Wednesday, January 8, 2025
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गांधी, गाय और हिंदुत्व

SAMVAD


ROHIT KAUSHIKमैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी है। यह तो मुसलमान भाई भी कुबूल करेंगे। लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूं वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू, उपयोगी है। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लडूंगा ? क्या मैं उसे मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनूंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए।

(महात्मा गांधी ‘हिन्द स्वराज्य’ में)

पिछले दिनों जब हमारे समाज में जोर-शोर से गाय को बचाने की मुहिम चल रही थी और गाय को बचाना एक तरह से हिंदुत्व को बचाना ही समझा जा रहा था, उस समय यदि हम ‘हिन्द स्वराज्य’ में गांधी की लिखी उपर्युक्त टिप्पणी पढ़ लेते तो काफी हद तक इस समस्या का समाधान हो सकता था। लेकिन समस्या का समाधान तभी संभव है, जबकि हम सच्चे अर्थों में उसका समाधान चाहते हों।

जब हम जानबूझकर किसी प्रक्रिया को समस्या बनाने पर तुले हों तो उसका समाधान कहाँ से हो पाएगा? दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज तक इस समस्या का समाधान नहीं हो पाया है और हम अभी भी गाय पर मंडराते खतरे को हिंदुत्व पर मंडराते खतरे के रूप में ही देख रहे हैं। हालांकि हिंदुत्व के ठेकेदार उपर्युक्त टिप्पणी के लिए गांधी को भी गाली दे सकते हैं, क्योंकि गांधी किसी भी हाल में गाय को बचाने के लिए मुसलमान को जान से मारने की वकालत नहीं करते हैं। गांधी हर हाल में इंसानियत की रक्षा करना चाहते हैं। पिछले दिनों गाय को बचाने के नाम पर जिस तरह से मुसलमानों के साथ व्यवहार किया गया, वह इंसानियत पर काला धब्बा है।

गांधी का मानना था कि हिंसा से गौरक्षा करने का प्रयास हिंदू धर्म को शैतानी धर्म बना देगा। विचारणीय प्रश्न यह है कि आज हिंदुत्व के नाम पर जिस तरह से हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है, क्या वह हिंदू धर्म की गरिमा के अनुरूप है? शर्म तो तब आती है, जब बड़ी ही चालाकी के साथ हिंदू धर्म के नाम पर गाय को आगे कर दिया जाता है। गाय को सांप्रदायिक राजनीति के केंद्र में लाकर न तो हम इंसानियत का भला कर पाएंगे और न ही राजनीति का।

निश्चित रूप से सभी जीवों को जीने का अधिकार है। इस दृष्टि से गाय ही क्यों, सभी जीवों की रक्षा की जानी चाहिए। लेकिन गाय को हिंदू धर्म में पूजनीय माना गया है, इस लिहाज से केवल गाय की रक्षा ही की जानी चाहिए और अन्य जीवों के बारे में हमें कोई चिंता नहीं करनी चाहिए, ऐसा विचार अन्तत: हिंदू धर्म को संकुचित ही करेगा। हिंदुत्व के ठेकेदारों के क्रियाकलाप देखकर तो ऐसा ही लगता है कि उनकी मूल चिंता गाय को लेकर ही है। बल्कि यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि उनकी मूल चिंता इस बात को लेकर रहती है कि गाय के माध्यम से वे हिंदुत्ववादी राजनीति को कितना उभार पाते हैं। लेकिन हिंदुत्व के ठेकेदार तब कहां चले जाते हैं, जब गाय सड़कों पर बेसहारा घूमती रहती हैं और सड़ी-गली चीजों के साथ पॉलिथीन खाकर बीमार हो जाती हैं।

कितनी ही गाय बिना इलाज के मर भी जाती हैं। उत्तर प्रदेश में विभिन्न गौशालाओं में बेहतर प्रबंधन के अभाव में सैकड़ों गायों की मृत्यु हो गई। सवाल पूछा जा सकता है कि हिंदुओं के रहते गौशालाओ में गायों की मौत कैसे हो गई? गौशालाओं में बेहतर प्रबंध न होने के कारण क्या गायों की मौत के जिम्मेदार हिंदू ही नहीं हैं?

