध्वस्तीकरण की तलवार भी लटकी रहेगी। यदि कभी भी कोई ईमानदार मिजाज का अफसर आ गया और मानसरोवर की फाइल की धूल झाड़नी शुरू कर दी तो या

तो भारी भरकम रकम कंपाउंडिंग में देनी होगी या फिर ध्वस्तीकरण की कार्रवाई देखनी पड़ जाएगी। दोनों में से एक बात तो होनी तय है। वहीं, इस संबंध में मेरठ विकास प्राधिकरण के जोनल अधिकारी अर्पित कृष्ण यादव से जब इस संबंध में जानकारी ली गयी तो उन्होंने हैरानी के साथ अनभिज्ञता जाहिर की और बताया कि यदि ऐसा है तो जांच करायी जाएगी। साथ ही जिन पुराने मकानों को तोड़कर फ्लैट बनवाए जा रहे हैं। उनकी भी जांच कराकर कार्रवाई की जाएगी।

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