तुर्किये और सीरिया में आए विनाशकारी भूकंप में पांच हजार से अधिक लोगों की मौत ने दुनिया को दर्द से भर दिया है। यह पहली बार नहीं है जब मानव जाति को भीषण भूकंप से मची तबाही का खौफनाक मंजर देखना पड़ा है। दुनिया के किसी न किसी हिस्से में अकसर भूकंप से इस तरह की तबाही का मंजर देखने को मिलता रहता है। अगर इसके पूर्वानुमान में सफलता मिल जाए तो भूकंप से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हालांकि रुस और जापान में आए अनेक भूकंपों के पर्यवेक्षणों से पूर्वानुमान के संकेत सामने आने लगे हैं। लेकिन यह अभी भी कारगर साबित नहीं हो रहा है। सच तो यह है कि पूरी दुनिया भूकंप की जद में है। गौर करें तो विश्व के भूकंप क्षेत्र मुख्यत: दो तरह के भागों में हैं एक-परिप्रशांत (सर्कम पैसिफिक) क्षेत्र जहां 90 फीसद भूकंप आते हैं और दूसरा-हिमालय और आल्पस क्षेत्र। भूकंप क्षेत्रों का इन प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: भूकंप के कई कारण हैं लेकिन भारत और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव हिमालय क्षेत्रों में भूकंप का प्रमुख कारण है। अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो ये प्लेटें 40 से 50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान है।
इस प्लेट की सीमा विस्तृत है। यह भारत में उत्तर में सिंधु-सांगपो सुतुर जोन से दक्षिण में हिमालय तक फैली है। यूरेशिया प्लेट के नीचे उत्तर की ओर स्थित भारत प्लेटों की वजह से पृथ्वी पर यह भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। वैज्ञानिकों की मानें तो कश्मीर से नार्थ ईस्ट तक का इलाका भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। इसमें हिमाचल, असम, अरुणाचल प्रदेश, कुमाऊं व गढ़वाल समेत पूरा हिमालयी क्षेत्र शामिल है।
निश्चित रुप से उत्तरी मैदान क्षेत्र भयावह भूकंप के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय सम्पीडन के फलस्वरुप इस मैदान में कई दरारें बन गयी है।
यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीध्र ही कंपित हो जाता है। अगर इस क्षेत्र में भूकंप आता है तो भीषण तबाही मच सकती है। भीषण भूकपों से भारत में भी अनगिनत बार जनधन की भारी तबाही मच चुकी है। उदाहरण के लिए 11 दिसंबर 1967 में कोयना के भूकंप से सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबर-खाबड़ भू-भागों में तब्दील हो गए। हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुई।
अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में उस्मानाबाद और लातूर के भूकंपों में हजारों व्यक्तियों की जानें गईं और अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकंप में लगभग पांच हजार लोग कालकवलित हुए। 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज कस्बे में आए भूकंप से 30000 से अधिक लोगों की जानें गयी। अभी हाल ही में इराक-ईरान सीमा पर आए 7.3 तीव्रता के भीषण भूकंप में तकरीबन 500 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत हुई।
गत वर्ष पहले म्यांमार सीमा के निकट शक्तिशाली भूकंप आया थ जिसके झटके ने पूर्वोत्तर राज्यों समेत पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के लोगों को डरा दिया था। इससे पहले पूर्वोत्तर में आए भीषण भूकंप में डेढ़ दर्जन से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए थे।
भूकंप में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकंप जापान में आते हैं। इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित की है जो भूकंप के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है। इसके अलावा सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य व व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करे।
मानव जाति के लिए भी चाहिए कि वह प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाए। यह देखा जा रहा है कि विकास की अंधी दौड़ में मानव जाति प्रकृति के विनाश पर आमादा है। मनुष्य के इस विनाशकारी कदम से जंगल उजड़ रहे हैं और जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसद कमी आई है।
बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है। हालांकि प्रकृति में हो रहे बदलाव से मानव जाति चिंतित है लेकिन फिर भी अपने दुराग्रहों के साथ है। लिहाजा प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गयी है। समझना होगा प्रकृति सार्वकालिक है।
मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिंदू पर क्यों न पहुंच जाए उसकी एक छोटी-सी खिलवाड़ भी सभ्यता का सर्वनाश कर सकती है। लेकिन विडंबना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने को तैयार नहीं है। वह अपनी समस्त उर्जा प्रकृति को ही अधीन करने में झोंक रहा है। उसे समझना होगा कि जब तक प्रकृति से एकरसता स्थापित नहीं होगी तब तक प्रकृति के गुस्से का कोपभाजन बनना होगा।
गौर करना होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिश्र की नील नदी घाटी की सभ्यता या दजला-फरात हो या ह्नांगहों घाटी की सभ्यता सभी में प्रकृति के प्रति एकरसता थी। इन सभ्यताओं के लोग प्रकृति को ईश्वर का प्रतिरुप मानते थे। यह समझना होगा कि अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का दुनिया लोहा मानती है, वे भी प्रकृति की कहर के आगे घुटने टेक चुके हैं। अगर मानव जाति प्रकृति के प्रति अपने क्रुरता-निष्टुरता का परित्याग नहीं करता है तो उसका अस्तित्व मिटना तय है।