Thursday, July 17, 2025
- Advertisement -

दिलों के दरम्यान पुल बनाने वाले निदा फ़ाज़ली

%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%B6 %E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
नाजिश अंसारी

दोहा जो किसी समय सूरदास, तुलसीदास, मीरा के होंठों से गुनगुना कर लोक जीवन का हिस्सा बना, हमें हिंदी पाठ्यक्रम की किताबों में मिला। थोड़ा ऊबाऊ। थोड़ा बोझिल। लेकिन खनकती आवाज, भली सी सूरत वाला एक शख्स, जो आधा शायर है आधा कवि, दोहों से प्यार करता है। अमीर खुसरो के ‘जिहाल ए मिसकीन’ से लेकर कबीर के ‘हमन है इश्क मस्ताना’ में नए फ्लेवर, तेवर के साथ रिफ्रेश वाले इस शायर का नाम है निदा फाजली। निदा याने आवाज। फाजली बना फाजला से। कश्मीर का एक इलाका जो उनके पुरखों का है। यह पेन नेम है। असल नाम है मुक्तदा हसन। पैदाईश-ग्वालियर, अक्टूबर 12,1938।
रियल नेम से पेन नेम तक के सफर में मां ‘साहिबा’ की ममता, बाप ‘दुआ डिबाइवी’ की शायराना मिजाजी शफकत के साथ खुले आंगन, बड़े दालानों, ऊंचे पेड़ों, कच्चे-पक्के छप्परों, गहरे कुंओं-तालाबों, ख्वाजा की दरगाहों, कोने वाले मंदिर, मुल्क में कमजोर पड़ती अंग्रेजी हुकुमत, नए जन्मे पाकिस्तान और गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने वाली एक खुशशक्ल हसीं का भी योगदान था। निदा जिसकी मुहब्बत में एकतरफा गिरफ्तार थे। एक दिन कालेज नोटिस बोर्ड पर उसकी मौत की खबर ने निदा को हिला कर रख दिया। स्थानीय स्तर पर एक स्थापित शायर होने के बावजूद इस रंज के लिये वे एक शे‘र तक ना कह सके। हत्ता कि पूरे उर्दू साहित्य में अपने दुख के मुकाबिल उन्हें कुछ ना मिला। मिला तो एक सुबह किसी मंदिर के पुजारी की आवाज में सूरदास का भजन-मधुबन तुम क्यौ रहत हरे/बिरह बियोग स्याम सुन्दर के/ठाढ़े क्यौं ना जरे? वे ठहर गए। हिंदुस्तानी साहित्य को तरजीह देते हुए अमीर खुसरो से लेकर नजीर अकबराबादी तक को घोल के पी डाला। निष्कर्ष निकाला। गहरी बात सादे शब्दों में प्रभावी हो सकती है। तब महबूबा को सीधे, सरल और शायद सबसे खूबसूरत लहजे में निदा ने याद किया-बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता/जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता/वह इक चेहरा तो नहीं सारे जहां में/जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नहीं जाता।
निदा अल्फाज की दाढ़ी नहीं तराशते। ना चोटी-जनेऊ पहनाते हैं। वे नास्तिक नहीं हैं। खास आस्तिक भी नहीं। सेकुलर हिन्दुस्तानी नजरिया लिए दोनों धर्म की खामियों पर चोट करते हैं-अंदर मूरत पर चढ़े ,घी,पूरी,मिष्ठान/मंदिर के बाहर खड़ा/ ईश्वर मांगे दान। घर से मस्जिद बहुत दूर है/ चलो कुछ यूं करें/किसी रोते हुए बच्चे को/ हंसाया जाए।
इस पर बवाल ही हो जाता है। स्टेज से उतरते ही टोपियां और कुर्ते घेर कर सवालों की बौछार करते हुए पूछते हैं, क्या वे किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा अपनी भारी और ठहरी हुई आवाज में जवाब देते हैं, मैं समझता हूं मस्जिद को इन्सान के हाथ बनाते हैं। बच्चे को खुद अल्लाह बनाता है।
60 के दशक में निदा के वालिदैन का पाकिस्तान चले जाने पर एक दोस्त कहता है,तुम ही क्यों यहां हो। साथ चले जाओ सबके। देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटने वाले खोखले देशभक्तों पर निदा का जवाब सुनना लाजिम होना चाहिए-‘यार इन्सान के पास कुछ चीजें बहोत सी हो सकती हैं। लेकिन मुल्क तो एक ही होना चाहिए। वह दो कैसे हो सकता है।’
