रेणु बाला शर्मा |
एक समय ऐसा भी था जब भारतवर्ष की संस्कृति और ज्ञान का परचम सारे विश्व में लहरा रहा था किंतु आज हम स्वयं अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं और 21वीं सदी के हमारे सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश की तस्वीर कैसी होगी, यह अभी भविष्य के कैमरे में कैद है। हमारी सांस्कृतिक परंपराएं व आदर्श जग-जाहिर रहे हैं परंतु विदेशी शासन की एक सदी व पश्चिमी रंग ने जिस प्रकार हमारे जन-मानस में जहर घोलकर हमारे रहन-सहन और आचार-विचार को दूषित किया है, उसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। आज यदि आजादी बाद के वर्षों पर निगाहें डालें तो प्रतीत होता है कि हम केवल नाम मात्र के ही भारतीय रह गए हैं। हम जिन गुणों व संस्कारों के कारण पहचाने जाते थे वे आज हमारे पास मौजूद नहीं हैं। विशेषकर भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी में परंपरागत संस्कारों का अभाव स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है जो निश्चित रूप से भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। आज की युवा पीढ़ी में श्रवण कुमार जैसे आज्ञाकारी पुत्र, भरत जैसा भाई, राजा हरिश्चंद्र जैसे सत्यवादी, सीता जैसी पत्न ी, सरदार भगत सिंह व सुभाषचंद्र जैसे देशभक्तों की जगह खाली है।
विदेशियों के शासनकाल में शिक्षा का समुचित प्रसार न होना और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा-प्रणाली में तुरंत आवश्यक और व्यापक परिवर्तन न करने के कारण भी हमारे संस्कारों में कमी आई है। आज की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों और परेशानियों के जाल में उलझकर भी भारतीय अपने लक्ष्य से भटक गये हैं।
पश्चिमी सभ्यता की छाप भारतीय जीवन पर स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। हमारे पहनावे, बोलचाल, अभिवादन के तौर-तरीके, रीति-रिवाजों, सामाजिक- धार्मिक समारोहों, त्यौहारों आदि में पाश्चात्य माहौल का ही बोलबाला रहता है। नमस्ते, प्रणाम, चरण स्पर्श की बजाय हाय हैलो, आदि की संस्कृति पनप रही है। कारण- माता-पिता, अभिभावकों की उदासीनता या इन अभिवादनों से तथाकथित आधुनिक कहलाने की मृगतृष्णा। आज आवश्यकता है, अपने पारंपरिक अभिवादन एवं संबोधन अपनाने की जो ज्यादा मधुर, सरस, स्नेहपूर्ण एवं आदरसूचक होने के साथ-साथ हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
दीपक बुझाना तो हमारे यहां मातम का प्रतीक है और फूंक मारकर बुझाना तो और भी अशुभ माना जाता है। हमारे यहां भरा-पूरा परिवार बनाने की परंपरा है और वहां बच्चे को बड़ा होते ही घर से निकाल दिया जाता है। हमारे यहां ढेर सारे रिश्तों का स्नेहजाल है जबकि पश्चिम में बड़े परिवार और ऐसे रिश्तों की अहमियत शून्य है।
हमारा संगीत मन को शांति, स्थिरता, एकाग्रता और आनंद देकर प्रकृति और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। भारत तानसेन व बैजूबावरा का देश है, फिर इस देश को कानफोडू, तेज कर्कश व अर्थहीन संगीत उधार लेने की क्या आवश्यकता है? हमारे यहां सौंदर्य में सत्य व शिव को देखा जाता है, नारी को घूंघट व लज्जा के आवरण में रखा जाता है जबकि पश्चिम में सौंदर्य व नारी को नंगेपन और भोग के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
इस समय चल रहे विभिन्न देशी व विदेशी चैनलों ने हमारी सभ्यता व संस्कृति पर कड़ा प्रहार किया है। इन टीवी चैनलों पर हिंसा, अश्लीलता, विलासिता, अपराधपूर्ण और अनैतिक दृश्यों व कार्यक्र मों का बच्चों के दिलो दिमाग पर अच्छा असर नहीं पड़ रहा है। बच्चों के कोरे कोमल मन में जो विचार पहुंच जाता है, वह पनपता रहता है, बढ़ता रहता है और उनके आचरण को प्रभावित करता रहता है।
एक समय था जब बेटा पिता के सामने आने व आंखें मिलाने में भी घबराता था। वहीं अब बाप बेटे एक साथ बैठकर टी.वी. देखते हैं और हर प्रकार के हजम होने वाले और न हजम होने वाले कार्यक्र मों से अपना मनोरंजन करते हैं। आज की नई पीढ़ी के बच्चे कच्ची उम्र में ही कामुक, निर्लज्ज, ढीठ, मुंहफट, स्वच्छन्द और मनमौजी हो रहे हैं तो बड़े होने पर वे क्या गुल खिलाएंगे, इसकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जहां दादा-दादी, नाना-नानी शाम ढलते ही बच्चों को अच्छी शिक्षाप्रद कहानियां सुनाते थे वहां अब सपरिवार बैठकर टीवी देखते हैं कि किस प्रकार सीरियलों में अर्धनग्न नायिकाएं मर्दों के साथ सिगरेट फूंकती हैं और बीयर की बोतलें खाली करती हैं। टीवी संस्कृति ने हमारा आहार-विहार भी बुरी तरह चौपट कर दिया है। हम अनेक अस्वस्थ आदतों के शिकार हो गए हैं। देश धीरे-धीरे अनेक महामारियों का घर बनता जा रहा है।
राष्ट्र के चरित्र में सुधार लाने के लिए अपनी मूल संस्कृति की जड़ों से जुड़ना होगा। मिट रहे आपसी संबंधों को नए सिरे से विकसित करना होगा। शिक्षा प्रणाली में आवश्यक व उचित संशोधन कर इसके प्रसार के व्यापक प्रबंध करने होंगे। विशेषकर महिला वर्ग को सुशिक्षित करना होगा। समाज के ईमानदार, कर्तव्य पारायण, चरित्रवान्, परिश्रमी, गुणवान, ज्ञानी, कलाकार और राष्ट्रभक्त लोगों को सम्मान देना होगा।
इसके अतिरिक्त समाज का भला करने के लिए व खुद को बचाने के लिए स्वयं युवा पीढ़ी को भी आगे आना होगा। गलत आहार-विहार, आचार-विचार को तिलांजलि देनी होगी। दूरदर्शिता व गहरी सूझबूझ का परिचय देकर खोखला करने वाली दोषयुक्त पाश्चात्य संस्कृति के भ्रमजाल से बचकर अपनी सभ्यता व संस्कृति के मूल्यों को समझना होगा। यदि अब इस ओर ध्यान न दिया गया तो कल पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।