कहते हैं कि बादशाह अकबर वृंदावन में स्वामी हरिदास के दर्शन करने संगीत सम्राट तानसेन के साथ आया था। स्वामी जी के मुख से यमुना की महिमा सुनकर अकबर की इच्छा यमुना पूजन करने की हुई। इस पूजन के लिए तानसेन ने एक पुजारी को चुना, जो सबसे अधिक विद्वान और बहुत वृद्ध था। पूजन के बाद अकबर ने पुजारी को एकांत में ले जाकर यमुना की रेत से ही उठाकर एक ‘फूटी कौड़ी’ पुरस्कार के रूप में दी। पुजारी ने अकबर को आशीर्वाद दिया। कोई नहीं जानता था कि अकबर ने पुजारी को क्या दान दिया! लोगों ने पुजारी से पूछा, ‘बादशाह ने क्या दान दिया?’ पुजारी ने कहा, ‘उन्होंने मुझे ऐसी चीज दी है, जिसे मैं पूरे जीवनभर भी खर्च करने में लगा रहूं, खर्च नहीं होगी।’ लोगों ने समझा कि निश्चित ही अनुपम उपहार दिया गया है। जो कोई भी मथुरा-वृन्दावन आता, वही चाहता कि उसका यमुना पूजन वही पुजारी करवाए, जिससे अकबर ने यमुना पूजन कराया। इस तरह पुजारी पर बहुत धन-संपत्ति एकत्रित होने लगी। जब अकबर को यह पता चला कि जो दान उसने पुजारी को दिया था, वह कीमती था, तो पुजारी को अकबर ने बुलवाया और पूछा, ‘पुजारी जी! मैंने आपको दान में एक कौड़ी दी थी और वह भी फूटी हुई थी फिर यह अफवाह कैसे हुई और आपके पास इतनी धन संपदा कहां से आई?’ पुजारी ने कहा, यह सत्य है कि आपने मुझे एक फूटी कौड़ी ही दी थी। आपने मुझे यमुना पूजन के लिए चुना, यह मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा अवसर था। मैं जानता था कि ऐसे अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते। मैं इतना मूर्ख नहीं कि सम्राट अकबर के उपहार का अपमान करूं, मैंने अपनी छोटी-सी बुद्धि से फूटी कौड़ी को ही अपनी सफलता का कारण बना दिया।’ अकबर ने पुजारी को बहुत इनाम देकर विदा किया।
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