‘हिंद स्वराज्य’ में गांधी लिखते हैं-‘मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बरताव करूंगा? उसे मारूंगा या उसके पैरों में पडूंगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पांव पड़ना चाहिए, तो मुझे मुसलमान भाई के भी पांव पड़ना चाहिए। गाय को दु:ख देकर हिंदू गाय का वध करता है, इससे गाय को कौन छुड़ाता है? जो हिंदू गाय की औलाद को पैना (आर) भोंकता है, उस हिंदू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।’ गांधी के इन विचारों का अर्थ यह नहीं है कि वे गौरक्षा नहीं करना चाहते थे।

गांधी गौरक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने गौरक्षा के मुद्दे पर अनेक लेख लिखे और गौरक्षा सम्मेलनों में भाषण भी दिए। वे गौसेवा संघ की स्थाई समिति के अध्यक्ष भी रहे। वे कहते थे कि गौरक्षा हिंदू धर्म का केंद्रीय तत्व है। लेकिन गांधी जोर-जबरदस्ती या कानून के माध्यम से गौरक्षा किए जाने के खिलाफ थे। उनका मानना था कि मुसलमानों को समझाकर गौरक्षा के लिए प्रेरित किया जाए। गांधी कहते थे कि हिंदू बहुसंख्यकों के लिए यह अनुचित और मूर्खतापूर्ण होगा कि वे कानून के जरिये मुसलमान अल्पसंख्यकों को गौवध न करने के लिए मजबूर करें।

गौरक्षा के मुद्दे पर गांधी ने हिंदुओं को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि ‘हिन्दू, मवेशियों और विशेषकर गायों को भूखा मारते हैं। उनकी उस ढ़ंग से देखभाल नहीं करते जैसी कि करनी चाहिए और जब गाय दूध देना बंद कर देती है, तब वे उसे बेच देते हैं। बिना इस बात पर विचार किए कि क्या वे गाय को कसाईखाने में बेच रहे हैं, वे उस व्यक्ति को गाय बेचते हैं जो उन्हें उसकी सबसे ज्यादा कीमत देता है।’ गांधी ने गाय के संबंध में ये बातें बहुत पहले कही थीं लेकिन इस प्रगतिशील दौर में भी यही स्थिति है। वास्तविकता तो यह है स्थिति और खराब हो गई है।

उत्तर प्रदेश में जब से गायों को लेकर सख्ती की गई है, तब से उन्हें बेचने में भी मुश्किल हो रही है। सरकार द्वारा जगह-जगह गौशालाएं खोलने के बावजूद, बेसहारा गाय और बछड़े फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पहले दूध न देने वाली गायों और बछड़ों को कसाई खरीद लेते थे लेकिन अब इन्हें कोई खरीद नहीं रहा है, इस वजह से इनकी बेकद्री हो रही है। इस समय किसानों के लिए बेसहारा गाय और बछड़े बहुत बड़ी समस्या बन गए हैं।

इस प्रगतिशील दौर में गौरक्षा के नाम पर हिंसा शर्मनाक तो है ही, हमारी प्रगतिशीलता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। निश्चित रूप से गायों के साथ-साथ सभी जीवों के रक्षा की जानी चाहिए लेकिन गौरक्षा के नाम पर इंसान के साथ मारपीट करना यह प्रदर्शित करता है कि हम स्वयं को धार्मिक सिद्ध करने के लिए तरह-तरह की नौटंकियां करते रहते हैं। इन नौटंकियों के कारण ही हम अभी तक धर्म के वास्तविक संदेश को ग्रहण नहीं कर पाए हैं। यही कारण है कि हम समय-समय पर गौरक्षा के नाम पर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देकर अपने सांप्रदायिक स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। इस बदलते दौर में हिंदुत्व के ठेकेदारों को यह विचार करना होगा कि गाय के माध्यम से वे कैसे समाज में प्रेम रूपी दूध की नदी बहा सकते हैं, ताकि समाज को बार-बार हिंसा का गोबर न उठाना पड़े।


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