Friday, April 25, 2025
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एलार्मिंग है बच्चों में बढ़ती आक्रामकता

BALWANI


उषा जैन ‘शीरीं’ |

आज के बाजारवाद के युग में जहां रोज नये नये मॉडल के लक्जरी आयटम बाजार में आ रहे हैं, बच्चे अपने मन पर काबू रखें तो कैसे। उन्हें भी वो सब चाहिए जो उनके अमीर दोस्तों के पास है। नहीं मिलने पर उनमें फ्रस्टेऊेशन पनपने लगता है जो धीरे-धीरे बढकर आक्रामक तेवर इख्तियार कर लेता है।

बच्चों में बढ़ती आक्रामकता मानसिक रोग का रूप धारण करती जा रही है। यह किसी भी छूत के रोग की तरह फैल गई है। ऐसा भी नहीं कि कारण से सभी अनजान हों। कारण स्पष्ट हैं। वे हमारी जीवन शैली का अंग बन चुके हैं। इस हद तक ये हमारे जीवन में रच बस गए हैं कि सभी इनसे छुटकारा दिलाने के मामले में अपने को मजबूर पाते हैं। समझ नहीं पाते कि आखिर करें तो क्या?

टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल के बगैर आज जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इनसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जो नुकसान हो रहे हैं, उनकी गिनती नहीं। जैसे खाद्य पदार्थो में जानते हैं मिलावट का जहर है फिर भी खाने से कहां बाज आते हैं ठीक उसी तरह टीवी, इंटरनेट दिमाग के लिये अस्वास्थ्यकारी जहरीला होने के बावजूद बच्चे बड़े उनमें डूबे रहते हैं।

मीडिया एक्सपोजर से बच्चे जल्दी परिपक्व हो रहे हैं। कुदरत ने जीवन को बड़े सलीके से कुछ चरणों में बांधा है जिसके अनुरूप जीवन चक्र नियमपूर्वक चल रहा था लेकिन जहां इंसान ने प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन अपनी समझ को तिलांजलि देकर करना शुरू कर दिया है वहीं उसके भयंकर परिणाम भी सामने आ रहे हैं। बच्चों का बचपन छिन गया है। बायलॉजिकली देखें तो बच्चों में हार्मोन्स की पहले के मुकाबले ज्यादा सक्रि यता उन्हें आक्र ामक बनाकर अपराध की ओर धकेल रही है।

दरअसल हर बच्चे में मेल तथा फीमेल हार्मोन होते हैं। मेल हार्मोंस की निश्चित अनुपात से ज्यादा सक्रि यता लडकों में आक्र ामकता बढ़ाती है। फीमेल हार्मोंस की निश्चित मात्र से अधिक मात्र लड़कियों की भावनाओं में उद्वेलन मचाने लगती है। नतीजन वे भी टैपरामेंटल होने लगती हैं।

ऐसा नहीं है कि पहले बच्चे क्र ोधी, जिद्दी व आक्र ामक नहीं होते थे लेकिन पहले उनकी लिमिटस थीं। आज सीधे पिस्तौल लेकर फिल्मी अंदाज में सामने वाले के परखच्चे उड़ा दिये जाते हैं। किशोर वय के बच्चे ही नहीं, आज छोटे-छोटे से बच्चे जिन्हें ठीक से बोलना भी नहीं आता, टीवी पर देखी किसी हिंदी, इंग्लिश फिल्म की नकल करते हुए अपने से छोटे बच्चे का मर्डर तक करने लगे हैं।

कई बार माता-पिता की लापरवाही, उनकी आपसी रोज-रोज की कलह, विवाहेत्तर संबंध, नशे की लत, उनका हायपर होना, अतिव्यस्तता के चलते बच्चे से संवादहीनता की स्थिति, जैसी बातों के कारण बच्चों की साइकी पर बुरा असर होने लगता है। प्यार और केयर जो उनका अधिकार है, उन्हें नहीं मिल पाता। बच्चा स्वयं को बेहद असुरक्षित महसूस करता है उसमें हीन भावना घर कर सकती है। इन सबके कारण वो काफी वल्नरेबल हो जाते हैं। गलत संगत में पडकर असामाजिक कार्य करते उसे देर नहीं लगती।

उम्र के नाजुक दौर में जब वो किशोरवय में पदार्पण कर रहा होता है तब से लेकर युवक बनने तक वे आइडेंटिटी क्राइसिस से गुजर रहे होते हैं। ऐसे में माता-पिता का उन्हें बच्चे की तरह ट्रीट करना उनमें विद्रोह को जन्म देने लगता है। उनके बागी तेवर माता-पिता में क्र ोध जगाते हैं और इस तरह ये एक विशस सर्कल बन जाता हैं। न माता-पिता बच्चे को समझते हैं, न बच्चा माता-पिता की उनकी उनके प्रति सद्भावनाओं को समझ पाते हैं।

चाइल्ड साइकॉलोजिस्ट डी.के. सेन के अनुसार किशोर वय के बच्चों में आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने का कारण कई बार महज अपने अति व्यस्त पेरेंट्स का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना होता है।

आज के बाजारवाद के युग में जहां रोज नये नये मॉडल के लक्जरी आयटम बाजार में आ रहे हैं, बच्चे अपने मन पर काबू रखें तो कैसे। उन्हें भी वो सब चाहिए जो उनके अमीर दोस्तों के पास है। नहीं मिलने पर उनमें फ्रस्टेऊेशन पनपने लगता है जो धीरे-धीरे बढकर आक्र ामक तेवर इख्तियार कर लेता है।

निस्संदेह अच्छे संस्कारों का बच्चे के व्यवहार पर असर पड़ता है। बच्चों को भरपूर प्यार, मित्रवत व्यवहार मिले, उनके पेरेंट्स के साथ ओपन रिलेशन हों तो कोई कारण नहीं कि उनकी लाइन बिगड़े, वे अनावश्यक तेवर दिखाएं।
इसी तरह टीचर्स को भी बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मारना नहीं चाहिए। टीचर्स को चाहिए कि पढ़ाई के साथ बच्चों को नैतिकता का पाठ भी पढ़ाएं। समाज में कुछ जरूरी बदलाव लाने होंगे। बच्चे हमारा भविष्य हैं। भविष्य के साथ खिलवाड़ उचित नहीं।


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