Saturday, January 4, 2025
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राजनीति की दिशा बदलेंगे चुनाव?

 

Samvad 16


Rituparn Devक्या पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव वाकई देश की राजनीति में नया प्रयोग का रास्ता बनने जा रहे हैं। देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले अकेले उत्तर प्रदेश की हैसियत 10 मार्च को किस मोड़ पर होगी, महज कयास ही हैं। जाहिर है इस बार पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हालात काफी अलग हैं। सीधी टक्कर सत्ताधारी भाजपा व सहयोगियों तथा सपा व सहयोगियों के बीच दिख रही है। बसपा और कांग्रेस मैदान में जरूर हैं पर रेस में दिखते नहीं। 2017 की तरह इस बार किसी लहर का कहर न होने से बाकी दलों ने आस लगा रखी है। हां, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चुनावी नतीजे 2017 से इतर होंगे। उत्तर प्रदेश की सियासत का अपना एक अलग मिजाज है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों को स्थानीय उम्मीदों व जातीय आधार पर तय करते हैं। अगड़े-पिछड़े और दलित मतदाताओं की भूमिका की छाप सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में ही दिखती है।

वोट कटवा, बी पार्टी, डमी उम्मीदवार और धार्मिक मुद्दों पर जैसी संवेदनशीलता उत्तर प्रदेश में दिखा करती है, वैसी शायद किसी दूसरे राज्य में उतनी नहीं। इस कारण भी इस बार के चुनाव काफी अलग से दिखने लगे हैं। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अयोध्या विवाद निपटारे के बाद, तेजी से बन रहे राम मंदिर और राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का वादा कि साल 2023 में गर्भ गृह में रामलला को विराजमान कर दिया जाएगा और अयोध्या आने वाले श्रद्धालु दर्शन उनके मंदिर में ही कर सकेंगे, चुनाव में असर डालेगा। हिजाब का मसला भी ऐन चुनावों के वक्त भले ही सोची समझी चाल या महज इत्तेफाक हो लेकिन अलग ढ़ंग से भंजाने की कोशिशें होंगी। भले ही उत्तर प्रदेश के पहले चरण और दूसरे के मतदान के बाद राजनीतिक दलों के दावे कुछ भी हों, लेकिन नतीजों का पिटारा खुलने के बाद ही समझ आएगा कि उत्तर प्रदेश ने देश की राजनीतिक धारा मे अपना कैसा दबदबा बनाया।

उत्तराखंड की सभी 70 व गोवा की 40 सीटों के चुनाव भी 14 फरवरी को निपट गए। उत्तराखंड चुनाव से ठीक पहले यहां भी हिजाब विवाद के बीच मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का वादा कि भाजपा सरकार बनी तो शपथ ग्रहण के तुरंत बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कराने खातिर ड्राफ्ट कमेटी बनेगी, जिसके दायरे में विवाह, तलाक, जमीन जायदाद व उत्तराधिकार के मामले भी शामिल होंगे, बड़ा राजनीतिक पैंतरा माना जा रहा है। भाजपा ने उत्तराखंड में बड़े-बड़े प्रयोग करते हुए चार साल के कार्यकाल में तीन मुख्यमंत्रियों बदले। पुष्कर सिंह धामी उनमें सबसे नए हैं। यहां आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और दिल्ली पैटर्न का प्रचार कर अपनी जड़ें जमाने तो कांग्रेस साख बचाने के लिए संघर्षशील दिखी। लेकिन सत्ता के संघर्ष को लेकर ज्यादा कुछ बदले ऐसा लगता नहीं।

सुंदर समुद्र तटों और एक अलग तरह के खुलेपन के लिए मशहूर गोवा में भाजपा के लिए चुनौती पेश करने की कोशिशें कितनी सफल या विफल होती हैं यह तो नतीजे बताएंगे। लेकिन हां इतना जरूर है कि मनोहर पर्रिकर जैसे ईमानदार नेता की कमी जरूर गोवा वासियों को टीसती रही। पहली बार टीएमसी की धमाकेदार एंट्री से राजनीतिक समीकरण शुरू में जरूर बदलते दिखे। लेकिन कुछ ही दिनों में कई की रुखसती से बड़े करिश्मे की उम्मीद बेकार है। आम आदमी पार्टी भी यहां पूरी दमखम से चुनावी मैदान में दिखी जिसका फायदा तय है। लेकिन शिवसेना की गोवा में एंट्री और 10 सीटों पर उम्मीदवारी से सत्ता तक पहुंचने वालों को कितनी मशक्कत करनी पड़ेगी, यह वक्त बताएगा। मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर के निर्दलीय चुनाव लड़ने के बाद पणजी सीट से अपना उम्मीदवार वापस कर भविष्य के बड़े संकेत जरूर दे दिए हैं।

