Monday, June 16, 2025
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चिंतपूर्णी देवी की महिमा

Sanskar 6

चिंता, चिता से भी अधिक भयानक होती है क्योंकि चिता तो मरे हुए को जलाती है जबकि चिंता जीवित को ही मार डालती है। आज के युग में हर कोई चिंता से ग्रस्त लगता है। चिंतामुक्त होने के लिए नाना प्रकार के यत्न करता है जैसे औषध, योग, पाठ-पूजन आदि।

चिंता से मुक्त होने का एक दूसरा उपाय भी है वह है हिमाचल प्रदेश के जिला ऊना में स्थित देवी चिंतपूर्णी का मंदिर। यह मंदिर पंजाब के होशियारपुर से कुछ दूरी पर भरवाई नामक स्थान है जहां से आगे की यात्र हेतु सुगम व्यवस्था है। भरवाई बस-अड्डे से मात्र तीन मील दूर चिंतपूर्णी देवी का मंदिर है जो भक्तों को चिंताओं से मुक्त कराता है। भक्तों को चिंताओं से मुक्त कराने के कारण देवी का नाम चिंतपूर्णी पड़ा। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए नैना देवी से भी सीधा रास्ता है जो बस मार्ग का है जिसमें करीब पहुंचने में छ:-सात घंटे लग जाते हैं।

एक मान्यता यह है कि चिंतपूर्णी माता ज्वालामुखी जी का ही नाम है। उनकी पवित्र ज्वालाओं से स्पर्श करवाकर पिण्डी को किसी भक्त के द्वारा यहां पर स्थापित किया गया। इस मान्यता के पीछे प्रमाण यह है कि ज्वालामुखी सहस्त्रनाम नामक रचना में माता ज्वाला का एक नाम चिंता भी आया है।
चिंतपूर्णी माता का इतिहास

ऐसी मान्यता है कि माईदास नाम का एक श्रद्धालु माता दुर्गा का परम भक्त था। उसके पिताजी अठूर नामी गांव रियासत पटियाला के निवासी थे जिनके तीन पुत्र थे देवीदास, दुगार्दास तथा सबसे छोटा माईदास। चूंकि पिता देवी के परम भक्त थे इस कारण से पुत्र माईदास का भी देवीभक्त होना लाजमी था।

घर के कामकाज व व्यापार में ध्यान न देने के कारण ज्येष्ठ भ्राताओं ने माईदास को अलग कर दिया लेकिन इससे माईदास की भक्ति प्रभावित नहीं हुई। वह रात-दिन देवी भक्ति में डूबा रहता था। एक समय में माईदास ससुराल जा रहा था कि रास्ते में घने जंगल में वटवृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया। आराम की मुद्रा में माईदास को नींद आ गयी।

जिस जगह माईदास को नींद आई थी उस स्थान का प्राचीन नाम छपरोह था। वहां माईदास को एक स्वप्न आया। दिव्य तेजपुंज से युक्त एक कन्या माईदास को स्वप्न में दिखाई दी। उस कन्या ने माईदास को कहा कि तुम इस स्थान पर ही रहो और मेरी सेवा करो। इसी में तुम्हारी भलाई है। कुछ क्षणों के बाद माईदास की आंख खुल गयी। वह ससुराल चल दिया लेकिन पूरे रास्ते में और ससुराल पहुंचने पर भी उसके मन में दिव्य कन्या वाली बात आती रही।

वापसी पर उसी राह से वापस वह ससुराल से आया तथा जहां स्वप्न आया था उस वटवृक्ष के नीचे बैठ गया और भक्तिपूर्वक माता से यह प्रार्थना करने लगा कि स्वप्न में जो दर्शन दिये थे, वही साक्षात में दर्शन दो। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर सिंहवाहिनी दुर्गा ने माईदास को साक्षात् दर्शन दिये और कहा कि मैं इस पेड़ के नीचे लंबे समय से अवस्थित हूं।

