Friday, July 5, 2024
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देश की दिशा तय करेंगे चुनाव के नतीजे

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Samvad 22


Prame Singhपांच राज्यों में 10 फरवरी से 7 मार्च 2022 तक होने वाले विधानसभा चुनावों का सत्ता की राजनीति और विचारधारा की राजनीति दोनों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। राजनीतिक पार्टियों, जनसंचार माध्यमों और नागरिक विमर्श में इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा ही ज्यादा हो रही है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के स्वीकार और परवान चढ़ने के साथ भारत के राजनीतिक और बौद्धिक मंच पर जो ‘ज्ञान-कांड’ उपस्थित हुआ है, उसमें विचारधारा की राजनीति के स्रोतों और प्रेरणाओं को लगभग ग्रहण लग गया है। किसी भी देश में विचारधारा की राजनीति की प्राथमिक कसौटी वहां का संविधान होता है। राजनीति में हिस्सेदार वामपंथी, दक्षिणपंथी या मध्यमार्गी राजनीतिक दलों की विचारधाराओं को संविधान की विचारधारा को आगे विकसित और मजबूत करके अपनी वैधता और सार्थकता हासिल करनी होती है। संविधान की कला में निष्णात नेता और कानून-निर्माता ही यह काम कर सकते हैं।

भारत में अब ऐसा नहीं है। इसका प्रमाण संसद और विधानसभाओं में बनाए जाने वाले कानूनों और नीतियों में; तथा कानून एवं नीति-निर्माताओं को संसद और विधानसभाओं में पहुंचाने वाले चुनावों के विमर्श में स्पष्ट देखा जा सकता है। पांच राज्यों के चुनावों में किसी भी दल ने भयावह आर्थिक विषमता और बेरोजगारी के बावजूद नवउदारवादी नीतियों की समीक्षा करने तक की बात नहीं कही है। जबकि सभी दलों के घोषणापत्र जारी हो चुके हैं। चुनाव संबंधी किसी रिपोर्ट, विश्लेषण और लेख में भी अभी तक इस परिप्रेक्ष्य से विचार नहीं किया गया है।

मतदाताओं की जो प्रतिक्रियाएं अखबारों में पढ़ने और टीवी पर सुनने को मिली हैं, उनमें भी बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक गैर-बराबरी, विकास, भ्रष्टाचार आदि की चर्चा/शिकायत नवउदारवादी नीतियों के मद्देनजर नहीं की गई है। पांच राज्यों के ये चुनाव भी इस तथ्य की समवेत गवाही हैं कि नए अथवा निगम-भारत का निर्माण संविधान की विचारधारा के ऊपर थोपी गई नवउदारवादी विचारधारा को तेजी से आगे बढ़ाने/मजबूत बनाने से होगा। इस तरह, नए भारत के साथ उभरता कॉरपोरेट सामंतवाद आने वाले लंबे समय तक टिका रहेगा। इन चुनावों का विचारधारा की राजनीति पर यही प्रभाव है, जिसे समझने के लिए चुनाव-परिणामों का इंतजार करने की जरूरत नहीं है।

इन चुनावों के सत्ता की राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों की फेहरिस्त काफी लंबी है, जो इस साल जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव से लेकर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक फैली है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल बताया गया है। यहां के परिणाम विपक्ष की राजनीति को तो प्रभावित करेंगे ही, राज्य के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के राजनीतिक भविष्य पर गहरा प्रभाव डालेंगे। इसीलिए तीनों ने यूपी चुनाव जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है।

सत्तारूढ़ भाजपा सांप्रदायिकता की टेक लेकर चुनाव अभियान में उतरी है। निराशा-जनित उत्तेजना से ग्रस्त भाजपा नेतृत्व का चुनाव अभियान नफरत की राजनीति के रास्ते खुले-आम बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण का अभियान है।

