
आज से सात साल पहले आम चुनाव 2014 में देश में एक नया स्लोगन लोगों की जुबान पर था, जिसके बोल थे, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’। इस स्लोगन ने आम चुनाव 2014 के परिणाम को बदलने में महती भूमिका का निर्वहन किया। भारतीय जनमानस इसी स्लोगन के काल्पनिक वादों में अपने को रंग लिया और उसके मन में एक स्वर्णिम दिन की कल्पना ने घर कर लिया। आम जनमानस के लिए अच्छे दिन का पर्याय यह था कि बेरोजगारी दूर होगी, आर्थिक स्थिति में सुधार होगा, महंगाई नियंत्रित होगी, गरीबी नियंत्रित होगी, देश की अर्थव्यवस्था खुशहाल होगी आदि ऐसे विकास के मुद्दे थे जिसको प्राप्त करने की लालसा में आम जनमानस जुट गया। सरकार बनने के तीन-चार सालों के बाद भी अच्छे दिन की शुरुआत नही हुई तो सरकार द्वारा अच्छे दिन की आस में बैठे आम जनमानस को ‘नया भारत’ शब्द से जोड़ने का प्रयास किया गया और आम जनमानस के जख्मों पर नया भारत के महिमा मंडन से मरहम लगाने का प्रयास किया गया। आज के परिदृश्य में अच्छे दिन, नया भारत, सबका साथ-सबका विकास, एक भारत श्रेष्ठ भारत जैसे शब्दों का इस्तेमाल केवल एक चुनावी रणनीति का हिस्सा मात्र है।
जिस नया भारत शब्द की महिमा का मंडन करने में सरकार और चलचित्र मीडिया कभी नहीं थकता है, उस नए भारत में क्या बदलाव हुए हैं? यह आज के बदलते दौर में विषय को महत्वपूर्ण बना देता है। क्या लोगों के मानवीय मूल्यपरक विचारों की अनदेखी करना ही नया भारत है? क्या आम जनमानस, किसानों, सर्वसहारा वर्ग की समस्याओं से अपने और अपने लोगों के हितों के लिए मुख मोड़ना ही नया भारत है? क्या अपने को सर्वोत्तम साबित करने के लिए दूसरे नए एवं प्रेरक विचारों को हास्यापद एवं शब्दों के जाल में उलझाना ही नया भारत है? आज अनेक ऐसे संदर्भ हैं जो देश में नया भारत शब्द के मायने को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। नए भारत के निर्माण के लिए केंद्र सरकार बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की बिक्री का बजट प्रस्तुत कर चुकी है। इस बार के बजट में सरकारी कंपनियों की बिक्री का जो खाका पेश किया गया है, उसके उपरान्त 348 सरकारी उपक्रमों वाले देश में सार्वजनिक उपक्रमों की संख्या सिमट कर महज दो दर्जन के करीब आ जाएगी।
सरकार द्वारा नए भारत में देश में बहु-आयामी तरक्की की बात की जा रही है, लेकिन वास्तविक तस्वीर इसके बिल्कुल इतर है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर वर्तमान समय में एक बहुत बड़ी धनराशि कर्ज के रूप में विद्यमान है। वित्त मंत्रालय के मुताबिक वाणिज्यिक ऋण बढ़ने से देश पर कुल कर्ज बढ़ा है। मार्च 2019 तक कुल बाहरी कर्ज 543 अरब डॉलर था जो विदेशी मुद्रा भंडार के अनुपात का 76 प्रतिशत था और यह कर्ज मार्च 2020 तक 2.8 प्रतिशत और बढ़कर कर 558.5 अरब डालर हो गया जो विदेशी मुद्रा भंडार के अनुपात का 85.5 प्रतिशत हो गया। जनवरी 2020 में प्रति भारतीय व्यक्ति पर 27200 रुपए कर्ज की बढ़ोत्तरी हुई। वर्ष 2014 में प्रति व्यक्ति कर्ज 41200 रुपए था जो कि साढ़े पांच साल में बढ़कर 68400 रुपए हो गया। इसी प्रकार नए भारत को मूर्त रूप देने में जुटी सरकार ने भारत में गरीबी में रह रहे भारतीय जनमानस