यवनों के आक्रमण व अत्याचारों के कारण लोग मुझे भूल गए हैं। मैं इस पेड़ के नीचे पिण्डी के रूप में विराजमान हूं। छिन्नमस्तिका नाम से पुकारी जाती हूं। अब मैंने तुम्हारी चिंता दूर कर दी है, इस कारण से मैं अब चिंतपूर्णी के नाम से जानी जाऊंगी। माईदास ने माता से निवेदन किया कि वह अकेला है, जंगल में जीव-जंतु हैं तथा भोजन पानी इत्यादि का भी प्रबंध नहीं है। ऐसे में यहां डर लगता है। कृपया मार्ग सुझायें।

माता ने तब दो प्रकार के मंत्र बताए और कहा कि इस स्थान से नीचे जाकर एक पत्थर उखाड़ो, जहां तुम्हें पानी मिलेगा। यहीं पर तुम मेरी पूजा आराधना करो। जिन भक्तों की मैं चिंताएं दूर करती जाऊंगी, वे सब बाकी की व्यवस्थाएं करते जाएंगे। मेरा मंदिर भी बना देंगे। जो चढ़ावा चढ़ेगा, उससे तुम्हारा गुजारा होता जाएगा। सूतक-पातक का विचार न करना। मेरी पूजा का अधिकार तुम्हारे वंश को ही रहेगा।

ऐसा कहकर मां दुर्गा पिण्डी के रूप में लोप हो गई। भक्त माईदास ने माता के बताये अनुसार पहाड़ी के नीचे उतरकर बड़ा पत्थर हटाया जिसके नीचे अपरिमित जल मिला। वहां माईदास ने अपनी झोंपड़ी बना ली तथा नित्य नियमपूर्वक माता की पिण्डी का पूजन आरंभ कर दिया। समय अंतराल के पश्चात वहां भक्तों ने मंदिर बनवा दिया जहां से पत्थर उखाड़ कर जल निकला था वहां पर सुंदर तालाब बनवा दिया। इसी तालाब के पानी से माता का अभिषेक आज भी किया जाता है।

माता के निर्देशानुसार भक्त माईदास ने जल निकालने के लिए जो पत्थर उखाड़ा था, वह ऐतिहासिक प्राचीन पत्थर यात्रियों के दर्शनार्थ माता के दरबार में रखा हुआ है जो मंदिर में प्रवेश करते हुए, मुख्य दरवाजे के समीप दाहिनी ओर देखा जा सकता है। माता चिंतपूर्णी का मंदिर उसी ऐतिहासिक व प्राचीन वटवृक्ष के साये में स्थित है जहां माईदास ने अपने ससुराल जाते हुए और वापिस लौटने पर विश्राम किया था और स्वप्न के उपरान्त भगवती के साक्षात् दर्शन किए थे।

आज इस वट-वृक्ष की शाखाओं पर भक्तगण मौली बांधते हैं। इच्छा पूरी होने पर वापस माता के दरबार में उपस्थित होकर उस मौली को खोल देते हैं। 1914, 1936-37, 1652-53 तथा 1964-65 में चार भक्तों द्वारा अपनी मनौती पूर्ण होने पर अथवा मनौती को पूर्ण करने की वस्तु संबंधी सामर्थ्य न होने पर अपनी जीभ काट कर चढ़ाने की घटनाएं हो चुकी हैं।

जब-जब जीभ चढ़ाने की घटनाएं हुई हैं तब-तब तत्कालीन पुजारियों द्वारा विधिवत हवन-पूजन व अखण्ड कीर्तन किये गये। कहा जाता है 24 घण्टे बाद जीभ चढ़ाने वाला भक्त फिर से माता की कृपा से जीभ प्राप्त कर घर लौटता है। आज इस शक्तिपीठ की प्रमुख शक्तिपीठों में गणना होती है लेकिन अब जीभ चढ़ाने की मनौती पर पाबंदी लगा दी गई है।

पवन कुुमार कल्ला

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