कांग्रेस कहां होगी? क्या इस बार सत्ता तक पहुंच पाएगी, इस पर संदेह सभी को है। हां, आत्मविश्वास से लबरेज अरविन्द केजरीवाल यहां भी दिल्ली सरकार का उदाहरण और सरकारी सेवाओं की डोरस्टेरप डिलीवरी से भृष्टादचार के पूरी तरह खात्मे का भरोसा दिलाकर 24 घंटे फ्री बिजली देने का चुनावी वायदा कितना दमदार रहा यह मतपेटियों के खुलने के बाद समझ आएगा।

इस चुनाव में पंजाब की राजनीति एक त्रिकोण में जरूर फंसी दिखी। कैप्टन अमरिंदर की कांग्रेस से विदाई और भाजपा से दोस्ती तो सिद्ध के अलग-अलग तेवरों बीच ऐन चुनाव से ठीक पहले दलित कार्ड खेलकर नए मुख्यमंत्री चन्नी को फिर से मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करना पंजाब की राजनीतिक हवा का कितना रुख बदल पाएगा यह तो नहीं पता। वहीं आम आदमी पार्टी का भी भगवन्त मान को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर मतदाता को लुभाना राजनीति में नया प्रयोग जरूर है। लेकिन लोकतंत्र से इतर है क्योंकि विधायकों के बने बिना ही हक छीनना बेजा लगता है। इसे तानाशाही कहें, थोपना या लोकतंत्र का चीरहरण थोड़ा मुश्किल है। यहां भी आम आदमी पार्टी को कमजोर आंकना बड़ी भूल होगी।

मणिपुर की 60 सीटों पर दो चरणों में 28 फरवरी और 5 मार्च को चुनाव होंगे। मणिपुर हिंदू बहुल राज्य है और आखिर में चुनाव है। सो देश के नामी गिरामी चेहरों की शिरकत होनी तय है। 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद कांग्रेस यहां सत्ता से दूर रह गई। वहीं 21 सीटें जीत भाजपा ने स्थानीय दलों व विधायकों से गठजोड़ कर सत्ता हासिल कर ली। इस बार भाजपा गठबंधन की खास सहयोगी नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की बगावत कितनी असरकारक होगी यह नतीजे बताएंगे, लेकिन भाजपा के 19 असंतुष्टों को टिकट देकर चुनाव को रोचक जरूर बना दिया है। जबकि कांग्रेस ने सेक्युलर दलों को साथ लेकर नई रणनीति बनाई है। बीते चुनाव में केवल तीन विधायक कम होने के बावजूद फौरन निर्णय में विफल कांग्रेस से 10 सीटें पीछे रहने वाली भाजपा सरकार बना ले गई। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी), नागा पीपुल्स फ्रण्ट (एनपीएस) के साथ ही वामपंथी खेमा भी पूरी तरह लामबंद है, जिससे चुनाव का एक अलग ही माजरा नजर आता है। इतना जरूर है कि यहां की राजनीतिक सोच अनप्रिडेक्टिबल यानी अप्रत्याशित होती है। क्या इस बार भी होगी?

तो क्या माना जाए कि पांच राज्य मिलकर देश में 2024 में बनने वाली नई सरकार की तकदीर की तदबीर लिखेंगे या फिर अकेले उत्तर प्रदेश से ही यह रास्ता हमेशा की तरह निकलेगा? इंतजार है 10 मार्च का, नतीजे कुछ भी हों अगले आम चुनावों के लिए जहां ये लिटमस टेस्ट तो होंगे ही वहीं मुमकिन है कि राजनीति की नई इबारत भी बनें।

ऋतुपर्ण दवे


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