को नजरअंदाज कर दिया है। वैश्विक गरीबी को लेकर विश्व बैंक की द्विवार्षिक रिपोर्ट ‘रिवर्सल आॅफ फॉर्च्यून’ जो 7 अक्टूबर, 2020 को जारी की गई थी, जिसके निष्कर्ष चौंकाने वाले रहे, वर्ष 2017 के आंकड़ों के मुताबिक कुल 68.9 करोड़ वैश्विक गरीबी की आबादी में से भारत में 13.9 करोड़ लोग गरीब थे। वर्तमान में भारत के पास गरीबी के नवीनतम आंकड़े नहीं हैं। सरल शब्दों में कहें तो भारत ने अपने यहां गरीबी की आबादी की गिनती करनी बंद कर दी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ, 75 वें दौर) को भारत का साल 2017-18 का घरेलू उपभोग-व्यय सर्वेक्षण डाटा जारी करना था। उपभोग-व्यय आंकड़ों से ही पता चलता है कि भारत में आय का स्तर कितना बढ़ा है लेकिन केंद्र सरकार ने ‘गुणवत्ता’ का हवाला देते हुए यह डाटा जारी नहीं किया।
इसी प्रकार नए भारत की संकल्पना को लेकर चल रही सरकार की योजनाओं के फलस्वरूप बेरोजगारी की दर में वृद्धि एवं प्रति व्यक्ति आय में कमी आई है। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2021 में भारत की प्रति व्यक्ति आय 5.4 प्रतिशत घट सकती है। इसी प्रकार बेरोजगारी के दर की बात करें तो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमिक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त 2020 में बेरोजगारी की दर बढ़ी है, अगस्त 2020 में बेरोजगारी के दर 8.35 प्रतिशत दर्ज की गई, जबकि जुलाई 2020 इससे कम 7.43 प्रतिशत थी। नया भारत में अच्छे दिन की आस लगाए भारतीय जनमानस को भुखमरी के क्षेत्र में भी नकारात्मक परिणाम देखने को मिले। वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2020 में भारत 107 देशों की सूची में 94 वें स्थान पर है। भारत भुखमरी सूचकांक में 27.2 स्कोर के साथ गंभीर श्रेणी में है।
नए भारत की संकल्पना में रह रहे भारतीयों को महंगाई से भी कोई राहत नहीं मिली। यदि हम कुछ अलग-अलग दैनिक उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो पता चलता है कि वर्ष 2014 से पहले खाद्य तेल 65-70 रुपए प्रति लीटर था जो आज 115-150 रुपए पर है, शक़्कर 22-25 रुपए से बढ़कर 35-38 रुपए प्रति किलोग्राम, सीमेंट 195-210 से बढ़कर 320-350 रुपए प्रति बोरी, लोहे का सरिया 3200-3600 से बढ़कर 5300-5500 रुपए प्रति कुंतल, बालू 1400-1600 से बढ़कर 3500-4000 प्रति ट्राली, पेट्रोल 65-68 से बढ़कर 86-95 रुपए प्रति लीटर, डीजल 55-58 से बढ़कर 83-85 रुपए प्रति लीटर हो गया है। इसी प्रकार दो पहिया वाहनों की कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ है, एक्टिवा 58-62 हजार से बढ़कर 85-90 हजार, मोटर साइकिल 50-65 हजार से बढ़कर 80-90 हजार तक पहुँच गयी है।
इस प्रकार आज के परिदृश्य में अच्छे दिन, नया भारत, सबका साथ-सबका विकास, एक भारत श्रेष्ठ भारत जैसे शब्दों का इस्तेमाल केवल एक चुनावी रणनीति का हिस्सा मात्र है। वास्तविकता में नए भारत में शोषक एवं शोषित वर्ग का उदय हुआ है। अमीर एवं गरीब के बीच के अंतर बढ़ा है। संवेदनशील भावनाओं एवं नैतिक उत्तरदायित्वों के पतन के साथ-साथ नए-नए शब्दों के इस्तेमाल से आम जनमानस को छलने का चलन बढ़ा है। ऐसे समय में अच्छे दिन की केवल कल्पना ही की जा सकती है।