इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश पर बनी रहेगी, ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके बावजूद बरसात के विदा होते ही देश के बड़े हिस्से में बूंद-बूंद के लिए मारामारी शुरू हो जाती है। जानना जरूरी है कि नदी-तालाब- बावड़ी-जोहड़ आदि जल स्रोत नहीं हैं, ये केवल जल को सहेज रखने के खजाने हैं। जल स्रोत तो बारिश ही है और जलवायु परिर्तन के कारण साल दर साल बारिश का अनयिमित होना, बेसमय होना और अचानक तेज गति से होना घटित होगा ही। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।
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यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। असल में इस बात को लोग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।
जरा देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास है और जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जो दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित हो पाता है। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।
जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है, जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
जल को ले कर हमारी मूल सोच में थोड़ा बदलाव करना होगा-एक तो जान लें कि जल का स्रोत केवल बरसात है या फिर ग्लेशियर। हमें अभी तक जो पढ़ाया जाता है कि नदी, समुद्र, तालाब, कुआं-बावड़ी जल के स्रोत हैं, तकनीकी रूप से गलत है-ये सभी जल को सहेजने के तंत्र हैं। दुखद है कि बरसात की हर बूंद को सारे साल जमा करने वाली गांव-कस्बे की छोटी नदियां बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ के चलते या तो लुप्त हो गर्इं या गंदे पानी के निस्तार का नाला बना दी गई । देश के चप्पे-चप्पे पर छितरे तालाब तो हमारा समाज पहले ही चट कर चुका है। बाढ़-सुखाड़ के लिए बदनाम बिहार जैसे सूबे की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा।
गत तीन दशक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां-कमला, बलान, फल्गू, घाघरा आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाइलों में तो दर्ज हैं, लेकिन उनकी चिंता किसी को नहीं।
राज्य की राजधानी रांची में करमा नदी देखते ही देखते अतिक्रमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जल धारा मर गई। नदियों की जीवनस्थल कहा जाने वाला उत्तराखंड हो या फिर दुनिया की सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर मेघालय छोटी नदियों के साल-दर-साल लुप्त होने का सिलसिला जारी है।
प्रकृति तो हर साल कम या ज्यादा , पानी से धरती को सींचती ही है लेकिन असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुंए से रस्सी डाल कर पानी खंीचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है।
हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्रोतों-तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है। अब कस्बाई लोग बीस रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। इसके लिए जरूरी है कि विरासत में हमें जल को सहेजने के जो साधन मिले हैं, उनको मूल रूप में जीवंत रखें। केवल बरसात ही जल संकट का निदान है। तो इस तीखी गरमी को एक अवसर जानें- अपने गांव-मुहल्लों के पुराने तालाब, कुएं, नदी, सरिता, जो सूखे दिख रहे हैं|
उनमें कुछ घंटे अपने श्रम के दीप जलाएं, उनकी गाद, गंदगी, कीचड़ को निकालें और खेतों में खाद की जगह बिछा दें। यदि हर नदी-तालब की महज एक फुट गहराई बढ़ा दी तो अगली बरसात तक हमारे समाज को पानीदार बने रहने से कोई नहीं रोक पाएगा। हां, इस जल निधि की रखवाली खजाने की तरह करना होगा, ताकि कोई गंदगी, बेजा इस्तेमाल इसे दूषित ना कर दे।