Tuesday, October 22, 2024
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अदम गोंडवी ने चलाए अपनों पर भी तंज के तीर

Samvad 51

13 18जनकवि अदम गोंडवी ‘22 अक्टूबर, 1947-18 दिसम्बर, 2011) को आमतौर पर इस बात के लिए याद किया जाता है कि वे जीवन भर दलित व वंचित तबकों की आवाज बने रहकर और बेबाक होकर सत्ताओं से उनके सवाल पूछते रहे। इसके लिए जरूरी हुआ तो अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने, मठ व गढ़ सब तोड़ने, यहां तक कि ‘अपनों’ को नाराज करने से भी परहेज नहीं किया। इसीलिए कहा जाता है कि गोपालदास ‘नीरज’ ने अपने एक गीत में कभी जो यह बात लिखी थी: जिनका दु:ख लिखने की खातिर मिली न इतिहासों को स्याही, कानूनों को नाखुश करके मैंने उनकी भरी गवाही…जले उमर भर फिर भी जिनकी अर्थी उठी अधेरे में ही, खुशियों की नौकरी छोड़कर मैं उनका बन गया सिपाही…चमचम चूनर चोली पर तो लाखों ही थे मरने वाले, मेरी मगर ढिठाई मैंने फटी कमीजों के गुुन गाये…यह उनसे ज्यादा अदम कह जिन्दगी पर चस्पां होती हैं।

याद कीजिए, अपने वक्त में अदम का सबसे बड़ा और सबसे तल्ख सवाल कौन-सा था? सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पे रखकर हाथ कहिये देश ये आजाद है? उनकी विशेषता यह कि वे इसे दूसरों से ही पूछकर नहीं रह गए थे, खुद से भी पूछा था और जल्दी ही इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि सौ में सत्तर आदमी इसलिए नाशाद हैं, क्योंकि जिस रामराज्य का वे सपना देख रहे थे, उसका भेष बदलकर किसी और आंगन में उतार लिया गया है। तब उन्होंने लिखा: काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में। यह लिखना उनके द्वारा खुद को भी आईना दिखाना था, क्योंकि ह्विस्की की लत उन्हें भी थी। दरअसल, उनके कवि का बड़प्पन ही इसी बात में है कि उसने दारुण से दारुण परिस्थितियों में भी न अपने सवाल बदले, न ही उन्हें पूछने के अपने उसूल से समझौता नहीं किया। कोई अपना उसके सपनों का ‘दुश्मन’ बनकर सामने आ खड़ा हुआ तो भी न हकलाया, न ही कमजोर होकर उसकी लप्पो-चप्पो पर उतरा।

यही कारण है कि अदम की प्रश्नाकुलता ने चिराग तले का कतई कोई अंधेरा सृजित नहीं किया। इतना ही नहीं, जो महानुभाव उनकी बहुत इज्जत करते, अपनी सोहबत में रखते, उनकी दुर्दशा पर रहम करते, दया दिखाते और साथ खाते-पीते या उन्हें खिलाते-पिलाते थे, उनके ‘अंधेरों’ के प्रति भी नरम नहीं अल्कि निर्मम रुख ही अपनाया। मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश के जिस गोंडा जिले में उनका घर था, उसके एक ‘सिन्हा’ टाइटिल वाले जिलाधिकारी उनके मित्र थे और यह सोचकर अपने स्याह-सफेद की परदेदारी किए बिना उन्हें अपने ड्राइंग रूम में बैठाते थे कि भले आदमी हैं वे, कवि तो हैं ही, फिर चौकी की बात चौके में क्यों करेंगे? लेकिन अदम ने उनके ड्राइंगरूम में जो कुछ भी देखा उसे बेबाकी से लिख और अपने श्रोेताओं तक पहुंचा डाला: महज तनख्वाह से निपटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के। ये सूखे की निशानी उनके ड्राइंगरूम में देखो, जो टीवी का नया सेट है रखा ऊपर तिपाई के। मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं, वे कंगन कलाई के।

दरअसल, अदम के लिए अपनी शायरी में ईमानदार व जनोन्मुख होना शब्दों के चमत्कार से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था और वे अपने शुरुआती दौर में ही सामंतों व सवर्णों को दलितों के कठिन जीवन का ताप महसूस कराने के उद्देश्य से ‘चमारों की गली’ शीर्षक लम्बी मर्मभेदी रचना लिखकर अपने ‘बंधु-बांधवों’ को दुश्मन बना चुके थे। बात अधूरी रह जाएगी, अगर 1986 के अदम के उस आगाज का जिक्र न किया जाए, जिसने उन्हें रातो-रात राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया।

दरअसल, उस साल प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के पचास साल पूरे हुए थे और लखनऊ में हो रहे उसके सम्मेलन में रात को आयोजित कवि सम्मेलन में स्मृतिशेष मुल्कराज आनंद, तांबा, नागार्जुन, त्रिलोचन और कैफी आजमी वगैरह के साथ कई दूसरी भारतीय व विदेशी भाषाओं के कवि भी उपस्थित थे। कवि सम्मेलन शुरू हुआ और संचालक ने परम्परा के अनुसार वरिष्ठों को पेश करने से पहले, स्थानीय छुटभैये कवि यश: प्रार्थियों को उपकृत करना शुरू किया तो काव्य-संसार में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्षरत अदम भी उन्हीं के बीच जा बैठे। वे स्थानीय नहीं थे, लेकिन उन्होंने संचालक से वायदा करा लिया था कि वह वरिष्ठ कवियों से पहले उनका कवितापाठ करा देगा।

लेकिन ऐन वक्त पर संचालक अपना वायदा भूल गया और याद दिलाने पर झिड़ककर कह दिया कि अब वक्त कहां बचा? फिर तरस खाते हुए से कहा-चलो, नाम पुकार देता हूं तुम्हारा, लेकिन एक ही कविता सुनाकर बैठ जाना। उसकी बात मानकर अदम माइक पर पहुंचे तो किसी उद्दंड श्रोता को कहते सुना, ‘लगता है कि अभी-अभी हल जोतकर आ रहा है!’

दरअसल, नजाकत व नफासतपसंद लखनऊ के लोग किसान अदम की कुर्ता-धोती व गमछे वाली देहाती वेशभूषा का मजाक उड़ाने पर उतर आए थे। लेकिन अदम ने अपने आत्मविश्वास को कमजोर नहीं पड़ने दिया और गजल सुनानी शुरू की: जितने हरामखोर थे कुर्ब-ओ-जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में।…जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुजार दें, समझो कोई गरीब फंसा है शिकार में!

फिर तो चमत्कार हो गया! उनका मजाक उड़ा रहे श्रोताओं की संवेदनाएं इस कदर झंकृत हो उठीं कि अदम वही गजल सुनाकर जाने लगे तो हंगामा बरपाकर संचालक को उन्हें दोबारा बुलाने को मजबूर कर दिया और फिर भी तृप्त नहीं हुए। अदम साहित्याकाश में छाए तो आखिरी सांस तक छाए ही रहे।

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