राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिलने के बाद 25 दिसंबर को भारतीय न्याय संहिता विधेयक, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक और भारतीय साक्ष्य विधेयक को कानून का दर्जा प्राप्त हो गया। बता दें कि इन तीनों विधेयकों को भारतीय दंड संहिता-1860 (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता-1898 (सीआरपीसी) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872 के बदले में लाया गया है, जिन्हें 20 दिसंबर को लोकसभा में पारित किया गया था। इन विधेयकों को लेकर संसद के भीतर और बाहर कुछ विवाद भी हुए। इस संबंध में सरकार का मानना है कि वक्त की जरूरत के हिसाब से औपनिवेशिक काल के पुराने कानूनों को न्याय संगत बनाने के लिए इन तीनों विधेयकों को संसद से पारित कराना जरूरी था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के अनुसार इन विधेयकों के माध्यम से ‘दंड’ की जगह ‘न्याय’ उपलब्ध कराने की कोशिश की गई है।
देखा जाए तो पुराने कानूनों के बरक्स नए विधेयकों से संबंधित कई पहलू बेहद गंभीर एवं विचारणीय हैं। जाहिर है कि इन पहलुओं पर संसद के भीतर गंभीर चर्चा कराई जानी चाहिए थी। इससे नए विधेयकों की खूबियों और कमियों का पता चल जाता और यदि कुछ कमियां पाई जातीं तो जाहिर है कि उनमें अपेक्षित सुधार करने की पहल भी की जाती, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीें सका, जबकि संसद की बैठकें इन कार्यों के लिए ही बुलाई जाती हैं। इसलिए शीतकालीन सत्र का उपयोग भी इन्हीं के निमित्त किया जाना चाहिए था।
गौर करें तो पिछले लगभग आठ दशकों में देश और दुनिया में अपराध का पूरा तंत्र बदल चुका है। अपराधियों की सोच एवं अपराध करने का तरीकों आदि सबकुछ पहले से काफी बदल गया है। जाहिर है कि ऐसे में अपराधियों से निपटने, अपराध पर अंकुश लगाने एवं अपराधियों को सजा/न्याय दिलाने की प्रक्रिया में बदलाव लाना बहुत आवश्यक था। इसलिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बदलाव करना अपेक्षित भी था और आवश्यक भी। नित्य घटित होती रहने वाली घटनाओं पर यदि गौर करें तो पता चलता है कि हमारी दंड प्रक्रिया एवं पुलिस-प्रशासन के कार्य करने का तरीका अब तक वही सदियों पुराना है, जबकि अपराधी दिनोंदिन हाइटेक होते जा रहे हैं। बदलते हुए समय के अनुरूप अपराधियों के व्यवहारों में नित्य हो रहे बदलावों के मद्देनजर दंड/न्याय प्रक्रिया में व्यापक बदलाव करना भी बेहद जरूरी था। यही कारण है कि इन नए कानूनों में नई तकनीक के उपयोग से न्याय को अधिक विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है। बता दें कि इन कानूनों के अनुसार अब डिजिटल साक्ष्य (एविडेंस) भी कानूनी साक्ष्य के रूप में मान्य होंगे।
नए कानूनों में भीड़ हिंसा यानी मॉब लिंचिंग तथा नाबालिग से दुष्कर्म करने को घृणित अपराध मानते हुए इसके लिए फांसी का प्रावधान किया गया है। वहीं ब्रिटिश शासन काल से चले आ रहे राजद्रोह कानून को खत्म कर देश के खिलाफ काम करने वाले व्यक्तियों को दंडित करने के लिए देशद्रोह कानून को लाने का कार्य केंद्र सरकार ने किया है। गैंगरेप के मामले में दोषी सिद्ध हो जाने पर अपराधी को बीस साल की सजा या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान भी इन नए कानूनों में किया गया है। इन कानूनों में एक बात स्पष्ट रूप से शामिल की गई है कि यौन हिंसा के मामले में पीड़ित महिला का बयान केवल ‘महिला न्यायिक मजिस्ट्रेट’ ही दर्ज कर सकेंगी। इनके अतिरिक्त इन नए कानूनों के अस्तित्व में आ जाने से जो सबसे अधिक लोकप्रिय एवं क्रांतिकारी बदलाव आया है वह झूठे वायदे कर या पहचान छिपाकर यौन संबंध बनाने के संदर्भ में है। गौरतलब है कि नए कानूनों के अनुसार अब झूठे वायदे कर या पहचान छिपाकर यौन संबंध बनाना अपराध की श्रेणी में आ गया है। जाहिर है कि ये सारी बातें देश के सभी नागरिकों को अच्छी लगने वाली हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान जिस प्रकार से झूठे वायदे कर अथवा पहचान छिपाकर यौन संबंध बनाने तथा धर्म परिवर्तन के लिए जोर डालने की घटनाएं प्रकाश में आई हैं, वह बेहद चिंताजनक है।
वहीं, इन कानूनों में पहली बार सरकार द्वारा आतंकवाद की व्याख्या करने की पहल करना आतंकी गतिविधियों एवं आतंक के विविध रूपों के विरूद्ध सरकार की दृढ़ मंशा को दर्शाता है, जो नागरिकों के मन में नई आशाएं जगाने वाला है। लेकिन इन नए कानूनों में ‘टेलीकॉम’ शब्द की स्पष्ट परिभाषा नहीं होने से कानूनी जिम्मेदारी पूरी किए बगैर ही टेक महारथी आर्थिक दोहन का राजमार्ग बनाने में सफल हो सकते हैं। साथ ही विदेशी टेलीकॉम कंपनियों की लॉबीइंग के बाद नए कानूनों के दायरे से ओटीटी सर्विसेज को बाहर रखने से अर्थव्यवस्था को भारी क्षति हो सकती है। इसी प्रकार पुलिस हिरासत में किसी अभियुक्त को रखने की अधिकतम सीमा 15 दिन से बढ़ाकर 90 दिन करने वाले बदलाव पर संसद में चर्चा नहीं कराना भी खतरनाक बात है, क्योंकि इस कानून से देश में पुलिस के निरंकुश होने का खतरा बढ़ सकता है। विपक्षी नेता भी इन कानूनों को लेकर कुछ ऐसी ही आशंकाएं जता रहे हैं, जबकि गृहमंत्री अमित शाह इस बदलाव को औपनिवेशिक काल के कानूनों से मुक्ति बता रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस ने इस मुद्दे पर संवेदनशीलापूर्वक कभी नहीं सोचा। गृहमंत्री का दावा है कि ये तीनों कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार और सबके साथ समान व्यवहार के आधार पर लाए गए हैं।
उल्लेखनीय है कि इन तीनों ही विधेयकों को गत अगस्त महीने में मानसून सत्र के अंतिम दिन लोकसभा के पटल पर रखने के बाद भाजपा सांसद बृजलाल की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति को विचारार्थ भेज दिया गया था। संक्षेप में कहें तो औपनिवेशिक काल के तीनों कानूनों को खत्म करना एक सुखद एहसास है, जो बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था। सच यह भी है कि सांसदों के निलंबन के विरुद्ध उपराष्ट्रपति की फूहड़ मिमिक्री करना बेहद शर्मनाक एवं ओछी घटना है, जबकि इसे दोहराना निस्संदेह लोकलाज, राजनीतिक मर्यादाओं एवं लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट का प्रतीक है, लेकिन लगभग विपक्षहीन हो चुकी संसद में बहस के बिना कानून पारित कर देना भी लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। इसलिए दोनों ही घटनाओं को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।