मां-बाप पर मुल्क को तरजीह देने वाले निदा से बड़ा वतनपरस्त कौन हो सकता है भला! उनके लिए दिल के एक कोने में ता उम्र मुहब्बत का दिया रोशन रखने वाले निदा गजल की नाजुक नायिका से मां को रिप्लेस करते हुए लिखते हैं-बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां/याद आता है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी जैसी मां। या/और/मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार/दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।
पिता की मौत पर लाहौर न पहुंच पाने की कसक में मास्टरपीस नज्म ‘फातेहा’ शायद ही किसी स्टेज पर सुने बगैर उन्हें जाने दिया गया। गजल में गालिब-मीर, नज्म में फैज के समकक्ष होने के बाद भी उनकी शख्सियत की शिनाख्त दोहों से की जाएगी। जहां जिंदगी के फलसफे और समीकरणों के घटजोड़ में वे पूरी मजबूती से कबीर के बगल जा खड़े होते हैं-सीधा-सादा डाकिया/जादू करे महान/एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान। सूफी का कौल हो/ या पंडित का ज्ञान/जितनी बीते आप पर/उतना ही सच जान।गीता बांचिये/या पढ़िये कुरान/मेरा-तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान।सातों दिन भगवान के/क्या मंगल क्या पीर/जिस दिन सोए देर तक/भूखा रहे फकीर। सीता रावण राम का/करें विभाजन लोग/एक ही तन में देखिये/तीनों का संजोग
रुकिये अभी। निदा का एक और रूप बाकी है। फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ का गाना ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ याद है ना। ‘सरफरोश’ की गजल ‘होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है’ या ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है’ जैसे जहन में गहरे बैठ गए फिल्मी गीत भी उन्हीं की कलम से निकले। यूं लगता है चेहरे के जंगल बंबई में भी निदा ग्वालियर का वह चेहरा नहीं भूले जिससे अबोले इश्क का रिश्ता जिंदगी भर निभाते रहे। यही निदा का कमाल है। वे एक ही वक़्त में अम्मा अब्बा के प्यारे बेटे होते हैं। मालती जोशी के शौहर भी। बिटिया के लिए शॉपिंग करते ‘शॉपिंग’ लिखते बाबा। पहली प्रेमिका के नक़्श को आहिस्ता से कुरेद कर ताजा कर लेते प्रेमी भी। पान से होंठ लाल किए, ताली मार स्टेज पर पढ़ते शायर। समाज, धर्म, राजनीति के लूपहोल्स पर लिखते-पढ़ते, टिप्पणी करते सतर्क, जागरूक नागरिक भी। सबसे बढ़कर साहित्य अकादमी और पद्मश्री से सजे सेक्युलर हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करते खालिस हिंदुस्तानी।

janwani feature desk sanvad photo

What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Dipika Kakar: लीवर सर्जरी के बाद अब दीपिका कक्कड़ ने करवाया ब्रेस्ट कैंसर टेस्ट, जानिए क्यों

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक​ स्वागत...

Sports News: 100वें Test में Mitchell Starcs का धमाका, टेस्ट Cricket में रचा नया इतिहास

नमस्कार,दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत और...

Dheeraj Kumar Death: ‘ओम नमः शिवाय’, ‘अदालत’ के निर्माता धीरज कुमार का निधन, इंडस्ट्री में शोक

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत...

Nimisha Priya की फांसी पर यमन में लगी रोक, भारत और मुस्लिम नेताओं की पहल लाई राहत

जनवाणी ब्यूरो |नई दिल्ली: भारतीय नर्स निमिषा प्रिया की...
spot_imgspot_img