हम दावा कुछ भी करें, हकीकत यह है कि केंद्र सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद मणिपुर का संकट हल होने का नाम नहीं ले रहा है। वहां हिंसा लगातार जारी है। बीते दिनों ही एक बार हिंसा फिर भड़क उठी। हालात इतने खराब हैं कि राज्य के 16 में से 11 जिलों में अब भी कर्फ्यू जारी है। पूरे राज्य में इंटरनेट सेवाएं बंद हैं। यह इस बात का सबूत है कि समस्या लगातार विषम होती जा रही है। जबकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की चार दिवसीय मणिपुर की यात्रा जिसमें हुई सर्वदलीय बैठक, मैती समुदाय के लोगों से भेंट, हिंसा प्रभावित चंद्रचूड़पुर में विभिन्न हितधारकों व आदिवासी समुदाय के नेताओं तथा कुकी विधायकों-आईटीएलएफ के प्रतिनिधियों के साथ ही चिन-कुकी-मिजो समुदाय सहित कई सफल बैठकों से इस आशावाद को बल मिला था कि अब इस समस्या का समाधान निकट भविष्य में हो जाएगा।
लेकिन इस दौरान इंफाल में एम्बुलेंस में जा रहे मां-बेटे सहित एक रिश्तेदार की दो हजार की मैती समुदाय की भीड़ द्वारा घेरकर जला दिया जाना, सीमा सुरक्षा बल व असम राइफल्स के जवान की गोली मारकर हत्या और दो को घायल कर दिया जाना यह साबित करता है कि वहां के लोग निर्दयता की सीमा लांघ चुके हैं और पागल हो गए हैं।
हालात इस बात के गवाह हैं कि इंफाल से बाहर जाने वाली कोई सड़क भी सुरक्षित नहीं है। हालात के मद्देनजर अब केंद्र सरकार ने वहां संविधान के अनुच्छेद 355 को लागू करने का फैसला कर चुकी है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि केंद्र सरकार ने यह फैसला तब लिया है जबकि वहां भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार है।
राज्य के हिंसाग्रस्त इलाकों में असामाजिक तत्वों ने कानून व्यवस्था का जिस तरह मखौल उड़ाया है, वह चिंतनीय तो है ही, साथ ही उस राज्य जिसे सुधार की एक नयी राह पर बढ़ते सुरक्षित राज्य का दर्जा दिया गया था, उसकी छवि को भी धक्का लगा है।
दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के आवास पर कुकी समुदाय की महिलाओं ने प्रदर्शन किया और मांग की कि राज्य में अनुच्छेद 355 नहीं बल्कि अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए, ताकि राज्य की बागडोर पूरी तरह केंद्र सरकार के हाथ में रहे।
वहीं अंतरराष्ट्रिय स्तर के 13 खिलाड़ियों और पदक विजेताओं ने गृहमंत्री अमित शाह से जल्द से जल्द मणिपुर में शांति और सद्भाव बहाल करने व कुकी उग्रवादियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की मांग की है। साथ ही उन्होंने कहा है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो वे अपने पदक और पुरस्कार वापस कर देंगे।
अब यदि राज्य के इतिहास और हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि मणिपुर और राज्यों से काफी कुछ अलग है। इस राज्य के चरित्र को यहां की जनजातियों ने ही जटिल और दुरूह बनाने में अहम भूमिका निभाई है। यहां रहने-बसने वाली जनजातियां में बहुतेरी उप जनजातियां हैं, जिनमें हमेशा से तनाव और हिंसा का इतिहास रहा है।
1997 में कुकी और उसकी उप जनजाति पाइटी का संघर्ष जगजाहिर है। यहां म्यांमार से भागकर आए चिन नामक लोगों की बहुतायत है। इनकी तादाद कुकी इलाकों में सबसे ज्यादा है। इनमें आपस मेंं संबन्ध भी हैं। देखा जाए तो चूराचांदपुर इलाके की आबादी पहले मात्र 60 हजार थी, जो अब तकरीबन 6 लाख हो गई है। इससे मैती समुदाय असुरक्षित महसूस करने लगा है।
