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सत्य के प्रति गांधीजी का आग्रह सबसे ऊपर रहता था। वह स्वयं तो इसका पालन करते ही थे, यह भी चाहते थे कि उनके करीबी लोग भी सदैव सत्य का पालन करते रहें। सत्य के लिए गांधी को कितनी भी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, लेकिन वह सच से कभी नहीं डिगे।
यह उन दिनों की बात है, जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे और फिनिक्स आश्रम में रहते थे। एक बार कुछ युवक उस आश्रम में रहने के लिए आए। उन युवकों ने एक विचित्र व्रत लिया। उन्होंने मिलकर निश्चय किया कि एक महीने तक वे बिना नमक वाला भोजन करेंगे।
इसके लिए उन्होंने प्रतिज्ञा भी कर ली। कुछ दिन तक तो वे अपनी प्रतिज्ञा पर बाकायदा अमल करते रहे, लेकिन शीघ्र ही वे सादे भोजन से उकताने लगे। जब इस तरह और चलाना मुश्किल हो गया तो एक दिन उन युवकों ने डरबन से मंगवाकर मसालेदार और स्वादिष्ट चीजें खा लीं।
सबने फैसला किया कि इस बारे में बापू से नहीं बताया जाएगा, लेकिन उन्हीं में से एक युवक ने बापू को यह सब बता दिया। बापू उस समय तो कुछ नहीं बोले, लेकिन प्रार्थना सभा में उन्होंने उन सब युवकों को बुलाकर खाने के बारे में पूछताछ की। लेकिन उन सबने मना कर दिया।
उलटा उन लोगों ने भेद खोलने वाले साथी को ही झूठा ठहरा दिया। बापू को युवकों की यह हरकत अच्छी नहीं लगी। वे जोरों से अपने गालों को पीटने लगे। फिर बोले-मुझसे सचाई छिपाने में कसूर तुम्हारा नहीं, मेरा है। क्योंकि मैंने अभी तक सत्य का गुण प्राप्त नहीं किया है।
इसलिए सत्य मुझसे दूर भागता है। बापू का यह बर्ताव देखकर युवकों पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे सब एक-एक करके बापू के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर लिया।
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