हे दिग्विजयी साध्वी प्रज्ञा! शुक्रिया, आप को भोपाल की याद तो आई।’ तयशुदा बात है कि दो माह से अधिक अंतराल के बाद भोपाल पहुंची सांसद ने यह उम्मीद भी नहीं की होगी कि भारत का एक अग्रणी हिंदी दैनिक इस अंदाज में उनका स्वागत करेगा। दरअसल वह दैनिक भोपाल की लाखों जनता में कोविड को लेकर मची त्राहिमाम और इस दौरान सांसद महोदया का बिल्कुल अवतरित न होना तथा उससे उपजे आक्रोश को रेखांकित कर रहा था। इन क्रुद्ध नागरिकों ने तो बाकायदा सोशल मीडिया पर अपनी ‘मिसिंग अर्थात ‘गायब’ सांसद के बारे में एक कैम्पेन भी चलाया था। मालूम हो कि आखिरी दफा मोहतरमा सांसद ठीक 2 मार्च को शहर में नजर आर्इं थीं जब वह किसी श्रद्धांजलि सभा में उपस्थित थीं। इस बीच का अंतराल दरअसल पूरे देश की तरह भोपाल तथा आसपास की जनता के लिए गोया कहर बन कर बरपा था जब कोविड की दूसरी लहर में तमाम लोग कालकवलित हो रहे थे कि श्मशानों और कब्रिस्तानों में 24 घंटे अंतिम संस्कार हो रहे थे। लोगों का गुस्सा बेहद स्वाभाविक था जब पूरे 70 दिन बाद जब लोग आपदा से गुजर रहे थे, तब जनप्रतिनिधि नजर आया था।
दैनिक ने बिल्कुल सीधे पूछा कि आप इतने दिन कहां थी, जब लोग दवाइयों की तलाश में दर दर भटक रहे थे। वैसे एक चुने हुए जनप्रतिनिधि की इस तरह ‘गैरमौजूदगी’ जबकि उसके मतदाताओं को उसकी सख्त़ जरूरत हो, कोरोना संकट के दिनों को लेकर एक मौजूं सवाल उठाती है। पूछा जा सकता है कि क्या अनुपस्थिति अपवाद कही जा सकती है? यह मानने के वाजिब कारण मिल सकते हैं कि मामला यह नहीं था। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की बात भले ही हम मुल्तवी करें, हम यह तो जरूर देख सकते हैं कि दक्षिणपंथ के तमाम आनुषंगिक संगठनों के तमाम अनुशासित जन-जैसा कि वह दावा करते हैं-भी मैदान से बिल्कुल नदारद थे, जनता को अपने हाल पर उन्होंने छोड़ दिया था।
जब कोविड की दूसरी लहर-जिसके आने के अनुमान पहले ही लग चुके थे, वैज्ञानिक समूहों के सलाहकार मंडल ने सरकार को इस के बारे में आगाह भी किया था-ने अस्पतालों की जबरदस्त कमी, उनकी बदइंतजामी, आॅक्सीजन सिलिंडर की कमी से होने वाली मौतों को लेकर पूरी स्थिति को सामने प्रस्तुत किया और यह भी बेपर्द किया कि सरकार भी इस मामले में कितनी गाफिल रही है-तब कुछ समय पहले तक हर मोहल्ले, हर घर पहुंचनेवाले हिंदुत्व के सभी ‘रणबांकुरे’ बिल्कुल नदारद थे।
सभी जानते हैं कि आम तथा खास जन सभी कोविड संक्रमण की संभावना और उससे होनेवाली दुर्गत और मौत के बाद भी सम्मानजनक अंतिम संस्कार न हो पाने की संभावना से चिंतित थे। यह पहली दफा इतने पैमाने पर हो रहा था कि आप का बैंक बैलेंस आप के लिए अस्पताल के अदद बेड की या उसके साथ आॅक्सीजन सिलिंडर की गारंटी नहीं कर सकता था। इधर कोविड के मरीज आॅक्सीजन की कमी से अस्पतालों के गेट पर या कभी-कभी सुपरस्पैशालिटी अस्पतालों में आॅक्सीजन की सप्लाई रुक जाने से मर रहे थे और उधर सरकार थी जो गोया पूरे परिदृश्य से गायब थी। ऐसा आलम था कि उच्च अदालतों को कहना पड़ रहा था कि जनता को रामभरोसे छोड़ दिया गया है या इतनी बुनियादी सुविधाओं की कमी से मरीजों का मर जाना ‘जनसंहार’ से कम नहीं है।