जातीय संघर्ष के पीछे यही अहम वजह है। ऐसे हालात को अलगाववादी उग्रवादी गुटों ने खूब भुनाया। इनमें चीन की भूमिका अहम रही। उससे उनको न केवल हथियारों का प्रशिक्षण मिला बल्कि आधुनिक हथियारों से इनको लैस भी किया गया। फिर इन सबके बीच संघर्ष कोई नया नहीं है। लगभग डेढ़-एक दशक पहले को लें तब वहां शाम के चार बजे ही कर्फ्यू लग जाया करता था।
न ठहरने का कोई अच्छा होटल था, और वहां आवागमन व सुरक्षित परिवहन तो कल्पना से परे था। पर्यटक तो नाममात्र के दिखते थे। कारोबार था नहीं। नौजवान शिक्षा हासिल करने दिल्ली-बंगलुरू जाते थे। लेकिन बीते कुछेक सालों की यहां की प्रगति काबिले तारीफ है। अब यहां आवागमन सुगम हुआ है, सड़कें हैं, परिवहन सुविधा है, कुछेक होटल भी हैं और कुछ कारोबार भी शुरू हुए हैं।
हां जो विकास हुआ, वह राजधानी इम्फाल के आसपास ही दिखाई देता था, सुदूर अंचल उससे अछूते थे। इस बीच येनकेन प्रकारेण हथियारबंद गुटों ने अपनी ताकत बढ़ाई, जिनका उन्होंने न केवल इस बार प्रदर्शन किया बल्कि इस्तेमाल भी भरपूर किया।
असली समस्या यह है कि आजादी के बाद पहली बार पूर्वोत्तर की अनदेखी का सिलसिला मोदी सरकार के कार्यकाल में टूटा। हुआ यह कि 2017 में एक समझौता हुआ जिसके तहत मिजोरम में हिंदुओं के पुनर्वास का प्रावधान किया गया। मिजोरम में इसके तहत जो रियांग हिंदुओं के साथ हुआ, ठीक वैसा ही मणिपुर में आज मैती समुदाय के साथ हो रहा है।
इसके पीछे मणिपुर उच्च न्यायालय का वह फैसला है जिसके तहत मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग स्वीकार की गई है। यह कुकी समुदाय के गले नहीं उतरा और उनके निशाने पर मैती जनजाति आ गई। नतीजतन हिंसा भड़कीऔर उसने विकराल रूप अख्तियार कर लिया। नतीजन इस हिंसा के चलते तकरीबन 35 से 40 हजार लोग विस्थापन के शिकार हुए।
संक्षेप में कहा जाए तो यहां मैती हिंदू समुदाय के साथ एक यह विसंगति भी है। वह यह कि हैं तो वे मणिपुर में बहुसंख्यक, लेकिन वह केवल इंफाल घाटी में ही रहने को विवश हैं। उन पर राज्य के पर्वतीय अंचल में जमीन खरीदने और खेती करने पर कानूनन पाबंदी है।
इन पहाड़ क्षेत्रों में कुकी जो ईसाई बन चुके हैं और नगाओं का वर्चस्व है। जबकि कुकी और नगा समुदाय के इंफाल घाटी में रहने-बसने पर कोई पाबंदी नहीं है। तात्पर्य यह कि मैती हिंदू जो आबादी के लिहाज से 53 फीसदी हैं, राज्य के मात्र 8 फीसदी हिंदू अपने ही राज्य में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर हैं। जाहिर है कि मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा मिलने के बाद भी उन्हें हकीकत में जनजाति का दर्जा नहीं मिला।
इसलिए जरूरी है कि जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि मणिपुर की शांति हमारी प्राथमिकता है, तो सबसे पहले दोनों समुदायों के बीच फैसले अविश्वास के माहौल को खत्म किया जाए। सामुदायिक आधार पर बेटे राजनीतिक दलों के नेताओं से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य के विकास को मद्देनजर रखते हुए शांति स्थापना में सहयोग दें।
राहत के फौरी इंतजाम काफी नहीं हैं, जरूरी है, प्रभावित लोगों के साथ बातचीत और उन्हें सुरक्षा प्रदान करना, विस्थापितों का पुनर्वास के साथ विद्रोहियों पर नियंत्रण। सुरक्षा फलों से लूटे गए हथियारों की वापसी बेहद जरूरी है। शांति स्थापना में स्थानीय लोगों की सहभागिता और उनके सकारात्मक योगदान की सराहना के साथ शांति की राज्य के गांव-गांव तक स्थापना के प्रयास ही सुखद परिणाम के कारक हो सकते हैं।
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