सांप्रदायिकता की तेज रफ्तार गाड़ी के पीछे उसने विकास का छकड़ा भी बांधा हुआ है। नफरत की राजनीति की झोंक में उसने यूपी के मुकाबले में कुछ राज्यों को लांछित कर एक ओर विकास के अपने दावों को कटघरे में खड़ा कर दिया, दूसरी ओर राष्ट्रीय अखंडता पर ही प्रहार कर डाला।

सांप्रदायिकता और विकास के घालमेल के साथ उसने यूपी की पिछली सरकार के शासन-काल को ‘गुंडाराज’ प्रचारित करने की मुहिम छेड़ी हुई है। भले ही राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े यूपी में बढ़ते अपराधों की सच्चाई बयान करते हों, और केंद्र सरकार में गृहराज्य मंत्री के बेटे पर सरेआम चार किसानों को अपनी गाड़ी के नीचे कुचल कर मार देने का आरोप हो, भाजपा योगी-राज को कानून-व्यवस्था का स्वर्ग प्रचारित करने में लगी है। कबीर अगर नए भारत में आएं तो पाएंगे कि यहां उलटबासियों के लिए भरपूर सामग्री है। उनके अचंभे की सीमा नहीं रहेगी जब वे देखेंगे कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और आदित्यनाथ योगी विपक्ष, खासकर सपा नेताओं को दंगाई और गुंडे-माफिया बता रहे हैं!
भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए कुछ पेशबंदी भी की है। महंगाई को लेकर आरएसएस/भाजपा की मीडिया मशीनरी ने यह ‘नवीन तर्क’ फैलाया हुआ है कि नए भारत के निर्माण में महंगाई की मार झेलना राष्ट्र-भक्ति है।

कोरोना महामारी से हुई तबाही भी यूपी में एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रधानमंत्री ने भले ही तबाही का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ने की कोशिश की है, लेकिन प्रियजन और रोजगार खोने वाले भुक्तभोगियों को बहलाना आसान नहीं है। सरकारी नौकरियों के लिए यहां से वहां धक्के और पुलिस के डंडे खाने वाले युवक-युवतियां सरकार से खफा हैं। उन्हें विकास की तोता-रटंत-जैसे एक्सप्रेसवे, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे, स्मार्ट-सिटी, मेगा-सिटी, सौंदयीर्कृत तीर्थ-स्थल, और, यहां तक कि भव्य राम मंदिर का निर्माण आदि से हमेशा के लिए बहलाए नहीं रखा जा सकता। भाजपा की पेशबंदी के बावजूद छोटा-मोटा स्थायी-अस्थायी काम करने वाले निम्न और निम्न मध्य-वर्ग के लोगों से लेकर दिहाड़ी मजदूरों तक महंगाई निश्चित ही एक मुद्दा है।

यूपी में विपक्षी दायरे में सपा-आरएलडी और कुछ अन्य छोटी पार्टियों का गठबंधन बसपा और कांग्रेस से ज्यादा मजबूत स्थिति में है। ज्यादातर अल्पसंख्यक मतदाताओं का झुकाव सपा-आरएलडी गठबंधन की तरफ है। काफी संख्या में पिछड़े मतदाता भाजपा को छोड़ कर सपा से जुड़े हैं। तभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह का हमला सबसे ज्यादा गठबंधन की बड़ी पार्टी सपा पर है। बसपा के पक्ष में दलित मतदाता एकजुट बताए जाते हैं। लेकिन मायावती की अवसरवादी, धनवादी और भाजपापरस्त राजनीति ने दलित आंदोलन की राजनीतिक ताकत को बहुत हद तक नष्ट कर दिया है। लिहाजा, दलित वोटों में बिखराव नजर आता है।

अलबत्ता, विपक्ष के वोटों के बिखराव का फायदा भाजपा को मिलेगा। इसके अलावा भाजपा के पास एक सशक्त मजबूत काडर है। राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) में आवा-जाही करते रहने वाले दलों के कार्यकर्ताओं के साथ भी आरएसएस/भाजपा के कार्यकर्ता नजदीकी संपर्क और संबंध बना लेते हैं। हर चुनाव मीडिया में भी लड़ा जाता है जिसमें सोशल मीडिया शामिल है|

प्रेम सिंह

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