गौरतलब था कि ऐसी स्थिति में जबकि जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया गया था, तब उनकी मदद करने के लिए तरह-तरह के हाथ आगे आए, जो अजनबियों के लिए देवदूत बने, जिन्होंने अपने मरीज की आॅक्सीजन बगल के बिस्तर पर पड़े मरीज को देकर उसकी जान बचाई, चंद आदर्शवादी नौजवानों ने अपने आप को जोखिम में डाल कर आपस में नेटवर्क बना कर जरूरतमंदों की मदद की। मिसाल के तौर पर क्या आप ने सुना है उदयपुर के उस शख्स अकील मंसूरी के बारे में जिसने अपना रोजा तोड़ कर दो कोविड मरीजों-अलका और निर्मला की जान बचाई-जब कोविड संक्रमण से पहले प्रभावित तथा बाद में ठीक हुए उन्होंने अपना प्लाजमा इन्हें दिया या मुमकिन है कि आप ने यूपी के जौनपुर के उस शख्स विकी अग्रहरी के बारे में-जो बेहद साधारण परिवार का है तथा आॅटो चलाता है-भी सुना हो, जिसने अपने खर्चे से आॅक्सीजन सिलिंडर का इंतजाम करवा कर सरकारी अस्पताल के बाहर पड़े मरीजों को दिए, जिन्हें बेड नहीं मिल सका था और इसके बदले उसे सरकार की तरफ से यह ईमान मिला कि कोविड के नियमों का उल्लंघन करने के लिए पुलिस ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया।
जाहिर है, यह ऐसी स्टोरियां अपवाद नहीं हैं, हर कोई व्यक्ति हमें ऐसे प्रसंगों के बारे में बता सकता है और वह सोशल मीडिया पर जरूरतमंदों द्वारा डाली गई उन अपीलों से भी आप को बता सकता है, जिनकी अपीलों को अग्रणी पत्रकार, लेखक और मीडियाकर्मी आगे बढ़ा रहे थे और ऐसी अपीलों के लिए जिस तरह जगह-जगह से स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया मिलती थी। आप कह सकते हैं कि एक तरह से राज्य के विलोपीकरण की स्थिति में-जबकि वह दिशाभ्रम का शिकार था-एक नई तरह की एकजुटता बीच बन रही थी और उसमें नए तरह के नायक भी सामने आ रहे थे। कोई जितेंद्र सिंह इधर तो कोई बीवी श्रीनिवास उधर।
क्या इस बात पर कोई यकीन कर सकता है कि जानेमाने क्लासिकल गायक किराना घराना के छन्नूलाल मिश्रा, जो 2014 के संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी के प्रथम प्रस्तावक थे, उनकी पत्नी और बेटी स्तरीय चिकित्सकीय सहायता के अभाव में वाराणसी में गुजर गए, जबकि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क भी किया था या हिंदुस्तानी संगीत के अहम गायक राजन मिश्रा राजधानी दिल्ली में सही वक्त पर वेंटिलेटर न मिलने से कालकवलित हुए, जबकि उनके बारे में भी प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क किया गया था या किस तरह ‘शक्तिमान’ सीरियल से चर्चित मुकेश खन्ना, जो भाजपा/मोदी के करीबी समझे जाते हैं-उनकी अपनी बहन भी उचित मेडिकल सहायता से कोविड से गुजर गर्इं।
पोजिटिविटी के नए वाहकों की यह कोशिश भी रहती थी कि बाकी लोग हुकूमत की तमाम लापरवाहियों पर उंगली न रखे, जिसने न वक्त पर टीकों का इंतजाम किया, न आॅक्सीजन प्लांट राज्यों में लगाए, जिसने खुद सुपरस्प्रेडर कार्यक्रमों का आयोजन करने में-चुनाव प्रचारों में रैलियां करके, मास्क का इस्तेमाल छोड़ करके लोगों को वाहक बना दिया-संकोच नहीं किया और जिसने विशेषज्ञों की सलाह के बावजूद दूसरी लहर की भयावहता को लेकर कोई इंतजाम नहीं किए।